22 नवंबर 2009

सिर्फ़ तुम्हारे लिए !


जब भी देखता हूँ , कोई साँवली सी सूरत,
तुम्हारा ही अक्स  उसमें नज़र आता है।


जब भी सामना होता है तुमसे मेरा ,
नज़रें झुकाके मुझको, दिल में छुपा लेती हो ?


जब भी लेता है कोई तुम्हारा नाम,
दिल मेरा चुपचाप तस्दीक करता है !


मुझे डूबने दो इन झील-सी आँखों में,
बाहरी दुनिया से मैं ऊब चुका हूँ !

दूलापुर, राय बरेली , ०५-०४-१९८८

14 नवंबर 2009

हंटरमैन चला गया !

प्रभाष जोशी

दूसरों को ख़बरदार करने वाले और उनको ख़बर देने वाले प्रभाष जोशी अब ख़ुद एक ख़बर बन गए !उनका दुनिया से जाना इसलिए भी खटकता है कि अपने पेशे को महज़ औपचारिकतावश नहीं निभाया वरन अपनी पूरी जान लगाकर उसका मान भी बढ़ाया है। वे मरते दम तक पत्रकारीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों के लिए लिखते और लड़ते रहे। इस तरह हम उन्हें पत्रकारिता का 'हंटर मैन' भी कह सकते हैं,जिन्होंने न केवल दूसरों पर अपितु अपनी बिरादरी पर भी करारे प्रहार किए !

पाँच नवम्बर 2009 एक ऐसी टीस दे गया है जो कभी भुलाए नहीं भूलेगी। उस दिन अपन भी मैच देख रहे थे और सचिन की आतिशी पारी का काफ़ी दिनों बाद लुत्फ़ भी उठा रहे थे । जब लगा कि भारत अब मैच नहीं हारेगा,तभी सचिन का आत्मघाती स्कूप जीत को हमारे जबड़ों से निकाल ले गया और शायद यही स्ट्रोक जोशी जी की जान ले बैठा ! सच मानिए ,मैच गंवाने के बाद मेरे मन में आशंका भी आई थी कि सुबह हो सकता है हमें दो-चार ऐसे लोगों की ख़बर मिले कि वे इस आघात को सहन नहीं सके पर उस समय दिल अचानक बैठ गया जब ६ बजे सुबह टी.वी. पर जोशी जी के निधन का 'कैप्शन' देखा। मुझे रात में आए हुए दुःस्वप्नों का भी ख़याल आया। बहरहाल ,अब हम सब सब कुछ गँवा बैठे थे,उस एक मैच से बहुत ज्यादा !

जोशी जी से मिलने की मेरी बहुतेरी इच्छा थी पर मैं विगत पन्द्रह सालों से दिल्ली में रहते हुए भी इस लाभ से वंचित रहा। एकाध बार फ़ोन से बात करने की कोशिश भी की पर सफलता नहीं मिली। मैं ज़रूर पिछले पन्द्रह सालों से 'जनसत्ता' पढ़ता रहा हूँ और इसी बात से संतुष्ट था कि वो हमारे आस-पास ही हैं। 'कागद कारे' का तो मुरीद मैं बन ही चुका था उनकी हर विषय पर टिप्पणी का दीवाना था।

'जनसत्ता' की पैदाइश जिस सोच के साथ उन्होंने की थी वह सोच अभी भी जीवित है,यह उनके जादुई लेखन और प्रेरणा का ही असर है। इस अखबार ने प्रबुद्ध समाज की न केवल भूख बढ़ाई बल्कि उसे शांत भी किया। यह एकमात्र ऐसा अख़बार रहा जिसने अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के बजाय एक जागरूक परिवार बनाया और इसके लिए इसके प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं।निः संदेह इस सबके पीछे प्रभाष जोशी ही थे!

वे न केवल ख़बरों के पत्रकार थे बल्कि आम आदमी से जुड़ी हर बात को अधिकार-पूर्ण और बेलौस अंदाज़ में कहने वाले निर्भीक इंसान थे। राजनीति के अलावा क्रिकेट और टेनिस को रोचक और साहित्यिक अंदाज़ में बताने वाले वे अकेले थे। सांप्रदायिक ताकतों के ख़िलाफ़ उनकी कलम को तो जैसे महारत हासिल थी। वे कबीर,गाँधी और विनोबा के मिले-जुले रूप में हमारे सामने थे।सत्ता और साधन का उन्होंने कभी मोह नहीं किया,जबकि उनके समकालीन पत्रकार सुविधाएँ पाने के लिए कितनी जुगत लगाते हैं ,यह छिपा नहीं है.हालिया दिनों में पैसे लेकर खबरें छपने वालों के पीछे वे हाथ धोकर पड़े थे।

उम्मीद है कि 'जनसत्ता' के रूप में उन्होंने जो लौ जलाई थी वह बुझने नहीं दी जायेगी और हम सबकी उनके प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी !Posted by Picasa

6 नवंबर 2009

प्रभाष जोशी- क्रिकेट के लिए जिए.....



बीती रात भारत-आस्ट्रेलिया का पांचवां एक-दिवसीय मैच कई मायनों में न भुला पाने वाला सबक दे गया !सचिन के अतुलनीय पराक्रम के बाद भारत ने सिर्फ़ एक मैच ही नहीं गंवाया बल्कि अपने एक सच्चे सपूत को भी खो दिया जो किसी मैच की हार-जीत से परे बहुत बड़ी क्षति है!
प्रभाष जोशी हमेशा की तरह अपने क्रिकेट और सचिन प्रेम के कारण इस मैच का आनंद ले रहे थे,जिसमें बड़ा स्कोर होने के कारण भारत के लिए ज़्यादा कुछ उम्मीदें नहीं थीं,पर टीम का भगवान् अपनी रंगत में था और लोगों ने सालों बाद सचिन की पुरानी शैली और जवानी की याद की। केवल अकेले दम पर उनने बड़े टोटल का आधा सफ़र तय किया और हर भारतीय को आश्वस्त कर दिया कि जीत उन्हीं की होगी पर तभी अचानक वज्रपात सा हुआ और जो मैच भारत की झोली में आ रहा था वह हमें ठेंगा दिखा कर चला गया और यही कसक जोशी जी की जान ले बैठी। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल ले जाया गया पर हम उन्हें बचा नहीं पाये ।पत्रकारीय बिरादरी का 'भीष्म पितामह' अपनी यात्रा पर जा चुका था। सचिन क्रिकेट के भगवान् थे,प्रभाष जी के लिए क्रिकेट भगवान् था और हम जैसे पाठकों के भगवान् प्रभाष जी थे !
प्रभाष जी की लेखनी के कायल इस देश में कई लोग मिल जायेंगे,जो उनका ही लिखा आखिरी फैसले की तरह मानते थे। केवल अखबारों में लेख लिखने के लिए नहीं उन्हें याद किया जाएगा,अपितु पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और उनकी चिंता को हमेशा स्मरण किया जाएगा। वे राजेंद्र माथुर के जाने के बाद अकेले ऐसे पत्रकार थे जिनकी किसी भी ज्वलंत विषय पर सोच की दरकार हर सजग पाठक को थी। वे ऐसे टिप्पणीकार भी थे जिन्होंने न केवल राजनीति पर खूब लिखा बल्कि क्रिकेट,टेनिस और आर्थिक मसलों पर उनकी गहरी निगाह थी। उनके राजनैतिक लेखों से आहत होने वाले भी उनकी क्रिकेट और टेनिस की टिप्पणियों के मुरीद थे।
प्रभाष जी के जाने से धर्मनिरपेक्षता को भी गहरी चोट लगी है। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा हमेशा गाँधी के भारत की हिमायत की और कई बार इसका मूल्य भी चुकाया।आज जब अधिकतर पत्रकार सुविधाभोगी समाज का हिस्सा बनने को बेचैन रहते हैं,जोशी जी एक मज़बूत चट्टान की तरह रहे और यही मजबूती उन्हें औरों से अलग रखती है।

जोशी जी इसलिए भी भुलाये नहीं भूलेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिकों को उपदेश दिया बल्कि उस पर ख़ुद अमल भी किया,इस नाते हम उनको निःसंकोच पत्रकारीय जगत का गाँधी कह सकते हैं। प्रभाष जी को 'जनसत्ता'की तरह अपन भी खूब 'मिस' करेंगे। उन्हें माँ नर्मदा अपनी गोद में स्थान दे,यही एक पाठक की प्रार्थना है!