31 मई 2012

निखंड घाम में !



निखंड घाम में काम करता आदमी,
पसीने को भी तरसता है ,
बंद कमरों में बैठे भद्र जन
बाहर का तापमान नाप रहे हैं ||

निखंड घाम में बाहर जाता आदमी
होठों से प्यास को दबाता है,
मॉल में घूमते बड़े लोग
ठंडी बियर डकार रहे हैं ||

निखंड घाम में सफ़र करता आदमी
गमछे से मुँह ढाँपता है,
बी एम डब्ल्यू में बैठे लोग
पॉप संगीत पर ठहाके मार रहे हैं ||

निखंड घाम में घर लौटता आदमी
एक नींबू के लिए मोलभाव करता  है,
कोठियों में आते संभ्रांत जन
अंगूर की पेटियाँ ला रहे हैं ||

29 मई 2012

तभी पढ़ें जब आपके पास प्रमाण-पत्र हो !


जी हाँ ,आपने सही समझा ! अब मैं कोई ऐसा वैसा ब्लॉगर या लेखक नहीं रहा. मैं इत्ता पढ़ा जाता हूँ कि मेरा दम घुटने लगा है.मेरी कोई भी रचना अब मेरे निजी पेटेंट के दायरे में है और मैंने यह सोच रखा है कि मेरे लिखे हुए को केवल मेरे चम्पू ही पढ़ें और मेरी वाह-वाह करें.
मेरी लिखने की खासियत शुरू से यही है कि मैं बिना लाग-लपेट के लिखता हूँ ,भले ही किसी को केवल लपेटने के लिए लिखूं.मैं बिलकुल ताक में बैठा रहता हूँ कि कब हमारा शिकार मिले और मैं उसे धर दबोचूं.मेरी इसी प्रवृत्ति से कई लोग घबड़ा कर काउंटर-अटैक करने की कोशिश में लगे रहते हैं.इससे ही बचने के लिए मैंने पुख्ता इंतजाम किया हुआ है.अगर कोई भी ऐसी-वैसी उपदेशक टीप मेरी पोस्ट पर आती है तो मैं बक्से में ही बंद कर उसका गला घोंट देता हूँ.लेकिन इधर कुछ ज़्यादा चालबाज़ लोग सक्रिय हो गए हैं और मेरी पोस्ट पर टीप न करके इधर-उधर उसका लिंक बिखेर देते हैं.इससे ही बचने के लिए मैंने यह नया नुस्खा आजमाया है.
मेरा नया नुस्खा यह है कि मैं जिसको चाहूँगा वहीँ मुझे पढ़ेगा और देखेगा.मुझे पढ़ने और देखने के लिए मुंहदिखाई जैसी रस्म अदा करनी पड़ेगी.कई बाबा-टाइप के ब्लॉगर हैं जो चुपचाप घूंघट उठाकर देख भी लेते हैं मतलब पोस्ट पढ़ लेते हैं पर मुंहदिखाई से मुकर जाते हैं.इन्हीं सब हरकतों से तंग होकर मैंने यह फैसला निजी हित में लिया है कि जिसे मेरी पोस्ट पढनी हो,मेरे पास मेल भेजेगा,इससे दो फायदे होंगे.एक तो अपना रुतबा कायम होगा ,दूसरे यह कि उससे मेलजोल की सम्भावना भी बढ़ जायेगी.इस तरह बिना किसी और के जाने,मैं चुपचाप कई विकल्पों में विचरण कर लूँगा.
मेरी पोस्ट मेरी निजी संपत्ति है.इसे मैं सबके लिए सार्वजनिक नहीं कर सकता हूँ.आजकल बड़े खुर्राट किस्म के ब्लॉगर मैदान में आ गए हैं.वे हमारी त्रुटियों पर और निरर्थक रचना पर सरे-आम बहस छेड़ देते हैं.मेरा ताज़ा उपाय इसकी भी काट करेगा.मैं भले ही दूसरों की पोस्ट में अपनी पूरी पोस्ट टीप के रूप में चिपका दूँ,पर मजाल कि कोई मेरी दीवाल के आस-पास भी आ सके.मैं इसी दिन के लिए ब्लॉगर नहीं बना था.मैं लिखित रूप से एक ब्लॉगर हूँ और यह भी कि उस पर मेरा पेटेंट है.आजकल कुछ पता नहीं कब कोई हमारे टेंट में आकर अपना खूँटा गाड़ दे इसलिए मैंने इसे सब तरह की अलाय-बलाय से दूर रखने का फैसला किया है.यह मेरा प्रजातान्त्रिक अधिकार है,इससे भले ही किसी और के अधिकारों का हनन क्यों न होता हो,पर मैं किसी और के अधिकारों के बारे में क्यों सोचूँ ?

इसलिय इस पोस्ट को पढ़ने के लिए आप ठीक से सुनिश्चित कर लें कि मेरे द्वारा जारी प्रमाण-पत्र आपके पास है या नहीं,अगर नहीं है तो सारे हर्जे-खर्चे के जिम्मेदार आप होंगे !

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट में कही गई बातें निहायत वैकल्पिक हैं और इसका सम्बन्ध किसी भी ब्लॉगर से महज़ संयोग हो सकता है !

26 मई 2012

ईमानदारी अब डराती है !

ईमानदारी
अब कीमत चुकाती है ,
बीच सड़क पर
क़त्ल होती है वह
व्यवस्था आँख मूँद कर चली जाती है !

ईमानदारी
अब सबको डराती है,
दिन के उजाले में भी
स्याह*अँधेरा लाती
सूरज की रोशनी  शर्माकर चली जाती है !

ईमानदारी
अब कहर ढाती है,
भरे-पूरे परिवार को
जड़ से तबाह कर
सांत्वना दिलाकर चली जाती है !

ईमानदारी
सपने नहीं दिखाती है ,
किताबों में रहकर
पन्ने-पन्ने नुचकर
नारों (नालों) में बहकर चली जाती है !


....इतना होते हुए भी वह
ईमानदारी को बचाये हुए है,
भौतिकता को छोड़कर
केवल अपनी आत्मा के साथ
गठबंधन निभाए हुए है !!




विशेष: बंगलौर में शहीद हुए ईमानदार अधिकारी महंतेश को समर्पित !

24 मई 2012

लोमड़ी के दिवस पूरे !

भले सूरत बदल  जाए ,
सूरज पश्चिम से उग आए,
मन की कुटिलता न  बदले
लोमड़ी भी सिहर जाए !

कोयले की आग  दहके,
शीतल-छाँव मत ढूँढो यहाँ,
जल जायेंगे चेहरे सभी
जो भूल से पहुँचे वहाँ !

जन्म उनका है निरर्थक
अभिशाप है यह भी हमारा,
जला कर ख़ाक कर देगा उन्हें,
 दहकता डाह का अंगारा !

तरस आता है हमें
हालत ये उनकी देखकर ,
टंकी चढ़ें,लोमड़ बनें 
उसूल अपने बेचकर !

लोमड़ी के दिवस पूरे 
अपने भी बेगाने हुए,
रात उनके साथ है 
दिवस खिसियाने हुए !

21 मई 2012

मित्रता और गाँधीजी !

निराला जी की जीवनी पढ़े कुछ अरसा ही बीता है और अब महात्मा गाँधी की आत्मकथा को बांचने बैठा हूँ.गाँधी को या उनके विचारों को जानने के लिए ज़रूरी था कि उनके जीवन के बारे में जाना जाय.पिछले साल राजघाट गए थे,तब वहीँ से 'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा ' पुस्तक ले आये थे.यह नवजीवन प्रकाशन ,अहमदाबाद से प्रकाशित है और मूल्य मात्र तीस रूपये है.ब्लॉगिंग और फेसबुक से कुछ समय निकालकर इसे पढ़ना शुरू किया है और शुरुआत में ही कई  बातें प्रभावित कर रही हैं.

अभी इसका थोड़ा ही हिस्सा पढ़ पाया है पर गाँधीजी के शुरूआती जीवन की सोच और उस पर उनका स्वयं का निष्कर्ष बड़ा रुचिकर है.चाहे विद्यालय की घटनाएँ हों या कस्तूरबा के साथ उनकी ज़ोर-जबरदस्ती,गाँधी ने खुले मन से सब स्वीकारा है.गलती न होते हुए भी शिक्षक द्वारा उन्हें सजा देना और उस सजा को सहन कर लेना संकेत देता है कि गाँधीजी को ठंडेपन और धीरज से लड़ने का मन्त्र बचपन से ही मिला था.

सबसे रोचक किस्सा है कि गाँधीजी  अपने एक मित्र को सही राह दिखाने के लिए खुद गर्त में गिर जाते हैं और वहीँ उन्हें मित्रता की असल परिभाषा मालूम होती है ! इस प्रकरण पर उनके विचार उल्लेखनीय हैं:

सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिए.जिसे सुधारना है उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती.मित्रता में अद्वैत-भाव होता है.संसार में ऐसी मित्रता क्वचित ही पाई जाती है.मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती है.मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते.अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत कम अवकाश(गुंजाइश) रहता है.मेरी राय है कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट है क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है.गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है.जो आत्मा की,ईश्वर की मित्रता चाहता है,उसे एकाकी रहना चाहिए अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिए.

यह सब बातें गाँधीजी को पहले नहीं सूझीं.मित्रता करके और उसमें गहरे पैठकर ,कसौटी पर कसकर और ठोकर खाकर ही वह इतना सब जान पाए.मैं तो इतना ही जान पाया हूँ कि आप जिसके मित्र हैं ,उसके भले के लिए जो आपको लगता है,वही आप कहते हैं,केवल उसको अच्छा लगने भर  के लिए नहीं.परिस्थिति या समीकरण बदलने से यदि हमारी मित्रता प्रभावित होती है तो यह मित्रता नहीं गुणाभाग और एक तरह से स्वार्थ है.इसलिए निष्काम भाव से और सिद्धांतों व उसूलों को बिना ताक पर रखे यदि हम मित्र बनें रह सकते हैं,तभी मित्रता की सार्थकता है !

17 मई 2012

लेखक या ब्लॉगर होने के नाते !

 

अकसर ऐसा क्यों होता है कि हम समाज या मौज-मजे के लिए लिखते-लिखते व्यक्तिगत आक्षेपों या तुच्छ बहसों में आकर उलझ जाते हैं ? यह ऐसी संक्रामक बीमारी है कि हम इससे अछूते नहीं रह सकते।चाहे बड़े लेखक हुए हों,कवि या आज के ब्लॉगर ,सभी कभी न कभी इस अवस्था से दो-चार होते हैं।कुछ लोग ज़रूर थोड़े सयाने दिखते हैं जो इन बातों को नज़र-अंदाज़ करके निकल जाते हैं पर इससे पूर्णकालिक समाधान नहीं मिलता।

हम अगर इस भागमभाग ज़िन्दगी में थोड़ी देर आराम से सोचें कि हम क्यों और क्या लिखते हैं तो शायद कहीं ज़्यादा सार्थक बातें बाहर आएँगी और इस का उत्तर भी । ऐसा नहीं है कि हमारे लिखने भर से समाज या देश में क्रांति आ जायेगी पर  अगर इस लिखने से कहीं कुछ हलचल होती है,बहस शुरू होती है या खालिस मनोरंजन ही होता है तो भी संतोष की बात है।दिक्कत तब होती है ,जब आपके लेखन को नकारात्मक दिशा में मोड़ने का प्रयास होता है और आप इस जाल में फंसकर वही करने लग जाते हैं जो दूसरों का उद्देश्य होता है।

सबसे ज़रूरी बात लिखने के लिए यही है कि खुले मन से ,बिना किसी दुराग्रह के ,यदि हम कुछ लिख रहे हैं तो समाज और देश के लिए तो अच्छा होगा ही,हमें भी सुकून देगा । हम अपने अजेंडे पर ही कायम रहें और सार्थक व स्वस्थ लेखन करते रहें तो ही हमारा लिखना सही मायने में लिखना होगा।लिखने का मतलब केवल पन्ने और जगह भरने से व अपने बने रहने के लिए बिलकुल नहीं होना चाहिए। अगर लिखने वाले होकर भी इतनी-सी बात समझ में न आ पाए तो काहे के लेखक ?

यहाँ मैं इस बात पर ज़रूर ज़ोर देना चाहूँगा कि गंभीर-लेखन में बनावट या दोहरेपन से बचे रहना ज़रूरी है।हम लिखें तो खूब आदर्श, मानवता और संवेदना की बातें मगर असल ज़िन्दगी में हम इनसे कोसों दूर हों,तो फिर हम किसके लिए लिखते हैं ?यदि हम अपनी कही बातों को खुद अमल में नहीं ला पाते तो उसका असर भी नगण्य होगा और हम हँसी के पात्र होंगे ।हमारी लिखने और पढ़ने की योग्यता हमारे मुँह और कलम से निकले शब्दों से ध्वनित हो जाती है।एकबारगी मुँह से भले ही हम भूलवश कुछ अन्यथा निकाल दें पर लिखे हुए का अभिलेख होता है और इसमें हल्कापन बिलकुल उचित नहीं ।

लेखक या ब्लॉगर इसी समाज का हिस्सा हैं।हमारे बीच में विचारों को लेकर तो टकराहट होनी चाहिए पर यह टकराहट किसी के व्यक्तित्व को चोट पहुंचाए बिना ही हो।बड़े लेखक और कवियों के भी आपस में मनमुटाव होते रहे हैं पर वे इसे सद्भाव और आपसी संबंधों के खराब होने की हद तक  नहीं ले गए । अगर हम समाज को दिशा देने वाले बनते हैं तो समाज को वास्तव में अपने बड़प्पन से कुछ दें,न कि झूठे अहंकार में डूबे रहें।यह जिम्मेदारी लेखक या ब्लॉगर होने के नाते हम पर ज़्यादा है क्योंकि यही वर्ग उपदेशक भी अधिक है । कभी लिखने से मौका मिले तो इस विषय पर भी सोचें ।

 

14 मई 2012

पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

घरवाली हमते समझदार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

वी घर का काम लेहेन  मूँड़े
हम बाहर घूमि-घामि आई,
मोबाइल अउ कम्पूटर ते 
जइसे हमारि भै होय सगाई !

लड़ते-झगड़ते हो गए बाइस बरस 
जब द्याखो बात सुनावैं चार 
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

कपड़ा-लत्ता ,बरतन-चउका 
खाना-पीना ,उनके जिम्मे,
ना कहीं घूमना,बाहर खाना
पूजा, बरत निभावैं रस्में !

हमही लरिकन के गुनहगार,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !

अब पूरे बाइस बरस बीते 
वी झेलि रहीं हमरी संगति,
'सत्ती होइ गईंन तुम्हैं साथै'
हमरी घरवाली रोजु कहति !

हमहीं यहि घर के बंटाधार ,
पढ़ि-लिखि के भकुआ बने यार !




11 मई 2012

बदलती रूचियाँ और दोस्त !


बचपन से लेकर अब तक कितनी रूचियाँ बनीं,कितनी बदल गईं,पता ही नहीं लग पाया ! खेलने से लेकर पढ़ने और चाहने तक,लिखने और देखने तक में  निरंतर बदलाव आते रहे.जो खास बात और बदलाव हुआ वह दोस्तों के संग बातचीत का रहा.ऐसा नहीं कि इस बीच हम पुराने दोस्तों को भूल गए पर हाँ ,जब जो रूचि हावी हुई उसी के मुतल्लिक,समान रूचि के लोगों से खूब बतकही हुई.

जब हम गाँव में पढ़ने जाते थे,स्कूल के साथी और घर के आस-पास के कुछ दोस्त रहे, जिनसे मेरी बातें,मुलाकातें होती रहीं.यह सिलसिला कक्षाओं के बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता और बदलता गया.इस बदलाव और  समय की कसौटी पर कुछेक लोग ही बचे और याद रहे,जिनसे ज़्यादा घनिष्ठता रही,खुलापन रहा !इनमें से कइयों से बरसों से न बात हुई न मुलाकात हुई,फिर भी गाहे-बगाहे उनकी याद आती रहती है.निश्चित ही मैं भी उन्हें बहुत याद आता होऊंगा,अपने स्वभाव के कारण ! फोन की इतनी सुविधा पहले नहीं थी,फिर फेसबुक या अन्य जरिया तो दूर की बात है.उन दोस्तों में कुछ ही से मुलाक़ात बाद में हुई जिनके फोन नंबर मुझे मिल पाए.अब इतना सारा समय बीत चुका है इसलिए पुराने दोस्तों से बात करें भी तो क्या और कितनी बार ? 

लगभग बीस साल से अपने खूंटे से अलग होकर दिल्ली में जमा हूँ.बीच-बीच में गाँव हो आता हूँ,पर दोस्त शायद ही मिल पाते हैं.यहाँ आये हुए भी काफ़ी अरसा हो चुका है,बहुत लोगों से मेल-मुलाक़ात हुई.काफ़ी सारे विभागीय मित्र बने पर वही बात कि उन सबमें हमारी रुचियों के समकक्ष कितने रहे या मैं उनमें से कितनों के  खांचे में फिट हो पाया ? इन बीस बरसों में भी दोस्तों की प्रासंगिकता बदलती रही,चाहते न चाहते हुए भी.कई बार स्थान परिवर्तन होते ही जो दोस्ती अटूट और एकनिष्ठ दिखती थी,औपचारिकता में बदल गई,मिलना-मिलाना कम हो गया !दो-तीन दोस्त ज़रूर ऐसे हैं जो शुरू से लेकर आजतक संपर्क में हैं,पर उनसे भी कभी-कभार ही बात हो पाती है.

गाँव से यहाँ आने और महानगरीय जीवन शैली में फंसने के कारण अपने खास रिश्तेदारों से भी नियमित बात नहीं हो पाती है.पिछले दो साल से जब से ब्लॉगिंग में रमा हुआ हूँ,तब से वास्तविक दुनिया के मित्रों से संपर्क कट-सा गया है.इस आभासी दुनिया में कई लोग बहुत नजदीक महसूस होते हैं ,उनसे लगभग रोज़ ही बात हो जाती है,कुछ लोगों से कभी-कभी.दर-असल यहाँ भी शुरू में हमने कई लोगों से संपर्क करने और फिर बात करने की मुहिम चलाई पर जिन्हें ज़्यादा पसंद नहीं रहा होगा,उनसे बातचीत कम होती गई या धीरे-धीरे छूट गई.यह मामला एकतरफा होता भी तो नहीं.हम यह कतई चाहते भी नहीं कि अगला हमारी बातों से बोर हो.हम जिससे बात करने में असहज महसूस करें,उससे आखिर कब तक बतियायेंगे ?हमारे विभाग में एक साहित्यिक मित्र रहे,जिनसे शेरो-शायरी पर खूब चर्चा होती,दुर्भाग्य से वे नहीं रहे,ऐसे में कई बार उनकी कमी खलती है !

फिलहाल,हमारी रूचि ब्लॉगिंग और कुछ-कुछ फेसबुक या ट्विटर में रमी हुई है.इसी दुनिया के दोस्तों से खूब बातें होती हैं,विमर्श होता है.मेरी सुप्त पड़ी रचना-शक्ति जागृत हुई है,कविताई परवान चढ़ रही है.पर ऐसा ही बना रहेगा,ज़रूरी नहीं है.कई बार ताने-उलाहने मिल चुके हैं इस नशीली दोस्ती के लिए पर दिल वही तो करना चाहेगा जिसमें  उसका खून बढ़ता हो ! आखिर रूचियाँ बदलने में हमारा कोई ज़ोर है क्या ? पढ़ना-लिखना और खूब बातें करना हमें सुकून देता है,अवसाद और अकेलापन भी नहीं आने देता !



6 मई 2012

तुम और तुम्हारी याद !

डायरी के पुराने सफों में 
हर सफे के हर्फ़ में , 
दिखती हो तुम, 
खो जाती हो तुम !

ढूंढता हूँ तुम्हें 
हर वक़्त,हर शय में 
पास होकर भी 
दूर हो जाती हो तुम !

इतनी शिद्दत से कभी
कुछ नहीं किया,
तलाश में अब हूँ मगर
कहाँ आती हो तुम ?

डायरी नहीं बनाता  
अब सफों से दूर हूँ,
हर्फ़  भी पहचानते नहीं 
प्रेम  नहीं पढ़ाती हो तुम !

हो सकता है कभी 
प्रेम मिल जाय  कहीं,
पर प्यार में सोंधापन ,सहजता 
कहाँ से लाती हो तुम ?

1 मई 2012

जुगनू बन जलता हूँ !

मैं अपने को ही पढ़ता हूँ
मैं अपने से ही लड़ता हूँ,
ये कैसी ख़ामोशी मुझमें 
मैं अपने से ही डरता हूँ !(१)

हा ! कितना बुरा किया मैंने 
हा ! तुमको त्रास दिया मैंने ?
अपनों की ही तप्त आँच से
रोज़ झुलसता,मैं जलता हूँ !(२)

जब चिंगारी राख बनेगी
अपने घर में साख घटेगी,
तब तुमसे मिलने आऊँगा
फ़िलवक्त घात मैं करता हूँ !(३)

मेरी व्यथा,कथा मेरी है
तनहाई ही नियति मेरी है,
याद बहुत आऊँगा तुमको
तब तक जुगनू बन जलता हूँ !(४)