मेरे जीवन की प्रथम-किरण,
मेरे अंतर की कविता हो,
हृदय अंध में डूब रहा ,
प्रज्ज्वलित करो तुम सविता हो !
मम भाग्य-विधाता तुम्हीं हो,
तुम बिन जीवन है पूर्ण नहीं,
मेरे अंतर-उद्गारों को ,
साथी ! करना तुम चूर्ण नहीं !
प्रेरणा तुम्हीं हो कविता की,
मेरे मानस की अमर-ज्योति,
सत्यता तुम्हारे सम्मुख है,
नहीं तनिक भी अतिशयोक्ति !
मेरे जीवन की डोर तुम्हीं,
अपने से अलग नहीं करना,
प्यार तुम्हीं से केवल है,
अंतर्मन में मुझको रखना !!
विशेष :पहला गीत,रचना-काल-१०/०६/१९८७
स्थान-फतेहपुर(उ.प्र.)
प्रेम की आत्ममयी व सरल अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहाय रे !
जवाब देंहटाएंकविताई की ऐसी प्रेरणा से हम क्यों महरूम हैं?
@प्रवीण पाण्डेय काश ! प्रेम-पथ इतना सीधा-सपाट होता !फिर तुलसी बाबा लिख गए हैं;'मोह न नारि,नारि के रूपा'तो हममें से ही किसी को आगे आना पड़ेगा !
जवाब देंहटाएं@प्रवीण त्रिवेदी पछताओ मत महाराज!जिनको प्रेरणा मिली है,वे कौन-से आबाद हैं ?