23 दिसंबर 2008

ताला*

सारे शहर में अब तो लग चुका है ताला ।
निकलने का जब वक्त है तो बंद है ताला। ।

ये गाँव -शहर सब वीरान हो गए,
दहशत तो और भी है,देख के ताला।

गली,चौबारे जो फूलों से महकते थे,
लुट गए हैं सब बता रहा है ताला।

इंसान के बदले मंडरा रहे हैं गिद्ध ,
घर हुए निर्जन जता रहा ये ताला।

बस्ती उजाड़कर 'वे'जंगल बना रहे,
रोकनेवालों के मुंह में बंद है ताला।

ख़ामोश क्यों बैठा ख़ुदा ,ये खेल देखकर,
अरसा बीत गया ,कब खुलेगा ताला?


*शीर्षक दल्यान सिंह (मित्र) की प्रेरणा से

दूलापुर (06-09-1989)


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