22 सितंबर 2011

हमने तो बस गरल पिया है !

तुमने जो संताप दिए हैं,
हमने तो चुपचाप सहे हैं,
जब हमने पत्थर खाए हैं,
तुमने केवल रास किया है,
हमने तो बस गरल पिया है  !१!


मुझे नहीं दुःख ,नहीं मिले तुम,
आत्मा के भी होंठ सिले तुम,
मौन तुम्हारा तुम्हें डसेगा,
तुमने केवल हास किया है,
हमने तो बस गरल पिया है !२!


मैं तो वैसे भी जी लूँगा,
अमिय समझकर विष पी लूँगा,
तुमने जो विष-बेल उगाई,
जग को भी संत्रास दिया है,
हमने तो बस गरल पिया है  !३!


मैं दीप जलाता फिरता हूँ,
दुःख नहीं कि मैं भी जलता हूँ,
देखो,समय बनेगा  साक्षी,
तुमने  कलुषित  इतिहास  किया है,
हमने तो बस गरल पिया है  !४!


हमको  गैरों से आस न थी,
तुमसे भी कोई फांस न थी, 
पर स्वांग देखने के आदी तुम,
कैसा  ये खेल ? निराश किया है  !
हमने तो बस गरल पिया है  !५!


तुमने  झील के उथलेपन में 
ही अपने को डुबो दिया,
यह अथाह  जलराशि छोड़कर 
अपने सुख का ह्रास किया है,
हमने तो बस गरल पिया है  !६ !

20 सितंबर 2011

न जाओ सैंया,छुड़ा के बैंया !

आजकल पितर-पक्ष चल  रहे हैं !हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कुछ बढ़िया या अच्छे काम इस समय नहीं किये जा सकते ! पर,ब्लॉग-जगत में कुछ ऐसा होने की घनघोर आशंका हो गयी है.इसलिए हम सभी को ऐसा न होने देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देना चाहिए !हम तो ब्लॉगिंग में रस और मज़ा लेने आये थे,वह मिलना शुरू ही हुआ था कि इसका मुख्य-तत्व 'मसखरापन'(नौटंकी से तौबा) गायब होने की मुनादी पीट दी गयी है !

ब्लॉग-लेखन में उस समय भयानक कोहराम मच गया जब मसखरेपन ने इस ज़मात से बाहर होने की घोषणा कर दी.जितने भी गंभीर-टाइप के ब्लॉगर हैं उनको तो साँप ही सूँघ गया ! अब लिखने-लिखाने के बाद फ़ुरसत के क्षणों को हम सब लोग कैसे समायोजित करेंगे,यह परेशान करने वाला सवाल उठ खड़ा  हुआ है.

मसखरेपन का सबसे बड़ा कष्ट टीपों को लेकर है.उसका मानना  है कि टीपें इतनी मसखरी और मारक हो गयी हैं कि अब हमारे ऊपर ही भारी पड़ने लगी हैं.अगर ऐसे ही चलता रहा तो पोस्ट में जो 'लौह-तत्व' है ,वह भी बर्फ की  मानिंद ठंडा और कुंद हो जायेगा !इस सबसे बचने के लिए हालाँकि उसने शुरूआती और अहतियाती कदम उठा रखे हैं फिर भी मुँहनोचवा-क़िस्म के लोग अपनी आदत से बाज़ नहीं आ रहे हैं.लौह-तत्व की संरक्षा के लिए बकायदा टीपों को छानने का इंतज़ाम है.इसमें केवल पारिवारिक-सदस्य अपना प्यार ,मनुहार उड़ेल सकते हैं.और हाँ,ज़रुरत के अनुसार पिता,माँ,और भाई की संख्या घटाई-बढ़ाई जा सकती है !


अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे मसखरेपन ने मचान पर फिर चढ़ाई कर दी है,'सबते कठिन जाति अवमाना' का भी टोटका किया गया  है !उस पर विदेशी-आक्रमण भी लगातार हो रहा है तो कोई उसे छीलने में जोर का अट्टहास लगा रहा है,यह  हम सबके लिए भी चिंता का सबब होना चाहिए.आखिर जब मसखरेपन का तत्व ही नहीं अस्तित्व में होगा तो हम सिरफिरे और नाकारा लोग अपनी टीपों में धार कैसे ला पाएँगे ?


अभी भी समय है.जिस तरह राजनीति में जबसे 'लालू-तत्व' गायब हुआ है,पत्रकारों और व्यंग्यकारों की कलम   निष्प्राण हो चुकी है,उससे कम गहरा संकट नहीं है इस मसखरेपन का जाना.इसलिए इन बुरे दिनों में इस तत्व को तिलांजलि देने पर हम क्यों तुले हुए हैं ? बार-बार ऊपर  चढ़ने से वह मचान या टंकी जो भी है,धंस जाए ,उसके पहले ही  इस अद्भुत व अनमोल तत्व को बचा लेना चाहिए ! क्या आप तैयार हैं ?



18 सितंबर 2011

ग़ज़ल जैसा कुछ !

बातों में है  गज़ब की ज़ुम्बिश,      ,
जानें कहाँ कहर बरपेगा ?१!

सूखी धरती के दामन में,
जाने कब बादल बरसेगा ?२! ,

कौन बचा तेरी गिरफ़्त से,
कृत्रिम-हंसी कब तक ओढ़ेगा ?३!

तेरी सोहबत में ये जाना,
क़ायदा कोई नहीं चलेगा !४!

तेरी नफ़रत इतनी प्यारी,
चाहत को कैसे परखेगा ? ५!

फूलों का गुलदस्ता 'चंचल',
कब जीवन का हार बनेगा ? ६!



ग़ज़ल लिखना तो एक दिखावा है,
अस्ल में तो राग-ए-हसन सुनाना है........सुनिए 
 

16 सितंबर 2011

टंकी-आरोहण नहीं नौटंकी है यह !

हमने अपने बचपन में नौटंकी का आनंद खूब लिया था. उत्तर प्रदेश की  यह लोकरंजक शैली अब लुप्त प्राय है,पर इसी को फिर से ब्लॉग-लेखन के ज़रिये जिंदा रखने की अद्भुत मिसाल सामने आई है !

ब्लॉग-लेखन में आये हमें अभी ज्यादा अरसा  नहीं बीता.आने का उद्देश्य अपने मन के अन्दर के भावों की सहज अभिव्यक्ति और एक छोटा-मोटा झंडा फहराने का शौक था.शुरू किया तो बहुत ज़्यादा उत्साहवर्धक परिणाम नहीं निकले.दो-चार टीपों तक के लिए तरसना पड़ रहा था,जिसमें अभी भी कोई बहुत उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है और न होने की गुंजाइश दिखती है.हमने भी कुछ 'स्वान्तः सुखाय' और कुछ समाज-हित का भरम समझकर लिखते रहे.

अचानक ही जैसे मेरी तन्द्रा भंग हुई और इसमें ब्लॉग-लेखन का ऐसा चेहरा भी दिखाई दिया जो जिसे किसी भी सूरत में ब्लॉगिंग नहीं कहा जा सकता है.मैंने यह ब्लॉग आरोप-प्रत्यारोप या किसी की व्यक्तिगत निंदा के लिए नहीं बनाया था पर पिछले दिनों ब्लॉग-जगत में कुछ ऐसी हरकतें की जा रही हैं जिन्हें न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है क्योंकि लगातार गलत चीज़ों को देखते हुए भी अनजान बने रहना कम से कम किसी रचनाकार  का कर्म नहीं है.मुझे बहुत पीड़ा के साथ कुछ तल्ख़  बातें उद्घाटित करनी पड़ रही है ,उम्मीद करता हूँ कि सुधीजन यह विवशता समझेंगे !


ब्लॉग-जगत की लौह-महिला के ब्लॉग पर  यह् पोस्ट पढ़ें और उसमें आई हुई टिप्पणिया देखें तो इस ब्लॉगिंग से ही 'घिन' का भाव पैदा हो जायेगा. वह ब्लॉग 'आत्म-प्रशंसा' का मठ और गाली-गलौज  का उत्पादन-केंद्र बन गया है.जी भरकर वरिष्ठ ब्लोगर्स को गरियाया जाता है,पर विरोध करने के लिए यदि आप चाहें तो उसमें सफलता संदिग्ध है क्योंकि यदि उसमें  कही गयी बातों से आपकी सहमति नहीं है तो आपकी टीप अस्तित्व में ही नहीं आएगी.'मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू' की तर्ज़ पर माडरेशन का सहारा उस ब्लॉगरा को लेना पड़ता है ,बावजूद इसके कि वह स्व-घोषित लौह-महिला है ! ख़ासकर, इसी पोस्ट में मेरी एक टीप प्रकाशित की गयी और बाद वाली नहीं !


यह सारी पोस्ट एक-आधी अधूरी टीप को लेकर लिखी गयी और इसी बहाने घटिया टीपों को इस पोस्ट में जगह दी गई .डॉ.अरविन्द मिश्र जी और अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी को नाम लेकर व्यक्तिगत खुंदक निकाली जाने लगी.जिसका मैंने बिलकुल संयत शब्दों में प्रतिवाद किया,पर मेरे अलावा कई अन्य वरिष्ठ ब्लागर्स  को बातें कहने से रोका गया और  उन के कथित भाई के द्वारा अभद्र टीपें वहां तो की ही गयीं डॉ. मिश्र के ब्लॉग पर भी की  गईं.यहाँ चालाकी देखिये कि उस वीर-महिला ने खुद तो माडरेशन लगा रखा है और डॉ. मिश्र के यहाँ नहीं है,जिसका अपने हितों के तईं भरपूर इस्तेमाल किया गया.लेखन से आनन्द की जगह ज़हर फैलाया  जा रहा है !


इस पोस्ट से पहले जो पोस्टें लिखी गईं  उनमें टीपों के लिखने पर ही खिल्ली उड़ाई गयी,उन्हें बद्बूदार कहा गया क्योंकि जो टीपें विरुदावली की श्रेणी में नहीं आतीं उनमें से उनको बदबू आती है.लगातार पिछली पोस्टों को देखा जाए तो कहीं भी सार्थकता नहीं है !यह इस बात का प्रमाण है कि उनका लेखन  किस दिशा और दशा में है? ब्लॉग-लेखन में टीपों  या तंज को इस रूप में परिभाषित किया जा रहा है.नए आदर्श और प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं इसलिए भी मेरा लिखना आवश्यक हो गया ,फिर भी उस असभ्य ढंग से लिखी गई पोस्ट और उस पर की गयी अशालीन टीपों को मैं मैं यहाँ नहीं लगा रहा हूँ,वहीँ पर वह गंदगी रहे ,यही उचित है.


लौह-महिला का दाँव  इस पोस्ट के  लिखने और उनके तथाकथित भाई द्वारा खूब गरियाने के बाद भी अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के कारण जब खाली जाता दिखाई दिया  तो उन महोदया ने अपने स्त्रीत्व की दुहाई दी और अपने लेख के अंतिम होने की घोषणा कर दी.इस उम्मीद में कि ब्लॉग-जगत में कोहराम मच जायेगा ! पर, हाय ! ऐसा भी  न हो सका .इस बीच इसी पोस्ट में 'रक्षाबंधन' का पर्व भी मनाया गया और उनके जाने से 'असहाय' और 'अनाथ' हो जाने वाले चंद लोगों के मान-मनौवल के बाद चंद घंटों बाद ही विधिवत पुनरागमन हुआ ! घोषणा यह होती है कि अब बिलकुल नए अंदाज़ में अवतरण होगा !


हँसी आती है इस आयोजन पर !डॉ. अरविन्द मिश्र ने ऐसे आयोजनों को 'टंकी-आरोहण' का नाम दे रखा है.इसका आशय है कि जब भी अपनी पोस्ट पर टीपों का अभाव होने लगे तो यह फार्मूला 'हिट' है! पर मैं समझता हूँ यह 'टंकी-आरोहण' नहीं पूरी नौटंकी है ! जिसमें ब्लॉग-लेखन के साथ खिलवाड़ किया जाता है.पात्र भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं.यह नौटंकी ख़त्म नहीं हुई है,'नई' ऊर्जा के साथ फिर से मण्डली बैठ गयी है और हम नए तमाशे के लिए तैयार रहें !क्या यही ब्लॉग-लेखन का उद्देश्य है ?


इतने पर भी एतराज नहीं है. आप स्वतन्त्र हैं,अपने ब्लॉग पर खूब खेल खेलें पर और यदि किसी से कोई आपत्ति है,जमकर गरियायें मगर यह क्या कि गालियाँ दे-देकर लिहाफ़ में दुबक जाएँ और आपके 'भक्त' आपको यह कहें कि 'लौह-महिला का ख़िताब ऐसे ही नहीं मिला है !'आलोचना सुनने की ताब और माद्दा दोनों होना  चाहिए !


 अपनी आलोचना से घबराकर न मैं टंकी में चढ़ने जा रहा हूँ और न मैं टेसुए बहाकर सहानुभूति अर्जित करना चाहता हूँ.यदि आपको लगता है कि वास्तव में ब्लॉग-लेखन को हम कहाँ ले जा रहे हैं तो ज़रूर अपनी चिंता,सहमति,असहमति व्यक्त करें और हाँ,मैं बहुत मजबूत और बलशाली तो नहीं हूँ पर मेरा आत्मविश्वास इतना ज़रूर है कि हम अपने ब्लॉग पर माडरेशन का ताला नहीं लगाकर  बैठे हैं !शालीन लहजे में तर्कपूर्ण बात या तंज का भरपूर स्वागत है !




13 सितंबर 2011

बुरा मान गए !


हर हाल में हमने तुम्हारा साथ दिया,
थोड़ा सच बोला तो बुरा मान गए !१!

तुम्हें  उम्मीद किस बात की थी हमसे,
जो भरम टूटा तो बुरा मान गए ? २ !


देखा है कैसा दौर इस बीच में हमने,
तेरे इशारे को समझा तो बुरा मान गए !३!


तुम्हारा प्यार न मयस्सर हुआ  हमको,
इतना टूट के  चाहा तो  बुरा मान गए !४!


सितम भी सहे हमने, गुनहगार भी हमीं ,
यही बात समझाई तो बुरा मान गए !५!


ताउम्र खोजता रहा ,रोशनी तेरे लिए,
दिये में तेल न बचा तो बुरा मान गए !६!





साथ में मेहंदी हसन को सुन लें.....!









9 सितंबर 2011

मौत का एक दिन !

मौत का एक दिन मुअइयन है,नींद क्यूँ रात भर नहीं आती? 

ग़ालिब ने बहुत पहले हमें वह बात समझाने की कोशिश की थी जिसे शायद वह ख़ुद समझ नहीं पाए थे ! कई बार हम चाहकर भी अपने को इस बेचैनी से बचा नहीं पाते और पूरी की पूरी रात किसी डर,आशंका या चिंता की भेंट चढ़ जाती है.हम दिन में बहुत समझदार होते हैं पर रात आते-आते वह समझदारी न जाने कहाँ फुर्र हो जाती है ?

रात में बिस्तर जाने के समय जब हम बहुत थके और गाफ़िल-से होते हैं तो बहुत जल्द नींद के आगोश में चले जाते हैं ! यह स्थिति उत्तम और ज़रा दुर्लभ क़िस्म की होती है ! कई बार हम संगीत सुनते-सुनते या कोई पुस्तक पढ़ते-पढ़ते लुढ़क लेते हैं पर पूरी रात बेखटके सो जाते हैं.हमारा मोबाइल , ऐसा आधुनिक-यंत्र है जो हमारे लिए कई बार यंत्रणा बन जाता है इसलिए अकसर उसे स्विच-ऑफ कर देते हैं !हम पूरी तरह 'रेस्ट-मोड' में जाना पसंद करते हैं !

हमारी जिस प्रकार की जीवन-शैली बन गई है उसमें नींद का न आना सामान्य बात हो गई है.हम आपसी बातचीत में इस बात की हिमायत खूब करते हैं कि हमें बिंदास और बेफ़िक्र होके जीना चाहिए.पैसे के पीछे इतना न भागना चाहिए कि जिस 'जीवन-सुख' के लिए हम पैसा चाह रहे हैं, पैसा आने पर वही सुख हमसे कोसों दूर हो जाये !इस 'भौतिक-चिंतन' से भले ही आपको अपनी नींद में खलल न पड़े पर जाने-अनजाने प्राकृतिक या अप्राकृतिक रूप से हमारे जीवन पर जब कोई ख़तरा मंडराता दिखता है तो हम 'डॉक्टर' से 'रोगी' बन जाते हैं.यहीं से हमारे लिए रात एक दुस्वप्न बनने लग जाती है ! 

हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि एक दिन हम सबको अपना बोरिया-बिस्तर उठाना होगा पर शायद सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि जानते हुए भी हम हज़ारों साल का इंतजाम करने में लगे रहते हैं.पर यह हमारे लिए उस ईश्वर का वरदान भी है कि हमें इस बात की यथार्थता वास्तव में हो जाये तो हमारे लिए दो पल भी जीना मुश्किल हो जाये.आशावाद का संचार हममें लगातार बना रहता है और हम अपने नित्य-कर्मों में,पारिवारिक-दायित्वों में मशगूल रहते हैं !अगर हमें मौत  की यकीनी दिन-दहाड़े हो जाये तो क्या जीवन इतना सामान्य रह पायेगा ?

हमारी ज़िन्दगी का फलसफा एक शेर में यूँ है:

हँस सको जितना,खुलकर हँसा करो,
न जाने क़यामत किस द्वार  पर खड़ी हो !!




विशेष सन्दर्भ : दिल्ली में एक ही दिन बम-धमाका  और भूकंप की  तनिक छाया  में !



6 सितंबर 2011

मैं शक्ति हूँ !



मैं शक्ति हूँ !

मुझमें अपार ऊर्जा समाहित है
असीमित संसाधन हैं मेरे पास 
हर अस्त्र से सुसज्जित हूँ मैं
हर वार का प्रत्युत्तर हूँ !

मेरी शक्तियाँ अखंड और प्रचंड हैं
मैं निरंतर और सनातन हूँ !
संविधान द्वारा प्रदत्त 
सारी शक्तियाँ मेरी हैं
मैं ही संघ हूँ,गण हूँ,तंत्र हूँ !
किसी और संघ का निषेध है मेरे रहते 
अपने आप में अद्वितीय हूँ,अविकल्प हूँ
हर किसी से गुरुतर हूँ !

मैं गाँधी हूँ,जेपी हूँ
आदर्श हूँ,परिपाटी हूँ !
महात्मा और दुरात्मा की 
पहचान है मुझमें,
किसको पाठ पढ़ाना है 
किसको गले लगाना है,
इसके लिए खुली आँख से देखता हूँ
फिर बंद कर लेता हूँ !

शिव का तीसरा नेत्र 
जब चाहूं खोल सकता हूँ,
जनतंत्र और सभ्य-समाज को
सच्चा जीवन-दर्शन देता हूँ !
कुछ आसुरी प्रवृत्तियाँ 
हर युग में होती हैं,
इसीलिए शक्ति का अवतार 
सुनिश्चित कर रखा है मैंने ,
अस्तु मैं निर्भय हूँ !

मैं सर्वत्र हूँ,सदा हूँ
मैं ईश्वर हूँ,ख़ुदा हूँ !
अनादिकाल से प्रवाहित हूँ मैं
अथाह हूँ,प्रशांत हूँ !
इसलिए निशंक रहो,
मेरी सत्ता अक्षुण है,
अपराजेय है,चिरकालिक है
मैं विध्वंश हूँ,महाकाल हूँ !
हुँकार हूँ,ललकार हूँ मैं,
प्रतिशोध हूँ,अधिकार हूँ !

मैं शक्ति हूँ !
मुझमें भक्ति रखो
असीमित सुख भोगोगे ,मोदक खाओगे !
भटकोगे तो त्रस्त और संताप मिलेगा,
हर अपराध तुम्हारे माथे होगा, 
हर सुख से तुम वंचित होगे !
मैं समय हूँ,सत्य हूँ
शक्ति हूँ !!