30 दिसंबर 2010

पुस्तक मेला से जो मिला !

अबकी बार हमने सोच रखा था कि दिल्ली पुस्तक मेले में नहीं जायेंगे क्योंकि पिछले मेलों की गठरी अभी  पूरी तरह  खुल नहीं पाई है ,साथ ही श्रीमती जी की ताक़ीद भी कि इतनी पुस्तकों को रखने की तो जगह नहीं है, अब और मत लाना !

अचानक हमारे मित्र महेंद्र मिश्र जी का फोन आ गया कि कब चल रहे हैं तो हम अपना लोभ-संवरण नहीं कर पाए और आख़िर  दिन,तारीख़ तय कर दी.मेले में सीमित धनराशि ले गए थे ताकि अपने से ज़्यादा  खरचा न हो जाए !
पहले तो स्टेशनरी-स्टॉल में कुछ फाइल-कवर लिए फिर अचानक एक स्टॉल में रोबिन शर्मा का चित्र देखा तो  प्रवीण पाण्डेय  की एक पोस्ट याद आई जिसमें उन्होंने इनकी तारीफ़ों के पुल बाँधे थे.बस मैं अपने रंग में आ गया और उनकी दो पुस्तकें(नेता जिसको कोई उपाधि नहीं व कौन रोएगा आपकी मृत्यु पर) तपाक से हथिया लीं !इन पुस्तकों का खरचा प्रवीण भाई से ज़रूर वसूलूँगा !


इसके बाद  नज़रें  उदय प्रकाश की लम्बी कहानी "मोहनदास' को तलाशने लगीं,जिस पर उन्हें अभी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है.वाणी प्रकाशन से वह पुस्तक भी ले ली.मेरा 'कोटा' ख़त्म हो चुका था पर मिश्राजी के साथ साहित्य अकादमी के स्टॉल पर जब घुसे तो कम कीमत में अनमोल किताबें देखकर चकित हो गया.मुंशी प्रेमचंद की कहानी रचनावली छह भागों में थी,मात्र बारह सौ रुपयों में,वह भी सजिल्द .वे क्रेडिट-कार्ड भी स्वीकार रहे थे इसलिए हमने तुरत-फ़ुरत ऑर्डर दे दिया तथा  साथ में प्रसाद रचना संचयन भी ले लिया !

ये सब किताबें लेते समय मैं इन्हें पढ़ने के लिए बिलकुल संकल्पबद्ध  रहा ,उम्मीद  करता  हूँ  कि यह संकल्प आगे तक  बना रहेगा !

इसी बीच ख़बर मिली कि नामवर सिंह जी थोड़ी देर में आने वाले हैं सो वहीँ कुछ देर के लिए पसर गए ,बाहर  भी निकले चाय-पानी की,कुछ फ़ोटू भी  खैंच लिए ! जगदीश टाइटलर  साहब दिखाई दिए  तो उनके  साथ भी  एक पोज़ हो गया .

अब तक  भारतीय ज्ञानपीठ वालों की तरफ से 'नवलेखन' पुरस्कारों के वितरण के लिए नामवरजी पधार चुके थे.पहली बार उनसे मिलने की उत्सुकता थी,सो प्रेमचंद की एक पुस्तक में उनसे 'दस्तखत' माँग बैठा,उन्होंने भी सहर्ष मुझे अपना 'नाम' दिया. पद्मा सचदेव,चित्रा मुद्गल,डॉक्टर विजय मोहन सिंह और स्वनामधन्य रवीन्द्र कालिया जी के 'दर्शन' भी हो गए. कुछ लड़के ऐसे भी  मिले जो आई.ए एस. की तैयारी कर रहे थे,साहित्य में उनकी रूचि देखकर प्रसन्नता हुई !

बटुआ खाली हो चुका था,पाँव उठ नहीं रहे थे,हम छह घंटों की इस यात्रा को समेटकर ,अपने अरमानों की गठरी लादे घर वापस  आ गए , एक असीम आनंद के साथ, जिसे समय-समय पर  सबके साथ बांटते रहेंगे !

20 दिसंबर 2010

सचिन के लिए !

१९ दिसंबर का दिन आम दुनिया के लिए चाहे जैसा रहा  हो ,पर भारतीयों के लिए  ऐसी मिठास दे गया जिसका एक लम्बे समय से सबको इंतज़ार था !क्रिकेट- प्रेमियों  को दक्षिण अफ्रीका से हो रहे पहले टेस्ट में हार की गंध आने लगी थी,पर सचिन ने बल्ले से ऐसा कमाल किया कि ऐसी कई हारें उस अनोखी ख़ुशबू में गाफ़िल हो जाएँ !

यूँ तो रन बनने के लिहाज़ से यह एक और  शतकीय पारी थी,पर पचासवें शतक का प्रहार इतना अधिक रहा कि जीती हुई टीम की  चमक तो फीकी पड़ ही गयी, बाक़ी दुनिया ने भी क्रिकेट के भगवान का जलवा देखा !सचिन ऐसे खिलाड़ी  रहे हैं कि उन पर आये दिन पूरी की पूरी किताबें लिखी जा रही हैं,पर वे प्रशंसा और निंदा से कोसों दूर हो चुके हैं. यह बहुत बड़ा सौभाग्य है कि उनके खेलने के साथ हम जवान हुए और अब उम्र के ढलान पर भी हैं ,पर उनका खेल के प्रति समर्पण जस का तस है ! उनका लगातार अपनी फॉर्म  में रहते हुए रन कूटना और अपने को चुस्त-दुरुस्त रखना दुनिया के तमाम  खिलाड़ियों के लिए पहेली जैसा है तो कुछ के लिए रश्क !

सचिन ने पिछले बीस साल से अब तक भारतीय क्रिकेट में अपनी उपस्थिति बराबर बनाये रखी है,यह कम अचरज की बात नहीं है. वे केवल अपने खेल की निपुणता  के लिए ही नहीं बल्कि एक  'समग्र-खिलाड़ी' के रूप में भी अपनी मिसाल आप हैं.मानवीय गुणों से भरपूर खेल-भावना उन्हें सही मायने में 'खेल का दूत' बनाती है.

उनके गुणों के पारखी  मीडिया जगत में बहुत हैं पर उनकी सही परख प्रभाष जोशी जी को थी ,जो  एक साल पहले हमें छोड़ गए !जोशी जी जाने के वक़्त भी 'सचिन-प्रेम' को सीने से  लगाये हुए थे. सचिन की इस उपलब्धि पर प्रभाष जी की भाव-विह्वल टिप्पणी की कमी का अहसास सबको तो है ही,उनके सचिन को भी होगा !

दुनिया का यह पहला शतक था जहाँ सारा हिसाब-क़िताब ही उलट-पुलट गया.उन्होंने बनाये तो सौ रन पर कहा यह गया कि उनने 'पचासा' ठोंका  ! शायद इसका कारण  हमारी न बुझने वाली प्यास और अपने भगवान से आस है.मेरी दुआ है कि उनका यह 'पचासा' अब ''शतक'' में बदले !

6 दिसंबर 2010

अँधेरा कित्ता अच्छा है !

कहते हैं अँधेरा अज्ञान का प्रतीक है
अँधेरे से सब कोई बचना चाहता है
उजाले को सबने अपनाया है
पर,अँधेरे को ज़िन्दगी से हटाना चाहता है.
मुझे तो अँधेरा बड़ा प्यारा लगे है
जब भी सुकून पाना हो
अपने से बतियाना हो
उजास में पोती जा रही कालिख से
आँखें चुराना हो
अँधेरे की आड़ लेना  कितना सुखद होता है.
 अँधेरा यूं भी कित्ता अच्छा है,
उसमें न कोई छोटा दीखता है न बड़ा
न गोरा न काला
हमें अपने को छुपाने की ज़रुरत भी नहीं होती
सब बराबर होते हैं,
किसी में भेद नहीं रखता अँधेरा !
हमारे पास केवल 'हम' होते हैं
अपना सुख हँसते हैं,दुःख रोते हैं.
अँधेरा अज्ञान का नाम नहीं
आँखें खोलने वाला होता है
जो बात हमें दिन के उजाले में नहीं समझ आती
यह उसकी हर परत खोल देता है.
कोलाहल से दूर
जीवन की भागमभाग से ज़ुदा
दो पल सुकून के देता है अँधेरा
गहरी नींद के आगोश में सुलाता है अँधेरा
हमें तो बहुत भाता है अँधेरा !

1 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

हमको अपनी ही ख़बर, मिलती नहीं है आजकल,
इस गुलिस्ताँ में कली,  खिलती नहीं है आजकल . (१)



मन तड़पता है मेरा, दीदार करने को ,
तेरी थोड़ी भी झलक, मिलती नहीं है आजकल.(२)


राह ये कटती  नहीं , डस रहीं तनहाइयाँ,
 ख्वाब में भी वो, तडपा  रही है आजकल.(३)


मेरे हमदम तू न जाने, क्या है मेरी दास्तां,
हर ख़ुशी से ग़म की बू  आ रही है आजकल.(४)


आ भी जाओ अब मेरे महबूब ऐ "चंचल",
तेरे बिना ये ज़िन्दगी ,खाली रही है आजकल.(५)




विशेष :१९९४ की यह रचना ,पहली चार लाइनें गाँव(दूलापुर)
           व बाद की दिल्ली में रहते हुए !

23 नवंबर 2010

पढ़ाई का मतलब !

पढ़ाई हमेशा से समाज में चर्चा का विषय रही  है.सरकार,अभिभावक ,शिक्षक और छात्र इसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करते रहे हैं.सरकार के लिए जहाँ यह  अन्य मदों की तरह एक मद है,अभिभावकों के लिए दायित्व है,शिक्षकों के लिए एक पेशा है वहीँ छात्रों के लिए एक ज़रूरी क्रिया-कर्म !


दर-असल,आज की पढ़ाई ज्ञान व बोध केन्द्रित न होकर परिणाम व  रोज़गार-केन्द्रित हो गई है . यही वज़ह है कि विद्यालयों में पढ़ाई का माहौल नदारद-सा है.सरकार कागज़ों में परिणाम को लेकर चिंतित है तो अभिभावक बच्चों  के रोज़गार को लेकर. शिक्षक अपना  नौकरीय दायित्व निभा रहे हैं वहीँ छात्र  'रिमोट-चालित' से आगे बढ़ते चले जा रहे हैं !शिक्षा  के बाक़ी घटकों के बारे में अपनी राय गलत भी हो सकती है,पर कम-से-कम एक शिक्षक के दृष्टिकोण  से ज़रूर कुछ कहना चाहूँगा !


लगभग ६०-७० की संख्या वाली कक्षाओं में अव्वल तो अपनी बात रखने का समय ही बमुश्किल मिल पाता है.फिर भी,बच्चों का 'मूड' यदि ठीक होता है तो  उन्हें यही बताता हूँ कि इस पढ़ाई  का उद्देश्य महज़ परीक्षा पास करना ही नहीं है,इनमें जो लिखा है वह हमारे व्यावहारिक जीवन के लिए भी ज़रूरी है.परीक्षा पास करना  या न कर पाना  ज्ञान या बोध प्राप्त करने से बिलकुल अलग है.आज के प्रतिस्पर्धी माहौल को देखते हुए भी उन्हें पढ़ाई के प्रति एक नियमित योजना बनानी होगी.लेकिन ,अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तब भी हमीं दोषी हैं क्योंकि वे तो ठहरे 'नाबालिग़'!


छात्रों को अकसर नशे की प्रवृत्ति  से भी दूर रहने के लिए कहता हूँ,हालाँकि  अपेक्षाएं ज़्यादा नहीं रखता. अधिकतर बच्चे किशोरावस्था में विपरीत-लिंग के प्रति आकर्षित  रहते हैं और इसमें कलियुग के नए 'यंत्र'(मोबाइल)  का ख़ासा दुरूपयोग हो रहा है ! गाहे-बगाहे ,बड़े बच्चों से किशोरावस्था की इस समस्या के बारे में भी बातें हो जाती हैं.सबसे बड़ी चिंता  बच्चों का धड़ल्ले से सिगरेट पीना है और इसे वे विद्यालय के अंदर व बाहर बेख़ौफ़ होके अंज़ाम देते  हैं ! कई बार शिक्षक चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते क्योंकि उन्हें नियम-कायदों का हवाला दिया जाता है. क्या अभिभावकों की तरह शिक्षक उन्हें  डांट   भी नहीं सकता ? क्या एक तरह से वह उनका अभिभावक  भी नहीं है ?  

आज,शिक्षा के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए इस बात की ज़रुरत अधिक है कि वर्तमान  पद्धति ज़मीनी हकीक़त से कितनी दूर या पास है ? यह तभी हो सकता है जब इसके सभी घटकों का दृष्टिकोण सकारात्मक और रचनात्मक हो !!

18 नवंबर 2010

मोबाइल का महँगा शौक !

कहते हैं समय के अनुसार व्यक्ति की रुचियाँ बदलती हैं,पर ये बदलाव कई बार बड़ा भारी पड़ता है !अपन को पहले लिखने-पढ़ने का शौक था पर यह कभी इतना कष्टप्रद नहीं रहा जितना इस इलेक्ट्रानिक  युग की चकाचौंध में संचार के सबसे आकर्षक व प्रभावी हथियार मोबाइल के साथ हो रहा है.

पिछले दो सालों में हमने क़रीब पाँच फ़ोन बदल लिए हैं.पहले मोटोरोला का L-9 ,फिर E -6  और उसके बाद नोकिया का 5800 फोन लिया पर सबसे ज़्यादा रुलाया नोकिया के इसी फोन ने . ख़रीदने के सात महीने के अन्दर ही इसके बार-बार हैंग और ऑन-ऑफ हो जाने से तंग आ गया और आधी क़ीमत पर  उसे हटा दिया . स्पाइस का MI-300 लेने से पहले रोज़ इन्टरनेट पर नए और मन-मुताबिक फ़ीचर  वाले फ़ोन की तलाश में खूब लगा था,पर अचानक कम बजट में ज़्यादा फ़ीचर के लालच में मैंने इसे लिया और लेते ही मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.फ़ोन में जो वेब-सर्फिंग,कैमरा ,बैटरी ,रफ़्तार,लुक आदि चाहिए था,वह सब नदारद था.

बहरहाल,मैंने विक्रेता से बात की तो उसने बमुश्किल मेरी परेशानी को देखते हुए उसे वापस कराने का आश्वासन दिया और मैंने भी झट से वह फ़ोन वापस दे दिया. तीन दिन के अन्दर मुझे 'क्रेडिट-नोट' मिलना था जिसकी बिना पर मैं दूसरा फ़ोन ले सकता था,पर हाय मेरी किस्मत ! वह विक्रेता दुर्घटना में ऐसा घायल हुआ कि पूरे तीस दिन मुझे भारी यंत्रणा में गुज़ारने पड़े ! इस बीच में मैं लगातार नेट पर ऐसा फ़ोन ढूँढ रहा था, जिसमें सारे आधुनिक फ़ीचर हों,साथ ही हिंदी का समर्थन भी,पर नोकिया के सिम्बियन फ़ोन के अलावा मुझे ऐसे फ़ीचर-युक्त फ़ोन के दीदार कहीं नहीं हुए.

सैमसंग के वेव पर मेरी नज़र थी पर इसमें बाडा का ऑपरेटिंग सिस्टम था,मोटोरोला का बैक-फ्लिप andriod     के पुराने वर्जन  और ग्राहक-सेवा की वज़ह से नापसंद था और सोनी का xperia -10 भी इसी तरह की कमियों के चलते मेरी सूची से हट गया.

अंत तक काफी सोच-विचार करके और माथा पकड़ के मैंने सैमसंग का गैलेक्सी एस फ़ोन ले लिया जो मेरी ज़ेब के लिए तो भारी था ही घर में श्रीमती जी भी हमारे ऊपर  अपना नजला गिराने वाली थीं,पर खुदा का शुक्र कि  उन्होंने यह कहकर हमें बख्श  दिया कि तुमसे कहना क्या,तुम्हें  जो करना है वही करोगे! मैं भी उन्हें और शायद अपने को भी यह कहकर समझाता रहा कि भाई !लोग तो अपनी बीमारी में कितना खर्च कर देते हैं और यदि मैंने 28000 रूपये  देकर अपनी बीमारी से निज़ात पा ली है तो बुरा क्या  है ?

नए फ़ोन को लेकर खुश भी हूँ,हिंदी फिर भी हाथ नहीं आई,बजट अलग से बिगड़ गया,फिर भी अगर हमारी नए-नए फ़ोन की तलब शांत हो गयी हो तो  बड़ा नेक काम होगा,पर यह शायद मैं भी नहीं जानता !

8 नवंबर 2010

ओबामा जी आए हैं !

ओबामा जी आए हैं,ओबामा जी आए हैं ,
हम सब उनको  ताक रहे हैं
हमरी  ख़ातिर  का लाए हैं ?

पर ऊ तो निकले बड़े शिकारी
आए करने हमको ख़ाली,
हमको तो झुनझुना दे दिया
सरका दी पड़ोस में थाली !

ओबामा जी आए हैं,ओबामा जी आए हैं !

उनके स्वागत में तो हमने
सारी 'लाल-दरी' बिछवा  दी,
बदले में कोरे वादे पाए,
ख़ुद कर ली अपनी बर्बादी !

कब तक मुँह ताकेंगे उनका
स्वाभिमान कब सीखेंगे ?
घिसट-घिसट कर चलना छोड़ें
तभी विश्व के साथ बढ़ेंगे !

ओबामा जी आए हैं,ओबामा जी आए हैं !

22 अक्टूबर 2010

प्रणय -गीत

मेरे जीवन की प्रथम-किरण,
         मेरे अंतर की कविता हो,
हृदय अंध में डूब रहा ,
        प्रज्ज्वलित करो तुम सविता हो !

मम भाग्य-विधाता  तुम्हीं  हो,
       तुम बिन जीवन है पूर्ण नहीं,
मेरे अंतर-उद्गारों को ,
      साथी ! करना तुम चूर्ण नहीं !


प्रेरणा तुम्हीं हो कविता की,
      मेरे मानस की अमर-ज्योति,
सत्यता तुम्हारे सम्मुख है,
     नहीं तनिक भी अतिशयोक्ति !

मेरे जीवन की डोर तुम्हीं,
    अपने से अलग नहीं करना,
प्यार तुम्हीं से केवल है,
      अंतर्मन में मुझको रखना !!



विशेष :पहला गीत,रचना-काल-१०/०६/१९८७
 स्थान-फतेहपुर(उ.प्र.)

7 अक्टूबर 2010

नेताओं का रोज़गार !

पिछले सप्ताह ही देश में भारी तनाव के बीच राम-मंदिर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया,जिसके बाद अप्रत्याशित शांति देखी गई.कहा गया कि अबकी बार सब पक्षों को यह फ़ैसला स्वीकार्य होगा,लेकिन जैसे ही राजनीति का  एक 'पैकेज' मिला ,फिज़ा बदलते  देर   नहीं  लगी.

दर-असल ,राम-मंदिर का मुद्दा राजनीतिकों द्वारा परवान चढ़ाया गया था और उसका इस तरह अंत होना उन्हें कैसे रास आता  ? जिस 'मलाई' की अपेक्षा वे इस प्रकरण से रखते थे,जब वह हाथ  नहीं लगी तो  उन्होंने अपना असली 'रंग' दिखा दिया! भई, वे यहाँ 'संतई' करने और 'राम-भजन' के लिए थोड़े न  आए हैं!मुलायम की टीस "इस फैसले से मुसलमान अपने को ठगा महसूस कर रहा है", वास्तव में ज़ायज  है.नेताजी राजनीतिक हाशिये  की तरफ़ जा चुके हैं और उनको अपने अखिलेश को भी अभी स्थापित करना है,तो वह तो उसके लिए रोज़गार ही ढूंढ रहे हैं .इस प्रक्रिया में ये मुआ देश,मंदिर और अवाम कहाँ से बीच में आ गई !

यह बेरोज़गारी का दर्द अकेले मुलायम का नहीं है.अपने आडवाणी जी भी तो कब से आस लगाए बैठे हैं?जो फ़सल(रथ-यात्रा चलाकर) उन्होंने बोई थी,उसे दूसरा कैसे काट ले जाए सो वहाँ भी हलचल शुरू हो चुकी है. रही बात बसपा   व काँग्रेस  की तो उन्होंने भी अपनी-अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है.

अर्थात,हमारे आपके लिए यह आस्था , विश्वास  या  क़ानून  का मसला  हो सकता है  पर नेताओं के लिए विशुद्ध व्यावसायिक है और उनके 'पेट' से जुड़ा' ,राजनैतिक-रोज़गार का मामला है.इसलिए,जो लोग समझते थे कि इस फ़ैसले से सांप्रदायिक-सौहार्द क़ायम हो जायेगा तो यह उनकी और शायद न्यायालय की भी भूल है.आने वाले दिनों में कई 'मुलायम' पैदा हो जायेंगे !
और,सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम इसे भोगेंगे !

4 अक्टूबर 2010

ग़ज़ल

हर   जगह  क्यूँ  आप  नज़र  आते  हैं ?
ख्वाबों में भी  साफ़ नजर आते हैं!

दिल की गहराइयों से,तुम्हें चाहा हमने,
फिर भी अजनबी से आप गुजर जाते हैं.

नज़र-ए-इनायत तो कभी हम पे' करो,
सुना है,मुजलिमों पे आप रहम खाते हैं.

ये प्यार का पैग़ाम,शायद पहुँच सके,
इस गली से यूँ,चुपचाप निकल जाते हैं.

हाल-ए-दिल मेरा ,कोई सुना दे "चंचल",
मैं हूँ तनहा,अकेले भी आप जिए जाते हैं!

रचना काल: २१/०६/१९९०
दल्ली-राजहरा (छत्तीसगढ़)

2 अक्टूबर 2010

गाँधी , फिर इस देश में आजा !

गाँधी, फिर इस देश में आजा. 
सत्य,अहिंसा और प्रेम का ,
      फिर से भारत में बिगुल बजा जा !
        गाँधी,फिर इस देश में आजा !

जिस भारत में तूने अपने
       रक्त से शांति-पौध को सींचा,
हिन्दू,मुस्लिम के हृदयों में,
      सद्भाव,प्रेम की रेखा खींचा,

सर्व-धर्म समभाव जगाकर ,
      फिर से प्यार के दीप जला जा !
      गाँधी, फिर इस देश में आ जा !

मानव मूल्यहीन  हो रहे,
         आज तुम्हारे देश में,
 घृणा भर रही है हृदयों में,
         कुछ हैं पशुवत वेश में ,

ऐ मोहन, इस देश में आकर ,
     फिर से 'रघुपतिराघव' गा जा !
     गाँधी, फिर इस देश में आ जा !


विशेष : रचना काल
०२/१०/१९९०  दूलापुर,रायबरेली   

30 सितंबर 2010

राम की अयोध्या !

आज देश में  काफी उहापोह की स्थिति के बीच अदालत ने अयोध्या मामले पर  अपनी तरफ से तीनों पक्षों को  राहत  देने की कोशिश की है पर 'किन्तु-परन्तु' फिर भी चलता रहेगा,क्योंकि कुछ तत्व फिर भी चाहेंगे कि  'राजनीति' की आंच धीमी न पड़े.फैसले से पहले  पूरा देश जैसे लगा ,कर्फ्यू या आपात-स्थिति की चपेट में है.अखबारों में प्रधानमंत्री सहित कई रहनुमाओं के 'शांति' बनाये रहने के आह्वान लगातार आते रहे .समाचार-चैनल देखो तो डर लगता  कि कोई पहाड़ टूटने वाला है.

मैं समझता हूँ कि आम आदमी को ऐसे फैसलों से ज़्यादा  कुछ लेना-देना नहीं है,फिर भी माहौल बनाकर उसे एक पार्टी बनाया जा रहा है.हमारे लिए भगवान राम किसी धर्म,देश,स्थल या फ़ैसले की सीमा से परे हैं.वे न तो एक 'संपत्ति' हैं जिस पर कोई फ़ैसला लागू हो न ही वे पक्षकार हैं.उनके आदर्शों में सबसे अहम् बात त्याग की रही,जिसे उनके तथाकथित भक्त सिरे से नकार रहे हैं.आम अवाम को आशंका से भरा गया ,पर वास्तव में अब वैसा उन्माद नहीं आनेवाला.

राम को  भले ही आज के आदेश से कोई ईनाम मिले न मिले,समाचार-चैनलों की टी.आर.पी. बढ़ जाएगी,दाम मिल जायेंगे और नेताओं को एक ज़रूरी काम ! सबसे खास बात यह है कि उस 'अयोध्या' के लिए सब चढ़ाई कर रहे हैं ,जिसे जीता नहीं जा सकता !

28 सितंबर 2010

मेरे राम,उनके राम !

ख़बर है,राम मंदिर पर अदालत अपना फ़ैसला सुनाएगी,पर ऐसा सोचकर मेरा सर चकरघिन्नी खा रहा है. ऐसे फ़ैसले अदालत के ज़रिये नहीं तय होते क्योंकि राम किसी संपत्ति का हिस्सा नहीं हैं और न इस मुक़दमे  के पक्षकार !आखिर इसकी ज़रुरत कैसे पड़ी,इसके लिए भी राम के झूठे 'हमदर्द' जिम्मेदार हैं. इस मसले को इस कदर फुटबाल की 'किक' की तरह उछाला गया है कि अब इससे 'राजनैतिक लाभ' भी नहीं मिलने वाला.

राम मंदिर को लेकर हल्ला मचने वाली पार्टी भाजपा कई सालों की  नींद के बाद अब फिर उठने की मुद्रा में है.आडवाणी जी  ने शायद पहली 'रथ-यात्रा' से कोई सबक नहीं लिया है ,तभी वह फिर से दूसरी यात्रा  की तैयारी कर रहे हैं .'हार नहीं मानूंगा' की तर्ज़ पर वे अपना बुढ़ापा तो ख़राब कर ही रहे हैं,पार्टी को भी गर्त में डाल रहे हैं.

असल बात यह है कि राम के सच्चे पूजकों को न किसी फ़ैसले की दरकार है और न ही ऐसे विवादित मंदिर की.उसके राम 'मर्यादा पुरुषोत्तम' हैं व उनके दिलों में रहते हैं.स्वयं राम द्वारा महर्षि वाल्मीकि से  यह पूछने पर कि वह कहाँ रहें,महर्षि ने जवाब दिया था,"तुम्हहि छाडि  गति दूसरि नाहीं,राम बसहु ,तिनके मनमाहीं". महर्षि ने कई तरह से बताया कि उनका वास कहाँ-कहाँ  है,यहाँ तक चुनौती दी कि वे जहाँ कहें ,मैं वहीँ दिखा दूँगा,अर्थात वे तो सर्व-व्यापी हैं ,उन्हें किसी धर्म,देश या स्थान की सीमा में नहीं बांधा जा सकता है.


क्या ही अच्छा होता कि राम का मंदिर तभी बने जब किसी समुदाय के लोगों को कोई आपत्ति न हो और यह तभी हो सकता है,जब इससे 'राजनीति' न खेली जाए.काश ,ये बात हमारे नेता और 'राम-भक्त' सुन लेते !

30 अगस्त 2010

मैनुअल ज़िन्दगी बनाम ऑटो ज़िन्दगी !

अभी जल्दी हम गाँव गए थे , जहाँ मैंने अपने जीवन के शुरुआती पचीस वर्ष गुजारे हैं. अब करीब पंद्रह वर्षों से शहर की भी ज़िन्दगी 'झेल' चुका हूँ,तो मुझे तब और अब में फ़र्क साफ़ नज़र आता है.

गाँव की ज़िन्दगी खुले आकाश की तरह होती है, जहाँ हम अपने सभी काम तरीक़े व सलीके से करते हैं. यार-दोस्तों से गप-शप होती है,पूजा-पाठ होता है और खेत-खलिहान भी देखे जाते हैं. वहाँ के हर काम में ख़ुद को तल्लीन होना पड़ता है और हिस्सेदारी होती है. खाना,घूमना,मनोरंजन ,शादी-ब्याह सब में हमें 'मैनुअली' लगना पड़ता है .इस तरह वास्तव में हम वहाँ ज़िन्दगी जीते हैं.

शहर की ओर अगर रुख़ करके देखें तो पाएंगे कि यहाँ सब कुछ मशीनों के ऊपर निर्भर है. घर में रहने,खाने,बाहर जाने,मनोरंजन व दोस्त बनाने में हम मशीनी हो गए हैं. जिस तरह किसी तकनीकी-वस्तु को चलाने के लिए उसमें 'मैनुअल' या 'ऑटो' का विकल्प होता है बिलकुल वैसे ही हमारे पास अपनी ज़िन्दगी जीने के दो विकल्प (गाँव या शहर) हैं,पर अफ़सोस,अब गांवों का भी शहरीकरण हो रहा है.

हम शहर में रहते हुए सोचते हैं कि यहाँ रहना थोड़े दिनों की बात है,पर वह थोड़े दिन धीरे-धीरे कब पूरी ज़िन्दगी गुजार देते हैं,यह पता ही नहीं चलता.

सच बताएं, शहर में आकर हम मात्र 'रोबोट' की तरह बनकर रह गए हैं, जिसके पास सिवा 'मालिक' की आज्ञानुसार चलना-फिरना रह गया है. हमारे हाथ में हमारी ही ज़िन्दगी नहीं रह गयी है, और हम अपने परिवार,शहर और देश का 'ठेका' लिए घूमते हैं.

आप भी बताएं कि आप कैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं,मैनुअल या ऑटो ?

18 अगस्त 2010

शिक्षण-व्यवस्था में ख़ामियाँ !

हर वर्ष सरकारी आंकड़े यह बता रहे हैं कि देश में शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ रहा है,पर क्या ज़मीनी हक़ीक़त यही है ?अनौपचारिक शिक्षा को तो छोड़िये,हालाँकि उसके नाम पैसों का बंदर-बाँट सबसे ज़्यादा हो रहा है, औपचारिक शिक्षा की भी नींव हिलाने का पूरा इंतज़ाम किया जा चुका है !


सरकारी विद्यालयों में आधार-भूत सुविधाओं की अभी-भी कमी है,शिक्षक पर्याप्त नहीं है,फिर भी इन कमियों को थोड़ा दर-किनार किया जा सकता है,पर जो सबसे चिंताजनक पहलू उभर कर आ रहा है कि आज ऐसी व्यवस्था लाद दी गयी है कि विद्यालयों का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं रह गया है. छात्रों में अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं रह गयी है, ऐसे में ७०-८० की औसत छात्र-संख्या वाली कक्षा को कोई जादूगर ही नियंत्रित कर सकता है. उनमें गुरु के प्रति आदर भाव तो कब का ख़त्म हो चुका है,पर अब सामान्य शिष्टाचार भी दुर्लभ हो रहा है.
कई ऐसे मौके आते हैं जब छात्र शिक्षक के सामने अशिष्ट आचरण करता है और शिक्षक नए नियमों का पालन करने को मज़बूर होता है,जहाँ उसके लिए यह ताक़ीद की गयी है कि वह उन्हें डांट तक नहीं सकता !

आज विद्यालयों में सरकारी अनुदान की भरमार की जा रही है. खाना तो दिया ही जा रहा है वर्दी और पुस्तकों के अलावा अन्य कई तरह से नकद राशि दी जा रही है,बस नहीं दी जा रही है शिक्षा, जिसके लिए वो यहाँ आते हैं. शिक्षक को यूनिट-टेस्ट व दूसरे और टेस्ट बनाने और जाँचने में उलझा दिया गया है और अन्य कार्यों की तो बात ही न करें. कुल मिलाकर 'मास्टरजी' को बाबू बनाया जा रहा है.


छात्रों में तो कई दोष हैं ,पर वास्तव में वे असली दोषी नहीं हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि जो वो कर रहे हैं वह ग़लत है और यही बात शिक्षक उन्हें बता नहीं पा रहा है . नैतिक-शिक्षा का तो अता-पता है ही नहीं , सामान्य शिक्षा की ही हालत ख़राब है . इस सबके लिए सरकार,मीडिया,अभिभावक ,प्रशासक और शिक्षक सभी सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं !

5 अगस्त 2010

अपना-अपना खेल !

खेल हुए चालू नहीं,लगा निकलने तेल,
अपनी-अपनी कुप्पी में ,भरे ले रहें तेल !

ऐसा मौका हाथ लगा है,बड़े समय के बाद,
नेता,अफ़सर ,चोर सब , होंगे जब आबाद !

चूना,मिट्टी,ट्रेड-मिल ,सभी जगह है छाप ,
सारे ठेके इन्हें मिलेंगे, कहीं नहीं हम,आप !

पदक मिलें ना मिलें सही,हो जायेंगे खेल,
चाहे कितना ज़ोर लगा लो,असल खिलाड़ी फ़ेल!

'कॉमन वेल्थ' से हैं उम्मीदें,सबकी अपनी-अपनी,
जिसकी जितनी बाहें लम्बी, उसकी उतनी मनी !

28 जून 2010

कहाँ है महँगाई ?

इस समय देश भर का मीडिया इन ख़बरों से अटा पड़ा है कि महँगाई मारे डाल रही है ,पर अपुन की समझ में नहीं आ रहा है कि ये महँगाई आख़िर है कहाँ ?यह बात तब और साफ़ हो जाती है जब सरकार का कोई पढ़ा-लिखा (खाया-अघाया) बाबू अख़बारों में बक़ायदा विज्ञापन छपवाकर साबित कर देता है कि अभी तो महँगाई कोसों दूर है!अज़ी ज़नाब,पाकिस्तान,लंका,भूटान,बांग्लादेश आदि को देखिये ,उनसे तो हम अभी बालिश्त भर नीचे हैं! यह तो ग़नीमत है कि उस बाबू ने हत्या,आतंक,लूट-पाट और भ्रष्टाचार के आंकड़े नहीं दिखाए नहीं तो हम उनमें भी अव्वल निकलते !
भई, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बाज़ार-भरोसे सरकार ने अभी किया है,पर यह देश तो पता नहीं कब से बाज़ार के ही भरोसे चल रहा है!आम आदमी की इस बाज़ार में एक ख़रीदार की हैसियत न होकर बेकार और खोटे सिक्के की तरह रह गयी है और उसे चुनाव के पहले तालियाँ पीटने और चुनाव बाद पेट बजाने का सम्मान-जनक काम मिला हुआ है ।
ख़र्चे तो हमारे माननीयों के होते हैं,मेहमान भी उन्हीं के होते है और जितने सारे पकवान हैं उनमें उन्हीं का नाम लिखा है,इसलिए यदि वे अपना 'मेहनताना' बढ़ाने की बात करते हैं तो यह बिलकुल ज़ायज है और अपनी सरकार अब इतनी भी निर्दयी नहीं है कि उनकी फ़रियाद न सुने !
रही बात 'कामनवेल्थ' के खेलों को लेकर हल्ला मचाने की,तो अपना देश 'अतिथि देवो भव' की परिपाटी पर चल रहा है और इसके लिए हम चाहे कंगाल हो जाएँ पर हमारे मेहमानों को लगना चाहिए कि हम भूखे-नंगे नहीं हैं ,इसीलिये दस दिनों के मेहमानों के लिए पूरी तिज़ोरी खोल दी गयी है,और जो यहाँ हमेशा रहते हैं उनके लिए दरी झाड़ दी गयी है!

इसलिए,महँगाई हमारी सोच में है,वास्तव में ऐसा है नहीं.

17 मई 2010

प्रदूषण और हम !


कैसा सुन्दर घर-आँगन था,गली-मोहल्ले सारे,
ठंडी-ठंडी हवा सुहानी ,प्यार से हमें दुलारे।

फूल महकते वन-उपवन में,अपनी बाँह पसारे
पशु -पक्षी
चहके फिरते,बुझते मन के अंगारे।


पर्यावरण-प्रदूषण जबसे हुआ है इस दुनिया में,
घुट-घुट कर सब साँस ले रहे, अपनी-अपनी कुटिया में।


घर-बाहर सब धुआँ भर गया , सड़कों में,गलियों में,
फूल-से नाज़ुक बच्चे बदले मुरझाई कलियों में।


वन-जंगल सब पेड़ कट रहे ,वीरानी सी छाई,
फ़सल उग रही नित भवनों की ,प्रकृति मौत को नियराई।


अब भी वक़्त संभल जाएँ हम , पर्यावरण शुद्ध कर लें,
ज़हरीले वायु-प्रदूषण से दिल्ली-प्रदेश मुक्त कर लें।।

विशेष-दिल्ली नगर निगम के शिक्षा -विभाग द्वारा पुरस्कृत (१९९६)
रचना काल-१२-१२-१९९६

21 अप्रैल 2010

पाती मेरे नाम की !



अचानक बहुत दिनों बाद एक चिट्ठी के रूप में पोस्ट-कार्ड को पाकर जो आनंद मिला,वह कम-से-कम 'इंटरनेटी 'दुनिया की समझ के बाहर है। हमारे एक साथी हैं,जिनसे अब मुलाक़ात भी यदा-कदा होती है,बातचीत मोबाईलवा पे होती रहती है। यह चिट्ठी जो आई , उनके पिताजी की तरफ से आई और चिट्ठी क्या वह तो मेरे लिए किसी पूज्य ग्रन्थ से कम नहीं लगी।



यह पाती श्री रूप सिंह जी ने मेरी उनसे ७-८ साल पहले की मुलाक़ात को याद करते हुए लिखी है। पत्र में विशेषणों की भरमार व ढेर सारा आत्मीय प्यार उड़ेल दिया है उनने। पढ़ के एकबारगी तो चकरा गया मैं । क्या मैं ऐसा ही हूँ जैसा उनने मेरे लिए कहा है। उनका महसूसना और संवेदनात्मक लेखन अन्दर तक छू गया। आज जब हम दो शब्द लिखने के लिए बड़ी भूमिका बनाते हैं और जहाँ तक हो सके लिखना टालते रहते हैं ,ऐसे में एक पोस्ट-कार्ड में क़रीब २५० शब्द पिरो देना बताता है कि तकनीकी युग में भी पत्र का कोई विकल्प नहीं है।

संचार-क्रांति से पहले की बातें ज़ेहन में याद आती हैं जब हम पत्र आने पर उसे कई बार पढ़ते थे,चूमते थे,सीने से लगाते थे,क्या आज वही सब हम एसएमएस या ई-मेल के साथ कर सकते हैं या महसूस सकते है?

रूप सिंह जी साहित्यकार भी है। उनकी सौ रचनाओं का एक संकलन 'राष्ट्रीय स्वर' के नाम से छप चुका है और वे महरौली ,ललितपुर के ठेठ देशी व्यक्तित्व हैं। उनका भेजा हुआ पत्र अब मेरी थाती है और इसके लिए मैं बहुत गौरवान्वित हूँ।

19 अप्रैल 2010

तुम हो न सके मेरे !


जिनकी हमें तलाश थी,वो इस तरह मिले,
उनसे हुआ जो सामना ,हसरत से ना मिले।

ख़्वाब-ओ-ख़याल क्या थे ,मिलने से उनके पहले,
फूलों को थे तलाशते ,काँटे मुझे मिले।


कल तक रहे जो हमदम, मेरे जनम-जनम के,
जनम-जनम की बात क्या,दो पल भी ना मिले।

इस ज़िन्दगी में क्या बचा,तनहाइयों के सिवा,
फिज़ा है उनके बाग़ में, मुझे उजड़ा चमन मिले।


मुझको सियाह रात देने वाले ''चंचल",
हर मोड़ पर तुझे,आफ़ताब ही मिले !

फतेहपुर,१५/०१/१९९०

15 मार्च 2010

पढ़ने की ललक लेकर गए वे !

पिछले दो दिनों से वे कोमा में थे। हमें किसी बुरी खबर की आशंका थी,और अंततः कल शाम वो ख़बर मिली ,जिसने हमारे 'पंडितजी '(बचऊ पंडितजी) को भौतिक रूप से हमसे अलग कर दिया !जिनके लिए हम प्रार्थनाएं करते रहे वे स्वयं प्रार्थना-स्वरुप हो गए !
क़रीब छः महीने पहले वे अपने प्यारे गाँव को छोड़कर चिकित्सकीय इलाज़ के लिए शहर(कानपुर)की बेरंग ज़िन्दगी को जीने आ गए थे । मेरी नियमित रूप से उनसे बातें होती रहती थीं और वे बड़े स्नेह के साथ मुझे याद करते!मैं उनसे लगातार इसलिए भी बातें करता रहा कि उनको अपनी उपस्थिति ,बीमारी के बावज़ूद , एक बोझ की तरह न लगे। पचानवे की उमर के होने के बाद भी ग़जब का जीवट उनमें था। आख़िरी समय में भी वे पढ़ने की ललक लिए हुए गए !
जब तीन रोज़ पहले मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उनकी पोती ने बताया कि एक रोज़ पहले वे अख़बार और चश्मा लेकर घर की छत पर जा रहे थे। बीमार होने की वज़ह से उनसे यह अपेक्षा थी कि वे बिना बताये कहीं न जाएँ। पर,ऊपर वाले को भी किसी बहाने की तलाश थी। वे तीन-चार सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ऐसे लुढ़के कि फिर उठ न सके !
मैं जब मिडिल स्कूल में था तो 'पंडिज्जी' उस में प्रधानाध्यापक थे। वे हमें अंग्रेज़ी पढ़ाते थे और बिरले ही छात्र थे जो उनकी 'स्पीड' को पकड़ पाते थे। मेरे बारे में उन्होंने एक बार कहा था "इस उम्र में इतनी तेज़ी से अंग्रेज़ी शायद ही कोई पढ़ता हो।". पंडित जी मेरे पिताजी के भी गुरु रह चुके थे। पढाई के दौरान ही उन्होंने एक छात्र का ज़िक्र किया था कि उसे 'सुंदर कांड' पूरा याद है,बस तभी से मैं भी जुट गया था और नतीज़तन, दो साल के अन्दर मैंने सुंदर कांड,किष्किन्धा कांड और अरण्य कांड रट डाले थे. यह वाक़या बताने का उद्देश्य यह था कि शिक्षक की प्रेरणा क्या काम कर सकती है ?
मैं तीन महीने पहले उनसे मिला था तो उन्हें अमेरिकी इतिहासकार की जिन्ना की लिखी पुस्तक दे आया था ,जिसे थोड़ा ही वो पढ़ पाए होंगे कि काफ़ी बीमार हो गए थे। अभी दस -बारह दिन पहले बात हुई थी तो मैंने उनसे कहा था कि अब तबियत ठीक लगती है। पर,होना तो और था और हुआ भी !
हमारी उनकी जब बातें होती थीं ,वे अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट दिखते थे। लगातार और धारा -प्रवाह हिंदी या अंग्रेज़ी में बोलना उनकी ख़ास विशेषता थी। रहन-सहन में पूरे गाँधीवादी थे। हमेशा खादी का धोती-कुरता ही पहनते थे।
अब जब भौतिक रूप से वे हमारे बीच में नहीं हैं तब भी हमारी प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं और रहेंगे। जीवन को पूरी तरह और निचोड़कर जिया और पिया उनने,यही बात उन्हें औरों से अलग करती है। मैं जानता हूँ कि मेरे 'पंडिज्जी' की शुभकामनायें और उनका आशीर्वाद हमेशा मुझे प्रेरित करता रहेगा। अब मेरी आँखें गीली हो रही हैं,ईश्वर उन्हें अपने में मिला ले!

14 मार्च 2010

बाबाओं के पीछे क्यों !

आजकल बाबाओं के चर्चे अखबारों ,चैनलों और आम आदमी की ज़ुबान पर खूब हो रहे हैं। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि बाबाओं ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया है जिसके लिए लोग उनके पीछे लट्ठ ले के पड़े हैं।
भई,आज के बाबा हमारे ही समाज के अंग हैं,इसी से निकले हैं और अगर इसी में रम रहे हैं तो क्या बुरा है ?जिस समाज में जो रहता है तो उसको वैसा ही रहना पड़ता है नहीं तो वह इससे अलग-थलग नहीं पड़ जायेगा !जिस तेजी से हम सब आधुनिकता की दौड़ में भाग रहे हैं ,उसमें हमें कुछ भी साधन अपना लेना बुरा नहीं लगता है। आज नैतिकता और चरित्र की बातें करने और सुनने वाले दोनों भूखे मरेंगे,तो क्योंकर कोई ऐसा 'बेहूदा 'और लम्बा रास्ता अपनाये ?पैसे बनाने के खेल में जब समाज का हर तबका(नौकरीपेशा,राजनेता,चौथा स्तम्भ ,पुलिस,कार्यपालिका,न्यायपालिका,साहित्यकार,कलाकार)लगा हो तो केवल बाबाओं से उच्च नैतिक व सतयुगी मानदंडों की अपेक्षा करना क्या न्यायसंगत है ?

मुझे अपने बचपन की याद आती है,जब हमारे गाँव में वर्ष में एक-दो बार साधुओं का आगमन होता था। कई बार तो वे मेरे यहाँ भी आकर व्यक्तिगत ढंग से ठहरते थे या कुछ अन्य लोगों के यहाँ। मेरी भागीदारी समान रूप से हर जगह होती थी क्योंकि मुझे ,पता नहीं किन कारणों से सत्संग प्रिय था। शाम को कई बार साधुओं द्वारा कीर्तन-प्रवचन होता था जिसमें भारी संख्या में लोग शामिल होते थे। तब उनके लिए खान-पान की यथा-संभव व्यवस्था होती थी तथा विदाई के वक़्त मामूली-सी दक्षिणा।

अब आज के बाबाओं की कार्यशैली देखो तो पांच-सितारा सुविधाएँ भी फीकी लगेंगी। कहीं भी प्रवचन या सत्संग का कार्यक्रम हो तो बाबा के चेले पूरा ठेका लेके आयेंगे और यदि लेन-देन में कमी-बेसी हो जाए तो खूँटा गाड़ने से पहले ही वे अपना तम्बू उखाड़ लेंगे !वहाँ जाना भी आम आदमी के वश में नहीं होता । उनके प्रवचन की शुरूआती 'दक्षिणा' ही ५०० रुपये से शुरू होती है।

अब ऐसे कर्म-धर्म वाले बाबाओं से क्या उम्मीद रखी जाये? वे तो ईश्वर के बजाय अपने चित्रों,पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार करने में ही लगे रहते हैं इससे नाम और दाम दोनों मिल जाते हैं। इसलिए उन पर प्रहार करने वाले इसके स्रोत को भी देखें यदि वे इस बीमारी से मुक्त हों !

11 मार्च 2010

महिला आरक्षण-क्रांतिकारी कदम !

यू पी ए सरकार पर जब इस सत्र में मंहगाई को लेकर चौतरफ़ा हमले होने वाले थे ,परिदृश्य एकदम से बदल गया है। सरकार के प्रबंधन में फिर से सोनिया गाँधी का हस्तक्षेप हुआ और एक बहु-प्रतीक्षित माँग को एक दिशा मिल गई। महिला-आरक्षण की माँग नई नहीं है । इसे पेश किये जाने की कोशिशें लगभग पंद्रह सालों से की जा रही हैं,पर शायद यह श्रेय सोनिया गाँधी को ही मिलना था। अबकी बार इस बिल के विरोधी लालू-मुलायम की मजबूरी भी नहीं थी इसलिए भी इस पर काम आगे बढ़ पाया । ९ मार्च को राज्यसभा ने इसे पास कर न केवल महिला-आरक्षण की दिशा में एक कदम बढाया,अपितु महिलाओं को केन्द्रीय चर्चा में ला दिया है।

ऐसा नहीं है कि इस बिल में कोई जादुई शक्ति है जिसके पास होते ही उन्हें सारी शक्तियाँ मिल जाएँगी ,परन्तु एक शुरुआत ज़रूर हो गई है जो आगे चलकर एक क्रांतिकारी बदलाव साबित होगी । इसके प्रभाव-कुप्रभाव वैसे ही होंगे जैसे अभी अन्य आरक्षण व्यवस्था के हो रहे हैं। जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ गए हैं उन्हें वह फिर भी मिलता रहता है,जिसकी कभी उनके द्वारा मुखालफत नहीं की गई । ऐसे लोग इस आरक्षण में तमाम खोट देख रहे हैं जबकि उन्होंने इसके पहले अपने कोटे से अपने परिवार को ही आगे बढ़ाया है। वहाँ उन्हें मुस्लिम या दलित की भागीदारी परेशान नहीं करती। यकीं मानिए ,जब यह कानून भी बन जायेगा तो भी उनके परिवारी ही उसका लाभ लेंगे। इसलिए इस बिल का विरोध सैद्धांतिक न होकर निरा राजनैतिक है!

अभी,जबकि इस बिल को लेकर लम्बी जद्दो -जहद बाक़ी है,एक आम भारतीय की शुभकामनायें इसके साथ हैं।

1 मार्च 2010

होरी औ कम्पूटर बाबा !

होरी कै सबका मुबारकबाद !होरी तो हर साल की तरा आई है,मुदा अबकी हम स्वाचा कि होरी अपने कम्पूटर बाबा के साथै मनाइ । एकु दिन पहिलेहेते हम फेसबुक,ट्विटर और ब्लागवा मा धंसि गैन। जहाँ-तहां हम भकुअन कि तरा घूमित रहेन मुदा हमका कउनो रसिया न मिली जहिते हम फागुन की आंड़ मा आपन काम बना लेई ! सही बताइ,यहि कम्पूटरी दुनिया मा हम एकदम बौझक हन ।


अपने बचपन मा ,जब हम गाँव मा रहित रहेन तब सही मा, बड़ी मजा आवति रहै। धुलेंडी के दिन आपनि बानर -सेना तय्यार कइके खूब हंगामा मचाइत रहेन। बादि मा जब घर-घर फागु जाति रहै तो वहिमा बड़ा आनंद आवत रहै। कतो गुर-भंगा मिलै तो कतो कुसुली (गुझिया) ,कतो-कतो ऊंख का रसु औ पानौ मिलत रहैं.फाग गावै मा बड़ी मजा आवति रहै। जब फागु ना आवै तो सबके सुर मा सुर मिला के यह बताइत रहेन कि हमहुक आवथि ।

जब ते हम लिखि -पढ़ि के तय्यार भैन तो लागत कि सबते बड़े भकुआ हम ही हन ।अब ना तो वी मनई रहे,ना भौजाई और ना वी तेउहार । बस बचे हैं तो हमारि जइसि कुछु भकुआ जिनके लगे कउनो काम नहिन सिवाय कम्पूटर बाबा मा भड़ास निकारै के !

बुरा न मानो होरी हैं.....





28 फ़रवरी 2010

होली या ठिठोली !

हम तो यारों रंग ते खेली,वी ताने बन्दूक।
हमरी ते तो पानी निकरै,औ उनकी ते हूक। ।

हमरे रंग मिलावटी ,उनके असली लाल।
बच्चे भी अब डर रहे, देख अबीर-गुलाल । ।

होली आते ही हुए ,वो तो मालामाल।
नकली मावा भले ही ,सबको करे हलाल। ।

गुझिया,खुरमा खो गए बचपन के पकवान।
फागुन में ही बुझ गए ,बुढऊ के अरमान। ।

ना कान्हा मथुरा मिलैं,नहीं अवध रघुबीर।
फाग सुने से जाए ना ,हमरे मन की पीर। ।

17 फ़रवरी 2010

कैसी शिक्षा व्यवस्था ?


देश के सभी बोर्डों में बारहवीं का एक ही पाठ्यक्रम(गणित व विज्ञान) लागू किये जाने की बात तय हुई है,अच्छी खबर है। पर यहाँ मुख्य सवाल यह है कि क्या इतने भर से सारे बच्चों के साथ न्याय हो जायेगा ? हर प्रदेश में हर बोर्ड में,हर स्कूल में और हर अभिभावक की स्थिति में क्या समानता है ?

दर असल हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की ज़रुरत है। आज नौकरियों में जो माँग पेश की जाती है ,उसका आधार महज़ एक समान परीक्षा-पद्धति है,पर क्या इस पर गंभीरता से विचार होता है कि जब सबकी शिक्षा-पद्धति अलग है तो योग्यता के निर्धारण का पैमाना एक कैसे न्यायोचित है?
चाहे ,गाँव और शहर का फ़र्क हो,अमीरी,ग़रीबी का हो ,शिक्षण-संस्थानों का हो -फ़र्कों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है !
हमारे क़ानून-निर्माता और भाग्य-निर्माता इन फ़र्कों से परे है क्योंकि इनसे वे अप्रभावित हैं ! यह गाँधी जी के सपनों का भारत है क्या जिसमें सत्ता देने वाला असहाय और साधन-हीन होता है जबकि देश-सेवा के नाम पर शपथ लेने वाले अपने साधनों को समृद्ध करते जाते हैं !
गाँधी जी ने प्राथमिक-शिक्षा को बड़ी गंभीरता से लिया था पर आज आम आदमी अपने बच्चे को स्कूल में दाख़िला कराने की ही ज़द्दोज़हद करता है और यह प्रक्रिया उच्च शिक्षा व व्यावसायिक शिक्षा तक जाती है।
क्या ही अच्छा होता कि सारे देश में एक शिक्षा-प्रणाली हो जिसमें सबको समान मौके मिलें व अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर मिले !सरकार सर्व शिक्षा अभियान चलाकर करोड़ों रूपये अधिकारियों व बिचौलियों पर न्योछावर कर रही है पर मूल समस्या पर वह ध्यान नहीं दे रही है।
आज सरकारी विद्यालय धर्मशालाओं में तब्दील हो रहे हैं जहाँ बच्चों के लिए खाना-पीना,बस्ता ,रुपया मुफ़्त बँट रहा है,सिवाय शिक्षा के !स्कूलों में शैक्षणिक माहौल क़ायम करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए ,वहां जब तक पढ़ाई का वातावरण नहीं बन पाता तब तक पाठ्यक्रम एक करने की कसरत अधूरी ही रहेगी !

8 फ़रवरी 2010

पुस्तक-मेला और पुलिस !

दिल्ली में हो रहे १९ वें विश्व पुस्तक-मेले के आख़िरी दिन मैं अपने-आप को रोक नहीं पाया और वहां अपनी उपस्थिति ऐसे दर्ज़ कराई गोया मेरे गए बिना यह मेला संपन्न ही न होता ! बहर-हाल मैं वहाँ पहुंचा तो अकेले था,पर अपन का नसीब ऐसा है कि हमें झेलने के लिए कोई न कोई मिल ही जाता है। वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर थे कि अचानक महेंद्र मिश्राजी दिखाई दिये और हम उनके साथ हो लिए। वास्तव में मैं उन्हें अपने से ज़्यादा गंभीर व साहित्यिक तबियत का मानता हूँ।

हम दोनों एक स्टॉल से दूसरे में विचर ही रहे थे कि अचानक एक स्टॉल पर नज़र पड़ी और हम दोनों उत्सुकता-वश वहीँ घुस लिए !यह हरियाणा पुलिस द्वारा लगाया गया था। स्टॉल में प्रवेश करते ही एक शिखाधारी कोट-पैंट पहने सज्जन ने 'एफ़.आई.आर.'की एक पुस्तिका हमारे आगे कर दी,मैंने तुरत कमेन्ट किया कि पुलिस 'एफ.आई.आर.' तो लिखती नहीं ,पर इसे पढ़ा रही है ! इस पर उन सज्जन ने ,जो हरियाणा पुलिस के अधिकारी लगते थे, हमें ढंग से ,बिना औपचारिकता निभाए ,बताया कि पुलिस ऐसा नहीं करती है,तभी हम इस तरह की मुहिम चला रहे हैं कि जनता जागरूक हो और वह क़ानून की थोड़ी समझ विकसित कर ले तो पुलिस अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकेगी। उन्होंने इसके बाद मित्रसेन मीत की लिखी किताब 'राम-राज्य' दिखाई और विस्तार से बताया कि इसे पढ़ने के बाद कोई भी आदमी पुलिस के हथकंडों से परिचित हो जायेगा। हम दोनों उन सज्जन की बातों से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके । हमने उनके द्वारा संस्तुत पुस्तक और कुछ अन्य पुस्तकें भी ली,जिनमें एक तो पुलिस-अधिकारी द्वारा ही लिखी गयी है ।

यह प्रसंग बताने का मकसद इसलिए रहा क्योंकि आम आदमी पुलिस की छाया से भी बचना चाहता है,पर हरियाणा पुलिस ने साहित्य के द्वारा आम जन की संवेदना को समझने और समझाने का प्रयास किया है,वह सराहनीय है। जिस हरियाणा के आम आदमी की बोल-चाल कई लोगों को अखरती है,वहाँ की पुलिस द्वारा ऐसी सभ्य बातें करना हमें आश्चर्य में डालने के लिए काफ़ी था। हम दोनों मित्र वहाँ कुछ देर तक रहे,आपस में कुछ विमर्श के साथ जान-पहचान भी हुई। वो सज्जन श्री ओम प्रकाश जी थे ,जिनसे मिलकर हमने मेले की सार्थकता सिद्ध की ।

वास्तव में हमें तो पहली बार यह पुलिसिया अंदाज़ पसंद आया !

28 जनवरी 2010

आखिर सठिया गए हम !


बीती २६ जनवरी को अपन साठ के हो गए ,इस मायने में कि अपना क़ानून लागू हुए एतने बरस हो गए! पर क्या वह क़ानून जो मोटी-मोटी किताबों और फाइलों में दर्ज है और जिसके लिए बना है,क्या उस तक हम पहुंचा पाए है? जवाब निश्चित ही 'न' में होगा,यदि किसी गैर-सरकारी नुमाइंदे से पूछा जाए तो।
आज हर जगह लोकतंत्र का 'गण' गौण हो गया है। जिन्हें लोगों की सेवा करने की शपथ लेनी थी ,वे सत्ता को अपने सुख का साधन बना चुके हैं। जो जहाँ पर है अपने तरीके से देश के क़ानून को दुह रहा है।

ताज़ा मिसाल तो महाराष्ट्र की है,जहाँ आए दिन तुगलकी फ़रमान आते रहते हैं और हमारी सरकार नाम की संस्था अपनी ऑंखें बंद कर लेती है व होंठ सी लेती है। शिव सेना और एम एन एस की रोज़ाना गीदड़-भभकियां समाचारों में सुर्खियाँ बन रही हैं,पर जैसे सरकार (राज्य या केंद्र) ने कुछ न करने की क़सम खा रखी हो। यह कितना हास्यास्पद है कि हम अपने ही देश में,अपने ही बनाए क़ानून के अंतर्गत किस तरह असुरक्षित हैं! कभी क्षेत्र तो कभी भाषा के नाम पर अपने ही लोगों को एक-दूसरे से भिड़ाया जा रहा है। आम लोगों के दिलों में दहशत है और हर दल अपनी वोटों का हिसाब लगा रहा है।

क्या हमारे संविधान -निर्माताओं ने ऐसी आशंकाएं भी की थीं, शायद नहीं,लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें भी पटकनी दे दी है। सोचिये ,अगर महाराष्ट्र जैसी स्थिति दूसरे राज्यों में भी हो जाये तो क्या हम एक देश के नागरिक कहलाने लायक रह पायेंगे ? हमारी सरकार है कि वह चीन,पाकिस्तान ,आस्ट्रेलिया और अमेरिका से परेशान दिखती है ,पर उस के पास अपने ही घर में 'बारूद' लगाने वालों का इलाज़ नहीं है ।
सही है ना, हम सठिया गए हैं !

25 जनवरी 2010

थप्पड़ मारा ,क्या बुरा किया ?

अभी कुछ रोज़ पहले एक खबर टी वी चैनेलों ने खूब दिखाई कि लखनऊ में डी एम साहेब ने एक 'अदने' से कर्मचारी को थप्पड़ रसीद कर दिया है ! इस खबर को भाई लोग बेकार में ही रबड़ की तरह खींच रहे हैं। अरे भाई ,कहाँ अपने आदरणीय डी एम साहेब और कहाँ वह अदना सा कर्मचारी ? यह तो उस कर्मचारी का सौभाग्य कहिये कि इतने ऊंचे ओहदे वाले ने उसका 'स्पर्श' किया है,नहीं तो यहाँ गरीबों के पास जाने की फ़ुरसत आज किसे है? ओहदे-दार आदमी का काम ही है की वह अपनी शान को हर हाल में क़ायम रखे और आम आदमी का यह कर्तव्य है कि वह उसकी शान बढ़ाने के लिए अपना सारा सम्मान लगा दे !
फिर , कुछ नया भी तो नहीं हुआ है उत्तर प्रदेश में। माया मेमसाब ने एक बार निरीक्षण के दौरान एक डी एम साहेब को थप्पड़ जड़ दिया था।तो भाई,कही न कहीं रूतबा तो 'काउंट' करता है। हो सकता है कि इन डी एम साहेब ने यहीं से प्रेरणा ली हो। अब सरकार के खिलाफ़ कोई बोलेगा तो या तो उसका घर जलेगा या थप्पड़ खायेगा। इसमें चिल्ल-पों मचाने की क्या ज़रुरत है? जिसके पास जो होता है ,वही तो वह दूसरे को देता है। अब डी एम साहेब ने इसलिए थोड़े ही पढ़ाई की थी कि उनके काम में कोई टोका-टाकी करे, तभी तो सुनते हैं कि थप्पड़ मारने वाले को पदोन्नति मिलने जा रही है और अपना 'राम प्रकाश ' (आम आदमी) थप्पड़ खाकर ज़ेल के दर्शन कर आया है। जुग-जुग जीवे ऐसी सर्वजन समाज सरकार !

21 जनवरी 2010

अब तो फागुन आयो रे !

पिया मिलन का दर्द सताए,
अपना कोई मिलने आए,
खड़ी द्वार पर जिसे निहारूँ ,
अब तो फागुन आयो रे !

बासंती मौसम अब आया ,
पतझड़ नयी कोंपलें लाया ,
मैं प्रियतम पर वारी जाऊँ,
अब तो फागुन आयो रे !

सरसों फूल रही खेतों में,
कोयल कूके है पेड़ों में,
लगता है मैं भी कुछ गाऊँ ,
अब तो फागुन आयो रे !

चारों तरफ बयार नयी है,
वसुंधरा श्रृंगारमयी है,
मदमाती मैं किसे पुकारूँ,
अब तो फागुन आयो रे !

प्रकृति हो गई रंग-रंगीली,
भर पिचकारी पीली-नीली,
मैं साजन के रंग हो जाऊँ,
अब तो फागुन आयो रे !

ढोल-मंजीरे बजते कैसे,
बिछुड़े हुए मिले हों जैसे,
आओ प्रिय ! या मैं उड़ आऊँ,
अब तो फागुन आयो रे !



जनवरी १९९८ की एक सर्द सुबह - दिल्ली

11 जनवरी 2010

सर्दी की छुट्टी !

आख़िरकार दिल्ली में बढ़ती ठंड को देखते हुए आठवीं तक के बच्चों को विद्यालय से पूरे हफ़्ते की छुट्टी दे दी गई । लगातार तीन दिनों से शीत-लहर का प्रकोप ज़ारी है, जिससे यह थोड़ी देर से ही सही ,बिलकुल सही कदम है। शीत-लहर की ठिठुरन बड़े-बड़ों को कंपा देती है,तो फिर छोटे बच्चों के लिए यह और कष्ट-दायी होता है, भले ही वे इसकी फ़िक्र न करते हों।
दर-असल ,सरकारी स्कूलों में जो बच्चे पढ़ने आते हैं उनकी पृष्ठ -भूमि ऐसी होती है,जिसमें जीने के ज़्यादा विकल्प नहीं होते। इन बच्चों के घरों में न तो सही छत होती है,न ही खान-पान का उम्दा इंतज़ाम ,तो फिर सर्दियों के लिए क्या विशेष साधन होंगे,यह आसानी से समझा जा सकता है। इससे बहुत ज़्यादा साधन उन्हें स्कूलों में भी नहीं मिल पाते हैं।
बहरहाल , फौरी इंतज़ाम के ज़रिये बच्चों को स्कूलों से छुट्टी देकर सरकार ने ठीक ही किया है!