19 अप्रैल 2014

झूठे वादों का मौसम है।

झूठे वादों का मौसम है,
तगड़ी घातों का मौसम है।

बीत गए वो सोने के दिन, 
काली रातों का मौसम है। 

पनघट पर खाली सन्नाटा,
उसकी यादों का मौसम है। 

और नहीं कुछ सूझे मन को, 
केवल बातों का मौसम है। 

आँखों में है एक समंदर, 
अब बरसातों का मौसम है।

15 अप्रैल 2014

मैं भी लिखूँगा किताब ....!


मैं भी लिखूँगा किताब
और नोच लूँगा एक झटके में सारे नकाब
उतार दूँगा खाल उसकी
पर इससे पहले उसे
मौन तो होने दो
मुर्दा होगा तो सहूलियत होगी नोचने में
बन जाऊँगा एक झटके में लेखक
और हाथ में दाम के साथ आएगा काम भी.
क्या कहते हो,क्या लिखूँगा ?
तुम मूर्ख हो इतना भी नहीं मालूम
क्या लिखा है इससे ज्यादा ज़रूरी है
किस पर लिखा है,कब लिखा है,क्यों लिखा है ?
मैंने तय कर लिया है
लिखूँगा धारा के साथ
लहर से खेलते हुए
भँवर और तूफ़ान से बचते
नदी के किनारे-किनारे
कीचड़ से मिलते हुए
लिखूँगा बाढ़ और प्रलय के गीत
मनु और शतरूपा को ठेंगा दिखाते हुए
हँसूँगा विजन में सिंह की दहाड़ से डरे पशुओं पर
और छाप दूँगा उन्हें अपनी कविता के मुखपृष्ठ पर
कलम से क्रांति की अगुवाई करूँगा
करूँगा कुटम्मस एक-एक कर उनकी
जिन्होंने किया था दरकिनार मुझे
किताब लिखकर साहित्य से और उनसे
ले लूँगा बदला,भले कुछ हो जाए
क्योंकि किताब लिखने से
उसके छपने-बिकने से ही

हम लेखक बनने वाले हैं
अच्छे दिन आने वाले हैं !