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14 फ़रवरी 2013

बुड्ढों का कैसा हो वसंत !


जिनके मुरझाये चेहरे हैं
कानों से थोड़ा बहरे हैं,
आँखों की ज्योति बुझी-सी है
जिनके जीवन का निकट अंत !

बुड्ढों का कैसा हो वसंत !!

वे मरे-मरे से रहते हैं
सूने नयनों से कहते हैं,
'तुम यूँ आलिंगन-बद्ध रहो
हम भी कोई नहीं संत’!
बुड्ढों का कैसा हो वसंत !!

दिल के सारे अरमान लुटे
नहीं कोई मोहिनी पटे
पिचके गालों के गढ्ढों में
चुम्बन को आतुर नहीं दन्त !
बुड्ढों का कैसा हो वसंत !!

यार मनाओ खुशी आज
छेड़ो जीवन के मधुर साज ,
हम अपनी संध्या-बेला में
तुम कूदो बछड़े बन उदन्त !

बुड्ढों का कैसा हो वसंत !!


*सुभद्रा कुमारी चौहान से क्षमायाचना सहित

14 मई 2012

पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

घरवाली हमते समझदार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

वी घर का काम लेहेन  मूँड़े
हम बाहर घूमि-घामि आई,
मोबाइल अउ कम्पूटर ते 
जइसे हमारि भै होय सगाई !

लड़ते-झगड़ते हो गए बाइस बरस 
जब द्याखो बात सुनावैं चार 
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

कपड़ा-लत्ता ,बरतन-चउका 
खाना-पीना ,उनके जिम्मे,
ना कहीं घूमना,बाहर खाना
पूजा, बरत निभावैं रस्में !

हमही लरिकन के गुनहगार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

अब पूरे बाइस बरस बीते 
वी झेलि रहीं हमरी संगति,
'सत्ती होइ गईंन तुम्हैं साथै'
हमरी घरवाली रोजु कहति !

हमहीं यहि घर के बंटाधार ,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !