यू पी ए सरकार पर जब इस सत्र में मंहगाई को लेकर चौतरफ़ा हमले होने वाले थे ,परिदृश्य एकदम से बदल गया है। सरकार के प्रबंधन में फिर से सोनिया गाँधी का हस्तक्षेप हुआ और एक बहु-प्रतीक्षित माँग को एक दिशा मिल गई। महिला-आरक्षण की माँग नई नहीं है । इसे पेश किये जाने की कोशिशें लगभग पंद्रह सालों से की जा रही हैं,पर शायद यह श्रेय सोनिया गाँधी को ही मिलना था। अबकी बार इस बिल के विरोधी लालू-मुलायम की मजबूरी भी नहीं थी इसलिए भी इस पर काम आगे बढ़ पाया । ९ मार्च को राज्यसभा ने इसे पास कर न केवल महिला-आरक्षण की दिशा में एक कदम बढाया,अपितु महिलाओं को केन्द्रीय चर्चा में ला दिया है।
ऐसा नहीं है कि इस बिल में कोई जादुई शक्ति है जिसके पास होते ही उन्हें सारी शक्तियाँ मिल जाएँगी ,परन्तु एक शुरुआत ज़रूर हो गई है जो आगे चलकर एक क्रांतिकारी बदलाव साबित होगी । इसके प्रभाव-कुप्रभाव वैसे ही होंगे जैसे अभी अन्य आरक्षण व्यवस्था के हो रहे हैं। जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ गए हैं उन्हें वह फिर भी मिलता रहता है,जिसकी कभी उनके द्वारा मुखालफत नहीं की गई । ऐसे लोग इस आरक्षण में तमाम खोट देख रहे हैं जबकि उन्होंने इसके पहले अपने कोटे से अपने परिवार को ही आगे बढ़ाया है। वहाँ उन्हें मुस्लिम या दलित की भागीदारी परेशान नहीं करती। यकीं मानिए ,जब यह कानून भी बन जायेगा तो भी उनके परिवारी ही उसका लाभ लेंगे। इसलिए इस बिल का विरोध सैद्धांतिक न होकर निरा राजनैतिक है!
अभी,जबकि इस बिल को लेकर लम्बी जद्दो -जहद बाक़ी है,एक आम भारतीय की शुभकामनायें इसके साथ हैं।
शुभकामनाये तो हमारी भी साथ हैं ....लेकिन असल मुद्दा यही है कि इन सीटों पर कौन टिकट पायेगा लड़ने के लिए ? नेताओं की पत्नियां , बच्चियां या कोई और रिश्तेदार ?
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