पिछले दो दिनों से वे कोमा में थे। हमें किसी बुरी खबर की आशंका थी,और अंततः कल शाम वो ख़बर मिली ,जिसने हमारे 'पंडितजी '(बचऊ पंडितजी) को भौतिक रूप से हमसे अलग कर दिया !जिनके लिए हम प्रार्थनाएं करते रहे वे स्वयं प्रार्थना-स्वरुप हो गए !
क़रीब छः महीने पहले वे अपने प्यारे गाँव को छोड़कर चिकित्सकीय इलाज़ के लिए शहर(कानपुर)की बेरंग ज़िन्दगी को जीने आ गए थे । मेरी नियमित रूप से उनसे बातें होती रहती थीं और वे बड़े स्नेह के साथ मुझे याद करते!मैं उनसे लगातार इसलिए भी बातें करता रहा कि उनको अपनी उपस्थिति ,बीमारी के बावज़ूद , एक बोझ की तरह न लगे। पचानवे की उमर के होने के बाद भी ग़जब का जीवट उनमें था। आख़िरी समय में भी वे पढ़ने की ललक लिए हुए गए !
जब तीन रोज़ पहले मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उनकी पोती ने बताया कि एक रोज़ पहले वे अख़बार और चश्मा लेकर घर की छत पर जा रहे थे। बीमार होने की वज़ह से उनसे यह अपेक्षा थी कि वे बिना बताये कहीं न जाएँ। पर,ऊपर वाले को भी किसी बहाने की तलाश थी। वे तीन-चार सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ऐसे लुढ़के कि फिर उठ न सके !
मैं जब मिडिल स्कूल में था तो 'पंडिज्जी' उस में प्रधानाध्यापक थे। वे हमें अंग्रेज़ी पढ़ाते थे और बिरले ही छात्र थे जो उनकी 'स्पीड' को पकड़ पाते थे। मेरे बारे में उन्होंने एक बार कहा था "इस उम्र में इतनी तेज़ी से अंग्रेज़ी शायद ही कोई पढ़ता हो।". पंडित जी मेरे पिताजी के भी गुरु रह चुके थे। पढाई के दौरान ही उन्होंने एक छात्र का ज़िक्र किया था कि उसे 'सुंदर कांड' पूरा याद है,बस तभी से मैं भी जुट गया था और नतीज़तन, दो साल के अन्दर मैंने सुंदर कांड,किष्किन्धा कांड और अरण्य कांड रट डाले थे. यह वाक़या बताने का उद्देश्य यह था कि शिक्षक की प्रेरणा क्या काम कर सकती है ?
मैं तीन महीने पहले उनसे मिला था तो उन्हें अमेरिकी इतिहासकार की जिन्ना की लिखी पुस्तक दे आया था ,जिसे थोड़ा ही वो पढ़ पाए होंगे कि काफ़ी बीमार हो गए थे। अभी दस -बारह दिन पहले बात हुई थी तो मैंने उनसे कहा था कि अब तबियत ठीक लगती है। पर,होना तो और था और हुआ भी !
हमारी उनकी जब बातें होती थीं ,वे अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट दिखते थे। लगातार और धारा -प्रवाह हिंदी या अंग्रेज़ी में बोलना उनकी ख़ास विशेषता थी। रहन-सहन में पूरे गाँधीवादी थे। हमेशा खादी का धोती-कुरता ही पहनते थे।
अब जब भौतिक रूप से वे हमारे बीच में नहीं हैं तब भी हमारी प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं और रहेंगे। जीवन को पूरी तरह और निचोड़कर जिया और पिया उनने,यही बात उन्हें औरों से अलग करती है। मैं जानता हूँ कि मेरे 'पंडिज्जी' की शुभकामनायें और उनका आशीर्वाद हमेशा मुझे प्रेरित करता रहेगा। अब मेरी आँखें गीली हो रही हैं,ईश्वर उन्हें अपने में मिला ले!
हम भी आपके साथ ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. बुजुर्गों का आशीष हमेशा रहता है.
जवाब देंहटाएंमार्मिक संस्मरण! ऐसे प्रेरणास्रोत सबके आसपास हों। उनकी याद को नमन!
जवाब देंहटाएं@udan tashtari बड़ों का ही आशीष मिलना आजकल दुर्लभ हो रहा है...
जवाब देंहटाएं@अनूप शुक्ल जिनसे गहरा जुड़ाव होता है,बिछड़ने पर पीड़ा भी उतनी गहरी होती है !