5 अगस्त 2013

सामयिक दोहे !

बादल झाँकें दूर से,टिलीलिली करि जाँय।
बरसें प्रीतम के नगर,हम प्यासे रह जाँय।।


माटी की सोंधी महक,हमें रही बौराय।
बदरा प्रियतम सा लगे,जाते तपन बुझाय।।

बारिश आखिर आ गई,भीगा सारा अंग।
चोली चिपकी बदन ते,रति के संग अनंग।।


सत्ता की कुर्सी मिले,रामलला की ओट।
राघव कारागार में,कैसे माँगें वोट।।


दाम टमाटर के बढ़े,आसमान की ओर।
भिंडी का मुँह ताकती, धनिया के मन चोर।।


फेंकू अपने घर गये,पप्पू देहरादून।
राजनीति की आपदा,चूसे सबका खून।।


छाती फटी पहाड़ की,धरती हुई अचेत।
बहती नदी ठहर गई,मुनिया फाँके रेत।।

15 टिप्‍पणियां:

  1. जय हो, रंग कबीरा छाया है दोहों में।

    जवाब देंहटाएं
  2. जय हो..बेहतरीन कटाक्ष करते समसामयिक दोहे।

    जवाब देंहटाएं
  3. बढियां हैं जमाये रखिये -हाँ रस परिवर्तन न हो यह ध्यान रहे !

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह-वाह, एक साथ कई रंग।

    दोहा रचि-रचि ठेलते व्यंग्यकार संतोष।
    वाह-वाह की टीप का मिलता है अनुतोष॥

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।

    कृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा

    जवाब देंहटाएं
  6. छाती फटी पहाड़ की,धरती हुई अचेत।
    बहती नदी ठहर गई,मुनिया फाँके रेत।।........ waah

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह वाह एक से बढ़कर एक कटाक्ष :
    फेंकू अपने घर गये,पप्पू देहरादून।
    राजनीति की आपदा,चूसे सबका खून।।
    आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (12.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

    जवाब देंहटाएं