1 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

हमको अपनी ही ख़बर, मिलती नहीं है आजकल,
इस गुलिस्ताँ में कली,  खिलती नहीं है आजकल . (१)



मन तड़पता है मेरा, दीदार करने को ,
तेरी थोड़ी भी झलक, मिलती नहीं है आजकल.(२)


राह ये कटती  नहीं , डस रहीं तनहाइयाँ,
 ख्वाब में भी वो, तडपा  रही है आजकल.(३)


मेरे हमदम तू न जाने, क्या है मेरी दास्तां,
हर ख़ुशी से ग़म की बू  आ रही है आजकल.(४)


आ भी जाओ अब मेरे महबूब ऐ "चंचल",
तेरे बिना ये ज़िन्दगी ,खाली रही है आजकल.(५)




विशेष :१९९४ की यह रचना ,पहली चार लाइनें गाँव(दूलापुर)
           व बाद की दिल्ली में रहते हुए !

7 टिप्‍पणियां:

  1. राह ये कटती नहीं , डस रहीं तनहाइयाँ,
    ख्वाब में भी वो, तडपा रही है आजकल.
    बेचैन मन की सुंदर अभिव्यक्ति। ग़ज़ल का एक-एक शे’र दिल को छू गया। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विचार::मदिरा
    साहित्यकार-श्रीराम शर्मा

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  2. निर्वात में हवायें तेजी से जा समा जाती हैं।

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  3. @मनोज कुमार उत्साह-वर्धन के लिए शुक्रिया.बचपन की दास्ताँ बुढ़ापे तक 'पिछुवाये' है!


    @प्रवीण पाण्डेय भैया,इतना बड़ा 'बाउंसर' मारा है कि झेल नहीं पा रहा हूँ.क्या मैं 'निर्वात' हूँ और 'वो' हवा है?अभिप्राय समझाने का कष्ट करें !

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  4. ग़ज़ल के हिसाब से बहर (Meter) में थोड़ी गड़बड़ी है पर भाव अच्छे हैं। यदि बहर का ध्यान रखें तो अच्छी ग़ज़लेँ कह सकते हैं आप।

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  5. @ सोमेश सक्सेना भाई,'पकड़ने' के लिए धन्यवाद,दर-असल अपन ने कोई 'टरेनिंग' वगैरह नहीं ली है,बचपन से लेकर आज तक,जो मन में आया,कह दिया.अब तो ज़्यादा कुछ बनता भी नहीं है!

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  6. मीटर दुरुस्त हो जाय .. बाकी साधने की अच्छी कोशिश दिखी ! आभार !

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  7. @अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी बहर की समझ तो अपन की समझ के बाहर है पर युवावस्था में तुरत-फ़ुरत जो बात दिमाग में आ जाती उसे कागज़ पर उतार देता था.पहली दो लाइनें अच्छी बन पड़ी थीं पर बाद वाली तो ग़ज़ल पूरा करने की मजबूरी में,इसलिए 'कुछ' गड़बड़ है.साधुवाद सहित !

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