30 दिसंबर 2011

फ्रीडम एट मिडनाइट !

लोकपाल को लेकर किया जा रहा धमाल कुछ समय के लिए थम गया है. कई लोगों को इसके ऐसे हश्र का अंदाज़ा पहले से ही था,फिर भी सत्ता पक्ष द्वारा बार-बार यह कहा जाता रहा कि उन पर ,संसद पर विश्वास नहीं किया जा रहा.ये लोग ही हैं जो बेसुरे और बेसबरे हो रहे हैं.अब जबकि आधी रात को फ़िलहाल इस जिन्न से छुटकारा मिल गया है ,काफी सारे परदे खुले ,मान्यताएं ध्वस्त हुईं व राजनीति अपने असली रंग में आई ! संसद में लोकपाल की हिमायत के बजाय अपने-अपने हितों की वकालत ज़्यादा की गई  ! आम आदमी भौचक्का होता हुआ केवल यह देखता रह गया कि उसके लिए यहाँ कौन बैठा है ? और वे सब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के जश्न में डूबे हुए हैं !


अन्ना जी के आन्दोलन शुरू करने के पहले दिन से ही किसी भी नेता या दल ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया.सब पहले से ही आर टी आई से दुखी थे एक और नई मुसीबत के लिए वे तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल था,इसलिए अन्ना को शुरू में ही उपेक्षित रखा गया.बाबा रामदेव से सौदेबाजी की  गई ,उनको जानबूझकर अन्ना के आगे खड़ा करने की चाल चली गई,फिर उनके साथ क्या किया गया, यह सभी जानते हैं.अन्नाजी के अगस्त-आन्दोलन ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी तो सारे दल के नेताओं ने इससे उबरने के लिए गजब की दुरभिसंधियाँ कीं ! टीम अन्ना सहित कई प्रबुद्ध लोग राजनीति की इस चाल से सशंकित थे,फिर भी उन पर भरोसा किया गया.


इस सबके बाद क्या हुआ ,देश ने खूब देखा.इस बीच केजरीवाल,किरण बेदी और यहाँ तक कि अन्ना को भी गरियाया और बदनाम किया गया.संघ और भाजपा से रिश्ते जोड़े गए. कहीं न कहीं सत्ता में बैठे लोग लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को भूलकर टीम अन्ना को सबक सिखाने में जुट गए.जो भी इस आन्दोलन का समर्थक बना उसे उसकी भ्रष्टाचार की चिंताओं से हटकर ,संघ के रिश्तों में लपेटने की कोशिशें होने लगीं.संघ क्या देशद्रोही और आतंकवादी संगठन है? उसके साथ जुड़े हुए लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते ? इस तरह मामले को दूसरा मोड़ देने के पुरजोर प्रयास किये गए.


अन्ना ने अपनी अस्वस्थता और राजनीति के दोगलेपन के चलते जब अनशन खत्म किया तब उनका उपहास  किया गया.संसद में बहस के नाम पर फूहड़ता का बोलबाला रहा.नेताओं को ऑन दि रिकॉर्ड   मज़बूत   लोकपाल चाहिए पर ऑफ दि रिकॉर्ड उसकी राह में हज़ार कांटे बो दिए गए.आम आदमी को बार-बार यह बताया जा रहा था कि लोकतंत्र में संसद सबसे ऊपर है...लोक से भी !


अन्ना जिसके लिए आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं ,वह सरकार का अपना दायित्व है,पर इस पर भी माननीयों को आफत आ रही है..इस प्रजातंत्र की सारी कवायद 'परजा' ने देख ली है.अन्ना को कुछ हासिल हुआ हो या नहीं पर उन्होंने लोकपाल और भ्रष्टाचार को  नए साल का ,अगले चुनावों का अजेंडा ज़रूर बना दिया है !


मोरल ऑफ़ दा स्टोरी " तुम हमसे कितना भी होशियार  हो,पर हमारा जैसा कांईयापन  कहाँ से लाओगे ?"


........चलते-चलते

उनको हक है कि हमें ,ज़िल्लत की जिंदगी दें,
हम न बोलें,न रोयें, यूँ ही मुर्दा पड़े रहें !!

24 दिसंबर 2011

संसद से सड़क तक !

इन खामोश निगाहों से 
मंजिल को जाती राहों से 
होरी,धनिया की आहों से 
अनगिन किये गुनाहों से 

कब तक तुम बच पाओगे,
सभी आदरणीयों से माफ़ी सहित 
कभी सड़क पर तो आओगे !! १!


अपने को ही मार रहे
बनत बड़े हुशियार रहे 
गरम हवा के साथ बहे
कुछौ न करिहौ बिना कहे ?

कब तक घूँघट डाल रखोगे,
कभी तो पनघट पर आओगे !! २!


आग भरी है हमरे दिल मा
रोज कर रहे हम पैकरमा 
चुहल कर रहे तुम संसद मा
कितने छेद कर दिए बिल मा 

तुम किस बिल में घुस पाओगे,
बीच सड़क जब आ जाओगे ? ३!

हमने तो ये सोच रखा है
धीरज को तुमने परखा है 
ताक में गाँधी का चरखा है 
चारा,रबड़ी खूब चखा है 

अब तुम हड्डियां चबाओगे ?
शायद सुकून तब पाओगे !! ४ !






20 दिसंबर 2011

सिल्क जो डर्टी नहीं है !

अपन ने कभी किसी फिल्म की समीक्षा नहीं की और न इस उद्देश्य के साथ कोई फिल्म देखी,पर 'डर्टी पिक्चर' का मामला बिलकुल अलग है.इसकी समीक्षा ही करनी थी तो थियेटर में आने के बाद ही देख आता.हाँ,इसके प्रोमोज में 'ऊ ला ला ,ऊ ला ला' गाने को देखकर हमारा बुढ़ियाता  हुआ मरदाना मन ज़रूर इसे देखने को लेकर मचल रहा था.मन के किसी कोने में दबी हुई अतृप्त इच्छाएं बाहर निकले को बेचैन थीं.हमें साथ भी मिल गया दो और हमसे थोड़ा बुज़ुर्ग होते दोस्तों का,सो हम तीनों ख़ुशी-ख़ुशी सिनेमा-हाल में मनोरंजन करने घुस गए !


फिल्म चलने लगी तो शुरू में हमें वही दिखने लगा जो हम सोचकर गए थे,पर जल्द ही लगा कि सिनेमा ने वास्तविक जिंदगी के ट्रैक को पकड़ लिया है. 'सिल्क' एक आम भारतीय सोच के साथ अपने सपने को यथार्थ रूप में परिणित करने में लग जाती है.उसका यह सपना किसी से छुपा नहीं होता और वह आम फार्मूले को अपनाकर फ़िल्मी-ट्रैक पर सरपट दौड़ने लगती है.इस दरम्यान उसने कभी अपनी जिंदगी में दोहरापन नहीं लाने दिया.इस वज़ह से शुरू में उसने अपने पारिवारिक रिश्तों को खोया और बाद में फ़िल्मी या बनावटी रिश्तों को भी.


उसके जिस अंग-प्रदर्शन के चलते उसे सफलता मिली,पुरस्कार मिले,पहचान मिली उसी ने तिरस्कार और पाखंड
का अनुभव भी कराया. सबसे बड़ी बात कि 'सिल्क' अपने द्वारा किये जा रहे काम के अंजाम से बेपरवाह होती है. पुरस्कार और तिरस्कार देने वाले इस दोगले समाज को ज़ोरदार चाँटा भी लगाती है. वह बेबाक होकर कहती है कि जिस विषय को लेकर फिल्म की प्रशंसा होती है,ईनाम दिए जाते हैं,लोग अकेले में लुत्फ़ उठाते हैं,उसी किरदार को  यथार्थ-जिंदगी में वे अछूत समझते हैं.उसका मूल मन्त्र होता है कि लोग सिनेमा देखने आते हैं तो सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए और  वह फिल्म और असल ज़िन्दगी में वही करती है तो गलत कैसे है ?उससे दोहरी जिंदगी नहीं जी जाती.जबकि इसके उलट जो लोग दिन और रात में  अपने किरदार बदल लेते हैं,वे चरित्रवान और इज्ज़तदार कैसे?


विद्या बालन से माफ़ी सहित 
'सिल्क' अपने वास्तविक जीवन को परदे पर उतारती है,यह कहना ज्यादा सही होगा,बनिस्पत इसके कि वह 'फ़िल्मी-जीवन' को अपनी 'रियल-लाइफ' में !पर,इस बीच इस ग्लैमर और बनावटी दुनिया में उसका खोल उतर जाता है,वह धीरे-धीरे अकेले पड़ जाती है,तब भी वह बदलने को तैयार नहीं होती.वह मर्दवादी समाज के फ्रेम में जब तक फिट बैठती है,मर्द के लिए वह एक साधन होती है.उसने अपने होने की वज़ह और महत्ता को अपने तईं उपयोग भी किया है.इसके लिए वह कहीं से भी दोषी नहीं है.


जिस झूठे ग्लैमर और बनावटी जिंदगी के पीछे 'सिल्क' भाग रही थी,उसका अंत तो वैसा होना ही था.अगर इस कथानक को सुखांत कर दिया जाता तो यह पूरा कथानक 'फ़िल्मी' हो जाता. वास्तविकता में 'सिल्क' के साथ ऐसा हुआ और इसलिए यह महज़ एक चित्रकथा न होकर हमारे समाज का सच्चा कथानक है.जिस तरह उसने अपनी तेज़ रफ़्तार जिंदगी में सब कुछ पाया और खो भी दिया ,वह भी कोई नई घटना नहीं है.


वास्तव में फिल्म में लगातार मर्दवादी और भूखे चेहरों पर 'सिल्क' दनादन तमाचे जड़ रही थी और उसका कृत्य कहीं से भी मुँह-छिपाऊ नहीं लगा.हम पुरुषों की मानसिकता और सोच अपने तईं और स्त्री के तईं बिलकुल अलग होती है.हम अपने व्यक्तिगत जीवन में उसे बतौर आदर्श कल्पित करते हैं और मौज,मज़े के लिए दूसरे हैं न.क्या मनोरंजन करने वाले ऐसे लोग दूसरी दुनिया से आयेंगे ? हमने उसके तमाचे को कई बार महसूस किया और फिल्म के अंत में वह सारा जोश,कुत्सित भावना हवा हो चुकी थी,हम जी भरकर रो भी नहीं  पा  रहे थे क्योंकि 'सिल्क' जैसी स्त्रियों के लिए झूठी,दोहरी मर्दवादी सोच ज़िम्मेदार जो है. हमें अपने से ही 'घिन' सी आने लगी.क्या ऐसा ही हमारा मर्द-समाज है जो सोचता कुछ है,लिखता कुछ है,दीखता कुछ है,करता कुछ है ?

मेरे लिए 'डर्टी पिक्चर' गन्दी और मनोरंजक नहीं रही,इस फिल्म ने हमारा,आपका बहुत कुछ उघाड़ दिया है !

19 दिसंबर 2011

ये है अपना बैसवाड़ा !

बैसवारा ( बैसवाड़ा )  में रहने के बावजूद इसके बारे में कई धारणाओं और प्रवृत्तियों से अनभिज्ञ रहा हूँ.वहाँ जन्म लेने से स्वभावगत विशेषताएं भले आ गईं हों पर हमेशा यह जिज्ञासा बनी रही कि आखिर इसका इतिहास ,इसकी संस्कृति क्या है? इस बैसवारे ने हर क्षेत्र में अपना अद्भुत योगदान दिया है.जहाँ आज़ादी के आन्दोलन में चंद्र शेखर आज़ाद,राणा बेनी माधव,राजा राव राम बक्स सिंह  आदि अगुआ रहे,वहीँ मुंशीगंज का किसान-आन्दोलन भी खूब सुर्ख़ियों में रहा.साहित्य का तो प्रचुर भंडार रहा बैसवारा. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी,महाकवि निराला,भाषाविद व आलोचक डॉ.राम विलास शर्मा,भाषा-विज्ञानी पंडित रघुनन्दन प्रसाद शर्मा ,हसरत मोहानी का नाम तो हिंदी साहित्याकाश में दर्ज है ही ,शिवमंगल सिंह 'सुमन' और मुनव्वर राणा जैसे कवि भी अपना परचम  लहरा चुके हैं. इसी बैसवारे के बारे में कुछ तथ्य डॉ. राम विलास शर्मा जी ने निरालाजी की जीवनी "निराला की शक्ति-साधना' में उद्घाटित किया है,वह उल्लेखनीय है:

अवध का पछाहीं भाग  बैसवाड़ा कहलाता है.उन्नाव और रायबरेली  जिलों के लगभग डेढ़ हज़ार वर्गमील के इस इलाके में बसी हुई जनता अपनी बोली ,अपनी लोक-संस्कृति ,अपनी ऐतिहासिक परम्पराओं पर बड़ा अभिमान करती है.यहाँ के लोग अपने जीवट और हेकड़ी के  लिए विख्यात हैं.भारतेंदु ने  बैसवाड़े  की यात्रा के बाद लिखा था  कि यहाँ का हर आदमी अपने को भीम और अर्जुन समझता है.इनकी भाषा ही कुछ ऐसी है कि लोग सीधे स्वभाव बात कर रहे हों तो अजनबी को लगेगा कि लड़ रहे हैं.ब्रजभाषा का  गुण मिठास है,बैसवाड़ी का पौरुष.  बैसवाड़े  का शायद  ही कोई घर हो,खासकर बाम्हन-ठाकुर का,जिसमें कोई फौज में सिपाही,हवलदार या सूबेदार न रहा हो !


बैसवाड़ा के अतीत की चर्चा करते हुए आगे ज़िक्र है....चौपाल में  आल्हा जमने पर आधा गाँव इकठ्ठा हो जाता ;नौटंकी देखने दूर-दूर के गाँवों से मनचले जवान टूट पड़ते.ताजियों में हिन्दू भी शरीक होते थे.अवधी में जब मुसलमान  मर्सिये गाते थे,तब सुनने वाले धर्म की बात भूलकर काव्य-रस में डूब जाते थे.


दिवाली की रात खेतों में दिए जलाकर किसान 'धरती माता जागो' की पुकार लगाते. कतकी के पर्व पर सैंकडों  बैलगाडियां घुंघुरू  बजाती गंगा की ओर दौड़ चलतीं.किसान होली में नए अन्न की बालें भूनते ,अलैया-बलैया गाँव की सीमा के  बाहर भगाते,ढोल-मंजीरे के साथ फाग गाते हुए निकलते.


गंगा,लोन,सई नदियों से सींची हुई  बैसवाड़े  की धरती उपजाऊ है. यहाँ की घनी अमराइयों में कोसों तक बौर महक उठते हैं,चाँदनी रात में सफ़ेद धरती पर चुपचाप रसभरे महुए टपकते हैं,कोल्हू में ईख पेरी जाती है,कड़ाह में रस  खौलता है,चीपी,पतोई,राब की अलग-अलग मिठास की चर्चा होती है,तालों में कहीं लाल-सफ़ेद कमाल,रात में खिली हुई कोकाबेली,भीगी हुई सनई  की  गंध,ज्वार के पेड़ों में लिपटी हुई कचेलियों का सोंधापन,जाऊ और गेहूँ के खेतों में शांत ,बहता हुआ ,पुर से निकला हुआ,कुएं का पानी-कोई आश्चर्य नहीं कि यहाँ के लोगों को अपनी धरती से बड़ा प्यार है जिसे वे अकसर  तब समझते हैं  जब उन्हें बैसवाड़े  से दूर कहीं रहना होता है !


सच मानिए ,यह सब पढ़कर ,जानकर आज बैसवाड़े से दूर रहकर भी उतना ही सच्चा और अपना लगता है.यहाँ की स्वभावगत विशेषताओं को उजागर करने  के लिए रामविलास जी का विशेष आभार.निराला के ऊपर इस  बैसवाड़े का क्या असर पड़ा,इस बारे में फिर कभी !

16 दिसंबर 2011

सबके अपने रंग !!

आज कुछ ऐसा लिखें 
ये कलम तोड़ दें हम !
बहती हुई धारा का  ,ये 
रुख  मोड़  दें हम !
शेर की मांद में  घुसकर ,
जबड़ों  को  ही तोड़ दें हम  !


जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते  रहेंगे  !
राह की खाई को  पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम  !


दिन  सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से  वे निकलकर 
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे  हम,
सांप को यूँ  छोड़ दें हम ?




...और चलते-चलते एकठो निठल्ला-चिंतन  !




झील जो सूखी भर आई ,
नन्हें-मुन्नों  की है  माई,
अब नहीं चिंतित हैं  मुन्ने,
गोद में ही सो रहेंगे,
इस ठिठुरती ठण्ड में 
बस रजाई ओढ़ लें हम !


.......और ये देखिये अपने निठल्लू अली मियाँ ! क्या फरमाते हैं !


भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)

राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)

एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)


बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)




12 दिसंबर 2011

लेखक बड़ा या ब्लॉगर ?


 बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रहा है.बाज़ार  या मेले जाता तो कोई खाने की चीज़ न लेकर एक-दो किताबें ज़रूर धर लेता ! किताबों या पत्रिकाओं की दुकान पर जाना निश्चित था.साहित्यिक पुस्तकों का पढ़ना अब भले ही कम हो गया हो,पर समाचार पत्रों  (एक दिन में कई-कई ) का क्रेज बदस्तूर जारी है !लिखने की हुडक भी तब से लगातार जारी है,पर पहले डायरियों में,फिर अख़बारों,पत्रिकाओं में 'संपादक के नाम पत्र' लिखकर अपनी छपास की प्यास बुझा लेते थे.अब जब से यह ब्लॉगिंग का प्लेटफॉर्म  मिला है,न कोई छपने-छपाने की आशंका,काट-छाँट का डर और न हर्रा-और फिटकरी की खोज ! विचार जब उबलने शुरू हो गए ,की-बोर्ड पकड़कर खटर-पटर करने लग गए !


ब्लॉगिंग के क्षेत्र में आकर हम 'लेखक' कहलाने का भी अवर्णनीय आनंद उठाने लगे पर क्या एक ब्लॉगर एक लेखक भी है ,इस विषय में ज़रूर मेरी कुछ मान्यताएं अब बन गयी हैं लेखक जब लिखता है उसे गंभीरता और साहित्यिक -स्पर्श देता  है, लिखने के बाद उस पर किसी प्रतिक्रिया की दीर्घकालीन अपेक्षा रखता है ,उसकी प्रतिक्रिया देर से आती है तो उसका प्रभाव भी चिरकालीन या सदा-सर्वदा रहता है,उसके लेखन से उसके सहृदयता की पहचान मुश्किल होती है,लेखक अपने पाठक से सीधे संवाद की स्थिति में नहीं रह पाता,ऐसे में उसका लेखन एकपक्षीय होता है.लेखक के पाठक ज़्यादातर सिर्फ पाठक होते हैं ,लेखक नहीं ! इसलिए उसका पढ़ा जाना पारस्परिक आदान-प्रदान नहीं होता !


लेखक लगातार अच्छा  लिखने से ही महान बन पाता है, इस वज़ह से उसमें अहंकार का इलहाम भी नहीं आ पाता  या देर से आता है.लेखक तथ्यपूर्ण लिखने का अधिकतम प्रयास करता है क्योंकि उसके एक बार लिख लेने के बाद संशोधन की गुंजाइश सुगम नहीं होती.लेखक का विस्तार व्यापक होता है और वह भी बिना किसी नेटवर्क के ! पाठक के लिए लेखक एक सेलेब्रिटी हो जाता है.उसके लिखे का अर्थ होता है और वह अर्थ भी पाता है !लेखकों के भी गुट होते हैं पर इनसे पाठकों का ज़्यादा लेना-देना नहीं होता ! ये गुट उन्हें पुरस्कार दिलाने के काम भले आते हैं !


एक ब्लॉगर जब चाहे ,जितना चाहे लिख सकता है. एक नहीं दर्जनों ब्लॉग बना सकता है,भले ही उनमें लिखना कम या निरर्थक-सा रहे.साहित्यिक-स्वाद भी मिल सकता है पर गंभीर और उत्तम कोटि का साहित्य ढूँढना मुश्किल-सा है.निरा साहित्य पढ़ने के लिए नामी-गिरामी और स्थापित लेखक (मुंशी प्रेमचंद,निराला,प्रसाद आदि )कहीं बिला थोड़ी गए हैं.ब्लॉगिंग  हलके-फुल्के लेखन और मनोरंजन का भरपूर जरिया है .इसी आड़ में कई लोग अपनी निरर्थक-भड़ास भी उडेलने लगते हैं,पर उन्हें न पढ़ने का विकल्प तो है ही ! यदि आप टीपों की संख्यात्मकता के प्रति संवेदनशील नहीं हैं तो कुछ अच्छे और  साहित्यिक ब्लॉग भी मिल जायेंगे !


ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी खूबी यह है कि आप इसके ज़रिये अपने पाठकों (जो स्वयं ब्लॉगर होते हैं) से सीधा जुड़े होते हैं. अपने लिखे पर उसकी त्वरित-प्रतिक्रिया ले-दे सकते हैं.हालाँकि ,ज़्यादातर मामलों में यह संवाद दो-तरफ़ा होता है.यदि कहीं आप टीपते हैं ,तभी प्रति-टिप्पणी की  सम्भावना अधिक  होती है.थोड़ी-बहुत नकारात्मकता के बाद भी यह संवाद-शैली इसको दस्तावेजी-लेखन से बेहतर बनाती है.


ब्लॉगिंग का एक स्याह-पक्ष यह भी है कि थोड़ा-सा गरुआ जाने पर आप की आत्मीयता और सहृदयता की पोल भी खुल जाती है.यदि आप आत्म-श्लाघा नामक बीमारी से प्रेरित हो गए तो आप कई लोगों के प्रेरक भी नहीं रह पाते. जहाँ लेखक केवल लिखकर प्रेरणा देता है,वहीँ इस विधा में लिखना और टीपना दोनों आवश्यक हो जाते हैं. कुछ लोग अपने को लिखने से भी बड़ा मानने लगते हैं जबकि कोई भी लिक्खाड़ उतना ही आदर्शवादी,सहृदय होता है जितना वह अपने लेखन में दर्शाता है. इस तरह ब्लॉगर को मानवीय संवेदना-युक्त  होना ज़्यादा आवश्यक है,क्योंकि उसकी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता  संख्यात्मकता पर अधिक आधारित हो सकती है,गुणवत्ता पर कम !


इस तरह ब्लॉग-लेखन आपसी संवाद का जरिया ज्यादा है,साहित्य भूख मिटाने का कम.अब ब्लॉगिंग की धमक प्रिंट-मीडिया ने भी महसूसी है,लगभग हर समाचार-पत्र नियमित रूप से ब्लॉग-पोस्टें छाप रहे हैं. इसलिए इधर ब्लॉग-लेखन में भी गंभीरता आई है.लेकिन एक ब्लॉगर को लेखक समझ लेना भरम ही है और जितनी जल्दी यह भरम मिट जाय ,ब्लॉगिंग सुखद ,आत्मीय और पारिवारिक लगेगी !


9 दिसंबर 2011

चार क्षणिकाएँ !

(१ )

भ्रष्टाचार 
मुँह बाए खड़ा है,
हमारी उखड़ती  साँसों को गिनता,
जान के पीछे पड़ा है,
सब्र के आगे अड़ा है !!
साभार:गूगल बाबा 


(२)


नेता 
अब ऐसा विषय है,
सोचने में भी प्रलय है,
कह दिया कुछ जो इन्हें ,
सुकून का अंतिम  समय है,
हर तरफ पहरे हमारे 
और पहरों में भी भय है !!


(३ )


राजनीति
सबकी चहेती,
सबको इसी से प्यार है,
जो गुलाटी मार ले,
वह बची सरकार है !
देश है अब 'सेल ' पर ,
इससे न  सरोकार है ,
व्यापारी को दरकार है,
उसी की पैरोकार है !




(४ )

एक बूढ़े से
क्रांति की उम्मीद में हम
लगातार उसको ताक रहे हैं,
अँधेरी कोठरी में चंद जुगनू लिए 
हम झांक रहे हैं .
रोशनी जब चीरकर घुस आएगी ,
इस अँधेरे की तभी,
सचमुच में शामत आएगी !!






5 दिसंबर 2011

कुछ कह नहीं पाता !

कुछ लिख नहीं पाता ,कुछ कह नहीं पाता,
इस माहौल  में भी  तो,  मैं रह नहीं पाता ! १!


हम  तुमको न समझे थे ,तो कोई बात नहीं,
तुम्हीं हमको बता देते ,मैं कह नहीं पाता !२ !


एक-एक करके सारी , रुचियाँ बदल गईं ,

कभी चल नहीं पाता,मैं  रुक नहीं पाता !३ !


तुम्हारे खून की हर बूँद हमको चाहिए,
खिलाफ़  उठती  आवाजें,मैं सह नहीं पाता !४ !


रोशनी की हर किरन ,मेरे इशारों पर,
आँधी की आहट को,मैं सुन नहीं पाता !५  !


इस वक़्त को बाँधा हुआ है हाथ से,
सोते हुए  ये सोचता हूँ,मैं जग नहीं पाता !६ !





ये देखिये,अपने अली साहब का अलग रंग....पैरोडी के रूप में !




ali ने कहा…





शायरे उल्फत हूं मैं ,जब इश्क फरमाता हूं मैं !
लिख नहीं पाता कभी खामोश रह जाता हूं मैं :)

मैं तुम्हें समझी नहीं ये कह निकल लेती हो तुम !
क्या बताऊँ किस कदर खुद ही पे झुंझलाता हूं मैं :)

देख कर बदली हुई रूचियां तुम्हारी खीज कर !
शोक में रहता कभी पत्नी को हड़काता हूं मैं :)

तुमको हमारे खून की हर बूँद क्योंकर चाहिए !
तेरे कूंचे में पिटा ,तुझपे मिटा जाता हूं मैं :)

तुमसे पहले रौशनी और उससे पहले थी किरन !
अब तुम्हारा हुस्न है , अंधा हुआ जाता हूं मैं :)

30 नवंबर 2011

जब हम गमज़दा हो जाएं !

ज़िन्दगी में कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं कि हमारा मन  चाहकर भी प्रफुल्लित नहीं होता. जाने-अनजाने ऐसे माहौल में हम अपने को घिरा पाते हैं जिसका मुफ़ीद कारण हमें भी नहीं मालूम होता ! इसकी एक ही वज़ह हो सकती है कि कुछ घटनाएँ या बातें अप्रत्यक्ष ढंग से हमारे दिल पर आघात करती रहती हैं और हम उनको टालते हुए उन्हें नाकुछ सिद्ध करने में लगे रहते हैं.कहते हैं कि जब कोई ख़ुशी होती है तो वह चेहरे से अपने आप झलकती है और इसी तरह यदि कोई अंदरूनी टीस या कोई बात कुरेद रही होती है तो आप लाख बचने का यत्न करें,चेहरा सच बोल देता है.ऐसे में आप अपने दिल को किस तरह बरगलाएं,समझाएं यह आपके व्यक्तित्व और रूचि के कारण  अलग-अलग तरीके से हो सकता है.


जब इस तरह का ज्यादा उहापोह होता है तो अलमारी में सुंची हुई  पुरानी डायरियों को निकाल कर,झाड़-पोंछकर  ,पीले पड़ चुके  पन्नों को  पलटने लगता हूँ.कुछ ऐसा ढूँढने लग जाता हूँ कि मेरा सारा इलाज़ यहीं मिलेगा !  जो बातें अतीत में मुझे ठीक नहीं लग रही थी ,उन्हीं को आज के ग़म को ग़लत करने का सामान बनाने की कोशिश करता हूँ.अपनी शेरो-शायरी अचानक अच्छी लगने लगती है ,पुराने लफ्ज़ नए मायनों में बदल जाते हैं.जो कभी दर्द देते थे,वे दवा बन जाते हैं. कई चीज़ें आज के अर्थों में बेमानी लगती हैं,पर रूह को कुछ सुकून ज़रूर देती हैं !उन्हें कई-कई बार पढता हूँ,कुछ अच्छा लगता है तो कुछ बकवास-सा ! बहरहाल इस तरह मैं थोड़ी देर अपने से ही मिल लेता हूँ.यह काम पुराने अलबम खोलकर भी किया जा सकता है !


ऐसे में ख़ास दोस्त भी इस माहौल  में याद आते हैं.उनसे मिलकर या फ़ोन कर मन हल्का किया जा सकता है !  किसी लेखक का जीवन-चरित पढ़कर भी मन को दिलासा दी जा सकती है  पर जब यह उदासी  ज़्यादा गहरी हो तो संगीत के पास जाना स्वाभाविक-सा लगता है.संगीत में इस 'मूड' के लिए एक अच्छी-खासी रेंज है.दर्द-भरे नगमें हमें शायद इसीलिए पसंद हैं . सामान्य हालात में भी मैं इस तरह के गीत सुनता हूँ और जब अन्दर छटपटाहट  हो तब तो माहौल बिलकुल मुफ़ीद हो उठता है.पहले अकसर मैं रफ़ी,मुकेश ,गीता दत्त आदि को सुनता रहता था,पर अब ग़ज़लों पर ही आकर टिक गया हूँ.इसमें मेहंदी हसन और मुन्नी बेगम खासतौर से मेरे रंज-ओ-ग़म में शरीक होते हैं.मैंने आड़े वक़्त के लिए इन दोनों के कई गानों को अपने पास संजो रखा है.
इन्हें सुनते हुए हमें अपना ग़म हल्का लगता है और यह महसूसता है कि हमारे दर्द को आवाज़ मिल गई है !


इस माहौल के लिए मेरा एक पुराना शेर अर्ज़ है:

                                  हम किस-किसको सुनाएँ दास्ताँ अपनी,
                                      हर किसी के साथ ,ये अफ़साने हुए हैं !



बहरहाल मेरे साथ आप भी थोड़ा ग़मगीन हो जाएँ !

बहादुर शाह ज़फर की यह ग़ज़ल मेहंदी हसन साब की आवाज़ में


27 नवंबर 2011

ब्लॉगिंग के साइड-इफेक्ट !

इधर लिखते हुए इतना समय तो हो ही चुका है कि ब्लॉगिंग के बारे में अपने उच्च विचारों से  भाइयों  का ज्ञानवर्धन कर सकूँ ! सबसे ज्यादा बात जो मुझे महसूस हुई वह यह कि यहाँ पर लिखने से ज़्यादा टीपने को लेकर  बड़ी संवेदनशीलता है.इसके लिए इतनी मारामारी  है कि बक़ायदा कई मठ स्थापित हो चुके हैं. आप यदि नए-नए ब्लॉगर हैं तो आपको इन्हीं में से किसी एक में घुसना होगा.अब यह आपकी योग्यता और क़िस्मत पर निर्भर है कि वह मठ आपकी प्रतिभा को जल्द परख ले. आपका लिखते रहना से ज़्यादा ज़रूरी है ,टिपियाते रहना.आप बड़ी संख्या में टीपें पा रहें हैं तो ज़रा कुछ दिन 'आउट -स्टेशन' होकर देखिये या विश्राम करने की ज़ुर्रत करिए,सारा दंभ हवा हो जायेगा ! दो-चार रहमदिल दोस्त ही नज़र आयेंगे,आपकी पोस्ट टीपों के नाम पर पानी माँगेगी ! हाँ,पोस्ट लिखने के बाद यदि गणेश-परिक्रमा-स्टाइल में सौ पोस्टों पर भ्रमण कर आयेंगे तो निश्चित ही आपको साठ-सत्तर 'सुन्दर-भाव',चिंतनपरक आलेख' और 'प्रभावी-प्रस्तुति' के रूप में ज़वाबी-प्रसाद मिल जायेगा.आपको भी ख़ुशी होगी कि कोई नया  ब्लॉगर (सयाना नहीं) यही समझेगा कि वाकई इस बन्दे में दम है !


टीपें पाने के उद्यम भी अजब-गज़ब हैं.सबसे सीधे लोग तो पोस्ट लिखकर कई जगह एक-एक लाइन लिखकर आ जाते हैं,ज़्यादा हुआ तो पोस्ट-लेखक कुछ लाइनें (जो उसे खुद समझ नहीं आतीं) कोट करके 'क्या खूब ' या 'सुन्दर प्रस्तुति' चेंपकर पोस्ट-लेखक को कृतार्थ  कर देंगे !इस कोटि से थोड़ा सयाने वे होते हैं जो  सम्बंधित पोस्ट पर सुन्दरता की  डिफॉल्ट-टीप  लगाकर अपनी नई पोस्ट की करबद्ध सूचना देंगे !अब वह यही समझे बैठे  हैं  कि वह यदि खुले-आम  ऐसी अभ्यर्थना नहीं करेंगे  तो ये महोदय आयेंगे ही नहीं.तीसरी कोटि के लोग वे हैं ,जो सयाने होने के साथ कुछ काइयाँपन भी लिंक के रूप में बिखेर देते हैं.वे यह समझते हैं कि जहाँ टीप रहे हैं,वहाँ का पोस्ट-लेखक गूगल-सर्च के द्वारा भी उस तक नहीं पहुँच पायेगा !


इस तरह टीपें हासिल करने की ये सीधी-सादी युक्तियाँ रहीं.कई बार तो लोगों को मेल कर,फोन कर(हाल-चाल के बहाने ,इसमें हाल कम चाल ज्यादा? ) भी दोस्ती के हवाले भी टीपें हथियाई जाती हैं! पर कई टीपबाज इतने शातिर हैं कि इतना सब होने के बाद भी उनकी आमद उस बेचारे की पोस्ट पर नहीं होती.इधर जितनी कम टीपें पोस्ट में दिखती हैं उतनी ज़्यादा उसकी 'हार्ट-बीट' बढ़ती है !अगर कुछ टीपबाज़  इतने शातिर हैं तो टीप हथियाने वाले भी खूब शातिर और जागरूक हो गए हैं. ऐसे लोग दाढ़ी बनाने वाली पोस्टों से लेकर टंकी पर चढ़ने व ब्लॉग-जगत को 'अंतिम-प्रणाम ' कहने की नौटंकी में माहिर हो गए हैं !

कुछ ब्लॉगर ,जो अपने को लेखक कम सेलेब्रिटी अधिक समझ बैठे हैं,इतने गैरतमंद हो उठते हैं कि अपने से  कमतर किसी ब्लॉग पर जाने को वे अपना अपमान समझते हैं.कोई बार-बार भी उनके ब्लॉग पर जाकर गंभीर-टीप देता है तो भी वह उसको 'अगंभीर' ही समझते हैं,ज़्यादा हुआ तो एक-आध स्माइली ठोंक कर चले जायेंगे  ( शायद यह बताना कि इस 'कूड़े' पर ठीक से हँसा भी नहीं जाता) !वे इस बहाने जताते हैं कि वे केवल लिखने और पढ़वाने भर के लिए अवतरित हुए हैं,प्रेरणा देना या उपदेसना उनके लेखकीय-कर्म में शामिल नहीं है.भले ही वह कई 'कुपोस्टों' पर जाकर ,जल-जलाकर लौटे हों.कुछ ऐसे भी सयाने टीपबाज  हैं जो किसी पोस्ट को पढते हैं,घोखते हैं,मजे लेते हैं पर मुँह से बकुर नहीं फूटेगा  और कन्नी काटकर चुप से ,बिना टीपे ऐसे निकल जाते हैं कि कहीं उन्हें करंट न लग जाए या इससे उनकी टीआरपी न गिर जाए !


कुछ लोग तो इतने फ़ुरसत में होते हैं कि खुराफ़ात के लिए अपनी कलम और स्याही बचा के रखते हैं .जो उनके अपने मठ के चेले होते हैं उन्हें भी वे नहीं बख्शते  ! कभी किसी को अपना अलग मठ बनाते देखते हैं तो सन्निपात की अवस्था में हो जाते हैं,अपने सारे हथियार खूँटी में टाँग कर उस निरीह-ब्लॉगर  को अपने पैरों पर खड़ा होने की गज़ब-शक्ति देते हैं ! कुछ ब्लॉगर तो मौके की तलाश में रहते हैं,किसी ने भी कुछ उन्नीस-बीस लिखा तो बिना लाग-लपेट के, उसके आगे-पीछे का ,अपनी यथाबुद्धि द्वारा ,संदर्भ देकर ,विलोप हो जाते हैं.ऐसे और भी कई तरह के ब्लॉगर सक्रिय हैं जो तथाकथित रूप से निष्क्रिय है पर उनके अपने मठ की जब पोस्ट आती है तो अपनी कलम घसीट ही देते हैं.


इसके उलट कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके यहाँ यदि गलती से भी आप कभी चले गए तो ज़बरिया आपको अपना लेंगे,न-न कहते-कहते अपने मठ की दीक्षा भी दे देंगे और बिला नांगा आपको पढ़ते रहेंगे,टीपते रहेंगे और आप इनसे कुछ सीखते भी रहेंगे.इनके पास पता नहीं कौन-सा गरम-मसाला  होता है कि एक ठंडी-सी पोस्ट में भी कमाल का उबाल ला देते हैं.टीपने वाले  बार-बार इनके और पोस्ट के संपर्क में रहते हैं.कुछ लोग तो इतने भोले हैं कि किसी घटना -दुर्घटना से इनका लेना-देना नहीं होता.ये शांतिप्रिय ढंग से यहाँ,वहाँ टीप देते हैं,टीप पाते है,बस...इत्ते से संतुष्ट हो जाते हैं !


ब्लॉगिंग-जगत में कई तरह की प्रवृत्तियां सक्रिय हैं.अब यह आप पर निर्भर है कि इन प्रवृत्तियों में आप अपने को किसके नज़दीक पाते हैं.टीपों को लेकर इतना घमासान और ऐसी दुरभिसंधियां चलती हैं कि निरर्थक  पोस्टें जहाँ शतक बना लेती हैं,(भले ही वह डिफॉल्ट-टीपें हों ) वहीँ कई अच्छे लेखक ,बिना टीप किये ,अपनी पोस्ट में एक अदद टीप को तरसते हैं.हम पोस्ट को लेकर सेंटीमेंटल हों या टीप को ,यह आपको,हमको,सबको सोचना है.सोचो और जल्दी टीपो,नहीं तो हम सेंटिया जायेंगे !



जेहे-नसीब श्रीमान अनूप शुक्ल जी (फुरसतिया जी) पधार चुके हैं.इस विषय पर उनकी लेखनी का कमाल देखिये,हमने तो झलकी दी  है,उन्होंने तो पूरा महाकाव्य रच डाला है ! आभार सहित 

25 नवंबर 2011

थप्पड़ रोज़ खाए हम !

उनके पास है मरने का हुनर-ओ-इल्म ,
ठीक से जीना भी नहीं, सीख पाए हम !१!


उस्ताद हैं वे, सबको भरमाने की कला  में,
सफ़र में न किसी एक को,रोक पाए हम !२!


कई साल से मसल्सल ,वे पीटते  रहे,
गाँधी के नाम थप्पड़ ,रोज़ खाए हम !३!


महफ़िल में आज छाये ,मेरे ही करम से,
गीतों में सुर चढाते ,जो छेड़ आए हम !४!


चलते ही जा रहे,बड़ी तेज़ चाल से,
कहना न फिर कोई,न संभाल पाए हम !५!


शतरंज की बिसात पर,तुम जीत तो गए,
पर किसी  मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!






20 नवंबर 2011

ब्लॉगिंग जब नशा बन गया !

पहले बता चुका हूँ  कि ब्लॉगिंग का विधिवत श्रीगणेश प्रवीण त्रिवेदी जी के मार्ग-निर्देशन में हुआ.इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता यह सफ़र शुरू हुआ.इस दरम्यान मैंने कई ब्लॉग्स झाँके,टटोले और कहीं टिके भी ! मेरे ब्लॉग पर प्रवीण पाण्डेय जी  का आना उल्लेखनीय रहा.मैं इस वज़ह से उनके ब्लॉग पर पहुँचा और बिलकुल अलग अंदाज़ ,स्टाइल का  अनुभव महसूसा ! प्रवीण जी का ,हर टीप का उत्तर देना ,उन्हीं  से सीखा,बाद में उन्होंने यह कर्म बंद कर दिया तो अपुन ने भी. अब हर टीप के बजाय ज़रूरी टीप का ही उत्तर देता हूँ !उन्होंने एक नवोदित-ब्लॉगर को जिस तरह नियमित रूप से (बिला-नांगा किये )  सहयोग किया ,इसका बहुत आभारी हूँ !


इस बीच ई पंडित से भी यदा-कदा तकनीक के बारे में बातें होती रहीं.निशांत मिश्र से भी परिचय हुआ .ज़बरदस्त ब्लॉगर अजय कुमार झा  से  भी संपर्क हुआ और मुलाक़ात हुई ! डॉ. अमर कुमार जैसे वरिष्ठ भी मेरे ब्लॉग पर आकर आशीर्वाद दे गए,जिससे बड़ी प्रेरणा मिली .इसी मिलने-मिलाने के क्रम में भाई अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी से विशेष जुड़ाव हुआ और कई मुलाकातें भी !भाई अमरेन्द्र के संपर्क से श्रीयुत अनूप शुक्ल जी  (फुरसतिया) से संपर्क सधा जो आगे जाकर एक क्रान्तिकारी घटना सिद्ध हुई ! मुझे अविनाश वाचस्पति जी  से भी विशेष स्नेह मिला,इंदु पुरी जी  जैसी लौह-महिला (असली वाली ) ने भी बड़ी शाबाशी दी.इन सबका भी विशेष आभार !



जैसा मैंने बताया कि फुरसतियाजी के माध्यम से जो संपर्क और जुड़ाव मुझे हुआ वाक़ई में उसने मेरी ब्लॉगिंग की सोच,शैली और रंग सब पर अहम् असर डाला.पहले मैंने ब्लॉगिंग को शौक़िया शुरू किया था  बिलकुल श्वेत-श्याम की  पुराने ज़माने की टीवी-स्क्रीन जैसा,पर उस एक संगत ने ब्लॉगिंग में कई तरह के रंग भरे और इसकी सेहत भी दुरुस्त करी ! औपचारिक लेखन से शुरुआत करने वाले एक नए कुदाड को ब्लॉगिंग के अखाड़े का एक खाया-पिया पट्ठा बनाने में इस गुरू ने अहम् रोल अदा किया.ये हमारे आदरणीय और हर कदम पर प्रोत्साहित करने वाले और कोई नहीं ब्लॉग-जगत के 'मर्द-ब्लॉगर' डॉ. अरविन्द मिश्र जी हैं.उनसे प्राप्त हुए अनुभव और बदलाव को बताने से पहले मैं यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि  ब्लॉगिंग कोई अखाड़े का मैदान नहीं है और हम यहाँ कुश्ती लड़ने नहीं आये हैं,बल्कि हमारा प्रशिक्षण कुछ ऐसा हुआ कि  हम बिना नफ़ा-घटा  सोचे ,अपने भावों को निर्भीकता से प्रकट कर सकें !


जब मिश्रजी से हमारा संपर्क हुआ तो वह भी अप्रिय प्रसंग से ,पर बाद में तो हम ऐसे घुल-मिल गये  कि  हमने आपसी बोलचाल में औपचारिकता को भी तिलांजलि दे दी .मेरी बोलचाल में 'सुनो,देखो,चलो,करो...'आदि शब्द बैसवारा के अपने सहज-स्वभाव से उत्पन्न हैं,पर मिश्राजी को यह कतई नागवार गुजरा और इतना कि इस बहाने उन्होंने मेरा ''प्रमोशन ' भी कर दिया.मिश्राजी ने मुझे लिखने  का ऐसा मन्त्र दिया कि ब्लॉगिंग मेरा नशा बन गया.कई पोस्टें उनकी प्रेरणास्रोत रहीं.उनके संपर्क में आने पर दोस्त अधिक और दुश्मन कम (बस दो,कृपया नाम न पूछियेगा) मिले.सतीश सक्सेना जी ,अनुराग शर्माजी  , डॉ.दराल  , देवेन्द्र पाण्डेय जी (बेचैन आत्मा ),पाबलाजी और अपने अली साहब  जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर उन्हीं के संसर्ग में मिले !


जो सबसे ज्यादा बात मुझे प्रभावित करती है वह यह की मिश्राजी का ब्लॉग केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है.यहाँ लेख के बाद बक़ायदा एक लम्बा संवाद चलता है जो कई बार बड़ा रुचिकर लगता है.दूसरी  जगह इस वज़ह से लोग शायद ही बार-बार जाते हों कि  अब 'इस' कमेन्ट का क्या उत्तर आया ! क्वचिदन्यतोsपि महज़ एक ब्लॉग नहीं बल्कि भरा-पूरा शिक्षण-संस्थान  है,जहाँ सीखने वाले को अपनी भावनानुसार  हर तरह की सीख दी जाती है.उनके पास ऐसा 'मसाला' है जिसे वे अपनी पोस्ट में तड़का देकर लंबे संवाद की नींव रख देते हैं !उनके लेखन में  तंज,चिकोटी और चुटकी तीनों का भरपूर सम्मिश्रण है !


मैंने जो काम शौकिया  शुरू किया था उसे दीवानगी की हद तक अरविन्दजी ने परवान चढ़ाया,जिसके लिए हमें 'घर' से शिकायत भी मिलती रहती है,पर अब यह सब मेरी रूटीन में आ चुका है.यह ऐसा अनोखा संपर्क है कि  जिसमें किसी से मिले बिना ही आप उसके इस हद तक दीवाने हो जाएं ! अमूमन हमारे शौक भी एक जैसे हैं.मेहंदी  हसन और मुन्नी बेगम के हम जहाँ कद्रदान हैं,वहीँ मिश्राजी इनके बड़े वाले 'फैन' ! हाँ ,अभी एक चीज़ से हम महरूम हैं.अभी मिश्राजी ने मुझे दोस्ती के  खिताब से नहीं नवाज़ा है,इस पर वो कहते हैं कि इसका लाइसेंस केवल सतीश सक्सेना जी और अली साब के ही पास है. मैं फिर सोचता हूँ कि जिस तरह वे मुझसे घुलमिल कर बातें करते हैं,मेरी नालायकियों  को नज़र-अंदाज़ करते हैं,वह दोस्ती के सिवा क्या हो सकता है ?बिलकुल 'गुन प्रकटे  अवगुननि दुरावा' की तर्ज़ पर !


मुझे कई बार लगता है कि क्या इस आभासी-दुनिया में मात्र लिखने-लिखाने से भी कोई इतना अपना बन जाता है जो किसी की लेखन-शैली में मूलभूत अंतर ला देता है.अब मैं कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास से कम्प्यूटर के की-बोर्ड से छेड़छाड़ करता हूँ,सहज महसूस करता हूँ,और जो बात सबसे मार्के की है कि खूब निचो-निचो के रस पीता हूँ ,मौका मिलते ही लेखों को पढता और टिपियाता हूँ.

डॉ. अरविन्द मिश्र 
ब्लॉग-जगत ऐसे ही अक्खड और फक्कड ढंग से अलख जगाने वाले लोगों की वज़ह से जिंदा और रस-युक्त है,नहीं तो इसे गंदला और मटमैला करने वालों की भी गिनती कम नहीं है. अरविन्द मिश्र जी से ,हो सकता है कई लोग कुछ बातों में असहमत हों,पर उनका ब्लॉग-जगत में होना हम जैसे प्रशंसकों से ज़्यादा उनके लिए अपरिहार्य है ! वे हैं तो वस्तुतः विज्ञानी लेकिन मानव-मनोविज्ञान पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ है ! विज्ञान  का  उनका अलग  से विज्ञान-ब्लॉग  है !


मेरी ब्लॉगिंग को जहाँ प्रवीण त्रिवेदी जी ने ककहरा सिखाकर शुरू किया,उसे आदरणीय मिश्रजी ने परवान चढ़ाया,उसमें रंग मिलाया !अपने इस गुरू को सादर नमन और शुभचिंतक दोस्त को प्रेमालिंगन !




* अरविन्द मिश्रजी का चित्र उनकी घोर-आपत्ति के बाद बदला गया,क्योंकि उनको आशंका थी कि  कुछ लोग उसे देखकर बिदक सकते हैं.

*जब मिश्र जी के चित्रों पर इतना कौतूहल हो रहा है ,सो हम यहाँ पर लिंक दे रहे हैं,जिससे दर्शनार्थी कृतार्थ हो लें !

17 नवंबर 2011

प्राइमरी का मास्टर :मेरे नज़रिए से !

प्राइमरी का मास्टर का प्रतीक-चिह्न 
ब्लॉग-जगत के चर्चित ब्लॉग्स का  जब भी ज़िक्र होगा,तो प्राइमरी का मास्टर  का एक अहम स्थान ज़रूर रहेगा. पिछली पोस्ट  में हमने अपनी ब्लॉगिंग को गतिमान बनाने व मुख्यधारा में आने के प्रयासों व उपायों के लिए  प्रवीण त्रिवेदी जी  के योगदान की चर्चा की थी .इसके लिए मैं पिछले कुछ समय से सोच रहा था और उस पोस्ट के बहाने उनका मूल्यांकन कतई नहीं करना चाहता था.मैं प्रवीण जी की  तकनीकी सलाहों का बहुत आभारी रहा हूँ और वह पोस्ट महज़ आभार-प्रकटन हेतु थी .फिर भी,डॉ.अरविन्द मिश्र इंदु पुरी जी  और सबसे ज़्यादा अपने  अली साहब  ने मुझे इतना लठियाया  कि प्रवीण जी के बारे में ,उनके ब्लॉग (प्राइमरी का मास्टर ) के बारे में  कुछ और कहूँ  !इस पर  अली साब की टीप जेरे-गौर है,जिसने मुझे  इस पोस्ट  के  लिए प्रेरित किया :



ali ने कहा…
@ संतोष जी ,
अब जब लगभग सारी टिप्पणियां आ चुकी हैं तो कहने में कोई हर्ज नहीं है कि प्रवीण जी पे पोस्ट लिखते वक़्त आपने किंचित हडबडी से काम लिया है ! हुआ ये कि जो उनके गुण दिखने चाहिए वे ही निगेटिव शेड्स की प्रतीति कराने लगे ! अगर कोई बंदा उन्हें पहले से ना जानता हो तो उनके बारे में क्या सोचेगा ? यही कि लंद फंद और ब्लॉग जगत की खुराफातों का आशना या निष्णात व्यक्ति जबकि भाव ये आना चाहिये थे कि उन्होंने आपको ब्लॉग जगत के निगेटिव अंडर करेंट से सतर्क किया ! आपको तकनीकी रूप से सक्षम किया !

बेहतर होता जो एक नवोदित ब्लागर बतौर ही सही उनके किसी बेहतरीन आलेख का लिंक ही दे देते जिसकी वज़ह से आप उनके ओर आकर्षित हुए,उनसे प्रभावित हुए ! खैर अब तो आलेख दो तीन दिन पुराना हो गया सो मेरे सुझावों का कोई मतलब ही नहीं रह गया पर उस दिन उसे पढकर मैं खुद भी हतप्रभ रह गया था ! वे मास्टर हैं , गुणी है इसलिए उन्होंने आलेख की हडबडाहट को महसूस कर लिया होगा वर्ना उनको इससे बेहतर आलेख का हक़ बनता है !

अब चलते चलते एक मजाक...मित्रों को लठियाने से बेहतर है कि उनका लठैत बनके चला जाये :) 




प्रवीण त्रिवेदी जी 


प्रवीण जी जितने बड़े तकनीकी-महारथी हैं उससे भी बड़े पोस्ट-लेखक ! तकनीक की उनकी पोस्टें तो कमाल की हैं हीं,शिक्षा और बच्चों के मनोविज्ञान को उनने बड़े ही उम्दा तरीके से प्रकट किया है !पहले उनके लेखों की विषय-वस्तु और भाषा शैली की बानगी देखते हैं :


इस पोस्ट से उद्दृत ;


.... कक्षा का ढांचा प्रजातांत्रिक हो जिसमें सभी सदस्य अपने आप को स्वतन्त्रजिम्मेदार और बराबर पायें। सभी को अपनत्व महसूस हो और लगे कि यह कक्षा उनकी अपनी है। अध्यापक को लगे कि यह बच्चे उनके अपने हैं और बच्चों को भी महसूस हो कि अध्यापक उनके अपने हैं और सभी को लगे कि विद्यालय उनका अपना हैजैसा कि उनका अपना घर। कक्षा में  आपसी सम्मानप्रेम तथा विश्वास के रिश्तों का एक सूक्ष्म जाल हो जिसमें कक्षा के सभी सदस्य खुशी से सीखें और सीखायें।


एक अन्य पोस्ट से ;

एक अध्यापक या बच्चे के संरक्षक के रूप में हमें कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा अपने अनुभवों को हमारे सामने प्रकट कर सके ...यह तभी हो सकता जब हम उसे उसके अपने बारे में उसे बात करने का अवसर दें| अध्यापक के रूप में हमें यह पूर्वाग्रह हटाना पड़ेगा कि बच्चे की घरेलू और निजी जिन्दगी के अनुभवों का विद्यालयी ज्ञान से कोई अंतर्संबंध नहीं है| जाहिर है .... ऐसे प्रोत्साही माहौल  में ही बच्चे निःसंकोच अपनी बात कह पाने में समर्थ हो सकेंगे| ऐसे माहौल को बनाने केलिए बच्चों एवं शिक्षकों के बीच अपनत्व एवं सहयोगी मित्र का रिश्ता कायम होना अति आवश्यक है। 


उक्त दोनों लेख उम्दा शिक्षण-तकनीक और बाल-मनोविज्ञान  को सही ढंग से समझने के उदाहरण हैं.इन लेखों और ऐसे  अन्य लेखों ने प्रिंट मीडिया   में भी खूब जगह पाई !एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि 'जनसत्ता' ने अपने चर्चित स्तंभ "समान्तर' की शुरुआत ही प्रवीण जी के लेख से करी !

पिछले काफी समय से उनकी कोई पोस्ट नहीं आ रही है,इस पर मैंने जब भी उनसे कहा तो उनका ज़वाब था,"आप जमे रहो महराज,मैं अभी कुछ दिन आराम के मूड में हूँ." इस बीच ऐसा नहीं है  कि वे बिलकुल निष्क्रिय बैठे हैं. गूगल-रीडर और ट्विटर पर चुनिन्दा लेखों या ट्विट्स  को शेयर करना ,महत्वपूर्ण पोस्टों पर टीपना वे लगातार जारी रखे हैं !फेसबुक पर भी ज़नाब खूब सक्रिय रहते हैं ! वे यहाँ  फतेहपुर पेज बनाकर उसमें काफी समय दे रहे  हैं.

इस ब्लॉग-जगत में  कई वरिष्ठ ब्लॉगर हैं जो मुझसे ज्यादा उनको और उनके लेखन-कौशल को जानते हैं.इसलिए अगर उनकी तकनीक और लेखन-कला पर वे लोग कुछ कहें  तो अधिक उपयुक्त होगा ! मैं उन्हें एक अच्छे ब्लॉगर के साथ-साथ सुहृद के रूप में भी मानता हूँ.अब इस पोस्ट के माध्यम से उनसे भी निवेदन है कि प्राइमरी का मास्टर ब्लॉग को पुनः नियमित रूप से पोस्ट-लेखन करें,ताकि तकनीक और शिक्षा सम्बन्धी मार्गदर्शन से हम वंचित न रहें !

प्रवीण त्रिवेदी जी के लिए कुछ वरिष्ठ लोगों का आग्रह कि उनके बारे में और कहा जाय ,यह बताता है कि उनको लेकर लोगों में किस तरह की ललक और  कृतज्ञता का भाव है ! इस ओर मैंने महज एक शुरुआत की है,प्रयास भर किया है ! मुझे लगता है कि अली साब इत्ते  भर से मुतमईन होने वाले नहीं हैं !

एक 'उदीयमान  या  नवोदित ' ब्लॉगर  का  विनम्र -प्रयास  !

14 नवंबर 2011

प्रवीण त्रिवेदी : ब्लॉगिंग के मास्टर !

पिछली सर्दियों में फतेहपुर में !
ब्लॉगिंग से जुड़े तो थे औपचारिक रूप से चार साल पहले ,पर पिछले दो सालों से इससे ज्यादा मुठभेड़ हो रही है.पिछले एक साल से तो यह हमारे रूटीन में आ चुका है और अब पूरी  तरह से इसकी गिरफ्त में हूँ,नशेड़ी हो चुका हूँ. अब इतना समय तो गुजर ही चुका है कि  इसके बारे में कुछ जान सका हूँ  और इस दुनिया के कितने लंद-फंदों से वाकिफ़ हुआ हूँ !


बिलकुल शुरुआत में मुझे इस विधा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था,पर अचानक एक संपर्क ने मेरी ब्लॉगिंग की दुनिया को जैसे पंख दे दिए हों.'हिंदुस्तान' में रवीश कुमार के कॉलम से प्रवीण त्रिवेदी के ब्लॉग प्राइमरी का मास्टर  के बारे में पढ़ा तो सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो गया.यह आकर्षण निश्चित रूप से ब्लॉग के बजाय व्यक्तिगत प्रवीण त्रिवेदी जी के लिए था क्योंकि एक तो वे फतेहपुर के थे और दूसरे अध्यापक थे  ( वैसे त्रिवेदी सरनेम भी आकर्षण की थोड़ी वज़ह तो था ही ) !
बाइक पर प्रवीणजी के साथ गंगा-पुल पर 


मैंने उनके ब्लॉग पर जाना शुरू किया और फोन पर उनसे संपर्क साधा .बातचीत शुरू हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था कि मालूम चला कि वे हमारे एक नजदीकी रिश्ते में भी हैं. बस,फिर तो अपनी गाड़ी ऐसी  चली कि बिना टायर ,बिना हवा खूब कुलांचे मार रही है.समय समय पर वे हमें हर तरह की मदद को तत्पर रहते हैं.वे ऐसे मित्र हैं जो परदे के पीछे से अपना काम पूरी मुस्तैदी से करते हैं.उनने  कई बार हमें ब्लॉग-जगत की ऊँच-नीच भी समझाई और कई दबे छिपे रहस्य भी बताए !


मेरे वर्तमान ब्लॉग की रूपरेखा का पूरा श्रेय प्रवीण जी को है.उन्होंने हर वक्त मेरी मदद करी.यह मदद तकनीकी भी थी और नेटवर्किंग की भी.जहाँ -जहाँ  प्रवीण जी की  इन्टरनेट में प्रोफाइल थी,मैंने झट से वहाँ अपनी भी उपस्थिति दर्ज कर ली.मेरे लिए  नेटवर्किंग बिलकुल अलग कांसेप्ट था इसलिए जिज्ञासा वश या शौकिया जहाँ-तहाँ  हम भी बिखर गए !हालाँकि अब कई ऐसी जगहों की प्रोफाइल व्यर्थ हो गयी हैं !
फतेहपुर में ही ऐसे फोटुआते हुए !


पिछले लम्बे अरसे से प्रवीणजी पोस्ट लिखने के कार्यक्रम को लटकाए हुए हैं पर जल्द ही सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ हम सबके बीच में होंगे.कई पोस्टों पर वे नियमित रूप से अपनी प्रभावी टीपें दे रहे हैं.बीच-बीच में अपनी दुनाली से फायर भी कर देते हैं.


मैं जब भी अपने गृह जनपद रायबरेली जाता हूँ,कोशिश करके उनसे मिलता हूँ.बड़ी ही आत्मीयता से वे मुझे झेलते हैं और अपनी सारी ऊर्जा मुझमें स्थानांतरित कर देते हैं.उनके साथ लगातार संवाद होता रहता है,कोई समस्या आने पर मैं तुरत उनकी शरण में जाता हूँ और यह गुज़ारिश करता हूँ कि भई,इसे अब आप ही ठीक करें,यह मेरे बस की  बात नहीं है, और फिर वे अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरी मुश्किल को आसान बना देते हैं !


यह मेरा सौभाग्य है कि मेरा ननिहाल फतेहपुर में है और मेरी जवानी का प्रथम चरण वहीँ बीता .सन १९८५ से १९९० तक मैं वहाँ लगातार रहा !फतेहपुर की पढाई से जहाँ आज मैं रोज़गार कर रहा हूँ और वहीँ वहाँ के सपूत प्रवीण जी की  मदद से तथाकथित 'ब्लॉगर' भी बन गया हूँ !


ब्लॉगिंग का ककहरा सिखाने वाले प्रवीणजी वास्तव में मेरे लिए प्राइमरी का मास्टर रहे जिन्होंने मेरे लिए ब्लॉगिंग की असल बुनियाद धरी.ऐसे गुरु पर मुझे फक्र है जो मेरा उतना ही दोस्त है !

10 नवंबर 2011

परब बदल गए,मेले छूट गए !

कई बरस बाद अबकी बार कतकी (कार्तिक पूर्णिमा) पर गाँव में हूँ.आने की कोई योजना नहीं थी पर अचानक दो दिन पहले घर से बड़ी अम्मा (दादी) का फोन आया,वो सख्त बीमार थीं और हमें याद कर रही थीं. अभी दिवाली पर जब घर आया था तो उनसे मुलाक़ात हुई थी,पर उनकी  मिलने  की ख्वाहिश ने बेचैन कर दिया और मैं बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के ,गाँव आ गया.वे अब कुछ ठीक हैं ! इस तरह बहुत दिन बाद कतकी पर अपने गाँव में हूँ !


आज सुबह से ही मैं इस त्यौहार के बारे में सोच रहा हूँ.कहीं भी कुछ रौनक या उल्लास नहीं दिखती है.सब कुछ सामान्य-सा लग रहा है.हाँ,घर में ज़रूर पूड़ी,कचौड़ी और रबड़ी  के व्यंजन तैयार किये गए हैं.गंगा-स्नान के लिए सोच रहा था कि जाऊँगा,पर न मन ने हुलास भरी और न दूसरों का संग मिला.अब अगर जाऊं तो बाइक या साईकल के अलावा कोई विकल्प नहीं है.साईकल चलाना अब छूट गया है,बाइक अपन कभी चलाये नहीं !सो,घर में ही दो बूँद गंगाजल छिड़ककर यहीं पर गंगा-स्नान का पुण्य ले लिया और पूड़ी-रबड़ी का आनंद भी !


 मुझे पचीस-तीस साल पहले की गाँव की कतकी आज बहुत याद आ रही है.लोग महीने भर पहले से बैलगाड़ी को तैयार करने में लग जाते थे. बैलों की पगही,गाड़ी की पैंजनी और जुआं( जिस पर बैल अपना कन्धा रखते हैं)सँभाले जाते .लढ़िया  (बैलगाड़ी) की इस तरह पूरी साज-सज्जा होती और हम सब कतकी की सुबह का बेसब्री से इंतज़ार करते. इस दिन सुबह चार बजे से घरों में खाने की तैयारियाँ होने लगती और सात बजे तक हम गंगा-स्नान को निकल जाते .वहाँ स्नान करके घाट के किनारे ही रबड़ी का लुत्फ़ लिया जाता और लौटते समय मेला घूमते.दो-तीन घंटे मेला देखने के बाद घर लौटते वक़्त रास्ते में गाड़ियों की आपस में दौड़ भी होती.सड़क किनारे डमरू,किडकिडिया ,घोड़े,हाथी ,जांत आदि खिलौने बिकते, जिन्हें हर बच्चे को लेना ज़रूरी-सा था.


इस तरह कतकी का आकर्षण स्नान,मेला और खिलौनों की वज़ह से बना रहता और बैलगाड़ी में घर-परिवार के साथ पूरे परब का मज़ा लेते ! आज के बच्चों को उसकी तनिक भी झलक नहीं मिलती है और इसलिए उन्हें ऐसे परब महज़ खान-पान का एक विशेष दिन बनकर रह गए हैं. शहरों में यह 'कल्चर' पहले से ही नहीं था, अब तो गांवों से भी यह गायब हो गया है.
इस सबके लिए क्या हमारी आधुनिकता ज़िम्मेदार है या नई पीढ़ी ? हम प्रकृति (नदी,पहाड़,जंगल) से दूर होकर कितने दिन अपने परब और मेलों से सामंजस्य बिठा पाएँगे,अपने को बचा पाएँगे ?



* पहली बार यह पोस्ट गाँव से जुगाड़-कंप्यूटर द्वारा लिखी गई !


5 नवंबर 2011

पन्ना मेरी किताब का !



सबसे  दूर हूँ,ग़ुमसुम सा हो गया हूँ ,
*गायब है एक पन्ना ,मेरी किताब का !१!

सोचता तो होगा,वह भी मेरी  तरह,
दूर जाके पन्ना,मेरी  किताब का !२!

मैं रहा अधूरा,वो भी रहा अकेला,
नुच गया है पन्ना, मेरी किताब का !३!

ज़िन्दगी के इस ,छोटे अहम सफ़र में ,
ज़िस्म-सा था पन्ना,मेरी किताब का !४!

ये हवाएँ,आंधियाँ,दुश्मन मेरी बनीं,
उड़ा गईं हैं पन्ना ,मेरी किताब का !५!


क़यामत के रोज़ मैं,खुदा से पूँछ लूँगा,
क्यों जुदा हुआ पन्ना ,मेरी किताब का ?६!





* पंक्ति डॉ अरविन्द मिश्र  द्वारा  सुझाई गयी,इसलिए उन्हीं को समर्पित !

प्रभाष जोशी : एक सच्चा पत्रकार !


आज से प्रभाष जी को गए दो साल हो गए पर उनकी कमी अब भी लगातार महसूस हो रही है.वे समकालीन पत्रकारों में मूल्यवान पत्रकारिता के लिए संघर्षरत रहने वालों के अगुआ थे.अपने जीवन में उन्होंने सत्ता के प्रति कभी मोह नहीं किया.वे जिस मुकाम पर थे,चाहते तो पद और पुरस्कार उनके क़दमों में होते ,मगर एक सच्चे गाँधीवादी पत्रकार और इन्सान थे.जिस शिद्दत के साथ उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार ,सम्प्रदायवाद के खिलाफ कलम उठाई,उसी तेवर से उन्होंने बिकी हुई पत्रकारिता के खिलाफ आवाज़ बुलंद की.उनके जाने के तुरंत बाद दी गई श्रद्धांजलि आज उनकी बरसी पर यहाँ दी जा रही है.

बीती रात भारत-आस्ट्रेलिया का पांचवां एक-दिवसीय मैच कई मायनों में न भुला पाने वाला सबक दे गया !सचिन के अतुलनीय पराक्रम के बाद भारत ने सिर्फ़ एक मैच ही नहीं गंवाया बल्कि अपने एक सच्चे सपूत को भी खो दिया जो किसी मैच की हार-जीत से परे बहुत बड़ी क्षति है!


प्रभाष जोशी हमेशा की तरह अपने क्रिकेट और सचिन प्रेम के कारण इस मैच का आनंद ले रहे थे,जिसमें बड़ा स्कोर होने के कारण भारत के लिए ज़्यादा कुछ उम्मीदें नहीं थीं,पर टीम का भगवान् अपनी रंगत में था और लोगों ने सालों बाद सचिन की पुरानी शैली और जवानी की याद की। केवल अकेले दम पर उनने बड़े टोटल का आधा सफ़र तय किया और हर भारतीय को आश्वस्त कर दिया कि जीत उन्हीं की होगी पर तभी अचानक वज्रपात सा हुआ और जो मैच भारत की झोली में आ रहा था वह हमें ठेंगा दिखा कर चला गया और यही कसक जोशी जी की जान ले बैठी। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल ले जाया गया पर हम उन्हें बचा नहीं पाये ।पत्रकारीय बिरादरी का 'भीष्म पितामह' अपनी यात्रा पर जा चुका था। सचिन क्रिकेट के भगवान् थे, प्रभाष जी के लिए क्रिकेट भगवान् था और हम जैसे पाठकों के भगवान् प्रभाष जी थे !


प्रभाष जी की लेखनी के कायल इस देश में कई लोग मिल जायेंगे,जो उनका ही लिखा आखिरी फैसले की तरह मानते थे। केवल अखबारों में लेख लिखने के लिए नहीं उन्हें याद किया जाएगा,अपितु पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और उनकी चिंता को हमेशा स्मरण किया जाएगा। वे राजेंद्र माथुर के जाने के बाद अकेले ऐसे पत्रकार थे जिनकी किसी भी ज्वलंत विषय पर सोच की दरकार हर सजग पाठक को थी। वे ऐसे टिप्पणीकार भी थे जिन्होंने न केवल राजनीति पर खूब लिखा बल्कि क्रिकेट,टेनिस और आर्थिक मसलों पर उनकी गहरी निगाह थी। उनके राजनैतिक लेखों से आहत होने वाले भी उनकी क्रिकेट और टेनिस की टिप्पणियों के मुरीद थे।


प्रभाष जी के जाने से धर्मनिरपेक्षता को भी गहरी चोट लगी है। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा हमेशा गाँधी के भारत की हिमायत की और कई बार इसका मूल्य भी चुकाया।आज जब अधिकतर पत्रकार सुविधाभोगी समाज का हिस्सा बनने को बेचैन रहते हैं,जोशी जी एक मज़बूत चट्टान की तरह रहे और यही मजबूती उन्हें औरों से अलग रखती है।


जोशी जी इसलिए भी भुलाये नहीं भूलेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिकों को उपदेश दिया बल्कि उस पर ख़ुद अमल भी किया,इस नाते हम उनको निःसंकोच पत्रकारीय जगत का गाँधी कह सकते हैं। प्रभाष जी को 'जनसत्ता'की तरह अपन भी खूब 'मिस' करेंगे। उन्हें माँ नर्मदा अपनी गोद में स्थान दे,यही एक पाठक की प्रार्थना है!


पुण्य तिथि ०५/११/२००९ 

1 नवंबर 2011

बदलते हुए !

इन्हीं  आँखों से मैंने, जाम को ज़हर होते देखा,
ढल गयी जो शाम उसे सहर होते देखा !१!


ज़िन्दगी के मायने ,अब बदल गए,
अपनों में परायों का, असर होते देखा !२!


खुशबू-ओ-मोहब्बत से ,भरे हुए चमन में,
घुसते हुए लोगों का ,क़हर होते देखा !३!


जिन्होंने बनाए थे ,अपने खूं से  घरौंदे,
उन्हीं को आज हमने , खंडहर होते देखा !४!


कहाँ तक बचेंगे ,बदलती रिवायत से,
छिपाते जिसे रहे ,नज़र होते देखा !५!




*आख़िरी शेर को छोड़कर सब पुरनिया  हैं !

फतेहपुर,२५/०३/१९९० 








28 अक्टूबर 2011

साहित्य का लाल नहीं रहा !

अभी -अभी खबर मिली कि हिंदी के मशहूर साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल हमारे बीच नहीं रहे. उनके निधन की खबर ने सभी साहित्य प्रेमियों को बेचैन और बदहवास कर दिया है.उन्हें अभी हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था,पर वे इससे ज़्यादा 'राग-दरबारी' के लेखक के रूप में जो मान हासिल कर चुके थे ,वह बहुत छोटी उपलब्धि ही कही जाएगी !


साहित्य के इस पुरोधा को शत-शत नमन !








23 अक्टूबर 2011

धरती माता ,जागो जागो !

पिछले कुछ दिनों से मेरा बेटा गाँव जाने को लेकर इतना उत्सुक है कि रोज़ सुबह उठकर बताता है कि इतने दिन बचे हैं ! अबकी दिवाली में उसे लेकर मैं गाँव जा रहा हूँ,ताकि वह त्यौहार का कुछ मतलब समझ सके.पिछली बार भी जाने का कार्यक्रम बनाया था पर आख़िरी मौक़े पर जाना न हो पाया.

बेटा आठ साल का है और दिवाली को उसने शहरी तौर पर ही जाना है.मुझे उसको वहां ले जाना ज़रूरी इसलिए लगा कि बचपन में जैसा मैं महसूस करता था,अब वैसा तो नहीं पर उस जैसा कुछ तो उसे दिखे और वह जान सके कि त्यौहार असल में होते क्या हैं ?

मुझे अपनी दिवाली बेतरह याद आती है.कुछ दिनों पहले से ही घर-बाहर की सफ़ाई का अभियान चलता था और इसे ठेके पर नहीं कराया जाता था बल्कि स्वयं परिवार के सभी सदस्य जुटते थे.घर-दुवार को  पूरी तरह से चमकाया जाता था.आंगन,खमसार, दहलीज़ और चौपारि को गोबर से लीपा जाता  और उस पर रंगोली बनती.दीवारों पर चूने से पोताई होती.कच्चे घरों में माटी का पोतना फेराया जाता.इस तरह दिवाली के आते-आते  सबके घर बिलकुल दमकने लगते.

मैं ज्यादा पटाखे छुड़ाने का शौक़ीन तो नहीं रहा पर छोटा तमंचा और बिंदीवाली डिबिया के साथ दो-चार दिन पहले से ही शुरू हो जाता .तमंचे का प्रयोग तो काफी बाद में आया ,पहले तो ईंट के टुकड़े से ही दगने वाली  'टिकिया' पर वार करके मज़ा लिया जाता था.'दईमार' और 'मिर्ची' भी खूब प्रसिद्ध पटाखे थे.


दिवाली से एक दिन पहले नरक-चतुर्दशी को अम्मा सुबह-सुबह हम लोगों को जगातीं और नहाने के बाद लाइ,चंदिया,चिरइया(खिलौने) का भोग लगवातीं !कुम्हार दो दिन पहले ही दिए दे जाता था.उन्हें दिवाली की शाम को धुलकर तैयार किया जाता.सूर्यास्त होने के बाद अम्मा आंगन में पूजा-पाठ का इंतजाम करतीं,सारे दिए वहीँ रखे जाते,घी-तेल और बाती भी तैयार होती .जैसे ही,अँधेरा शुरू होता, दियों  को अलग-अलग जगह ,घर के हर आले में .हर कोने में .छत की मुंडेर पर ,दरवाज़े पर करीने से धर दिया जाता.


इसके बाद असली धमाल शुरू होता.हम छोटे भाई के साथ हाथों में छुरछुरिया लेकर दुवारे(घर के बाहर खुला बड़ा स्थान) के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दौड़ते और साथ में ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाते,"आज दियाली,काल दियाली ,धरती माता ,जागो जागो "! उस समय हम परब के पूरे उफान पर होते और घर के बड़े-बूढ़े हमारी यह गुहार सुनकर आनंदित होते.इसके बाद तो पटाखे आधी रात तक छूटते  रहते.अगले दिन सुबह हम भाई-बहनों में होड़ लगती कौन कितनी 'दियाली' पाता है ? हाँ, अम्मा एक विशेष तरीके से दिया जलातीं,जिसके बने हुए काजल को हम साल भर अपनी आँखों में रांजते !

सोचता हूँ ,जब बेटा गाँव की दिवाली को महसूसेगा तो उसे आँगन,आला,छत,मुंडेर आदि कैसे लगेंगे.शहरों में बंद कमरों में मनाई जाने  वाली दिवाली उसके लिए गाँव में कितने धरती और आसमान के सपने दिखाएगी ? 



18 अक्टूबर 2011

अच्छा लगता था !

घर की डेहरी  पर 
घंटों बैठे 
बिना काम के 
अम्मा से चिज्जी की फ़रमाइश करते 
झूठ-मूठ का रोना रोते 
मांगें अपनी पूरी करवाना 
अच्छा लगता था!

छोटी-सी गप्पी में 
कंचों को लुढकाना
ऐंठ मारकर 
बड़ी दूर से टिप्पा साधे 
हर बाज़ी चाहते जीतना
अपने कंचों की थैली को 
रोज़ बढ़ाते ही रहना 
अच्छा लगता था !

डंडे पर गुल्ली को रखकर 
दूर भगाते और लपकते 
रात को चाँद  की निगरानी में 
अपने कई दोस्तों के संग 
पाटा लगे हुए खेतों पर 
भुरभुर माटी की छाती पर 
दौड़ लगा झाबर* खेलना
अच्छा लगता था !

आमों की बगिया में 
ढेला लेकर आम टीपना 
झुकी हुई डाली को कसकर 
और झुकाना उसे हिलाना 
जामुन को भी आँख दिखाना 
चोरी से अमरुद तोड़ना
गोल बनाकर बेर गिराना   
अच्छा लगता था !

कतकी के मेले में जाना,
पूड़ी,रबड़ी खूब उड़ाना,
भइया* की उंगली  पकड़े
डमरू और पिपिहरी लेना,
पट्टी और जलेबी खाना 
बैलों की गाड़ी में चढ़कर 
चलत बैल को अरई मारना  
अच्छा लगता था !!

खेतों की मेड़ों पर सरपट 
नंगे पाँव भागते जाना ,
गन्ने के खेतों में घुसकर 
गन्ने का हर पोर चूसना ,
बित्ते भर का झाड़ चने का 
जड़ से उखाड़ कर ख़ूब छीलना
अच्छा लगता था !



झाबर*=पकड़ा-पकड़ी का खेल, भइया*=अपने पिताजी को हम यही कहते हैं 



15 अक्टूबर 2011

करवा-चौथ और बेचारा पति !

वैसे तो पति नाम के निरीह प्राणी को पूरे साल दम मारने की फ़ुरसत नहीं मिलती है पर एक दिन ऐसा आता है जब उसे सूली पर लटकाने का विधिवत कार्यक्रम होता है.श्रीमतीजी पूरे साल और कामों में इतना व्यस्त रहती हैं कि पतिदेव की ख़ातिरदारी में कोई न कोई कोताही ज़रूर रह जाती है.इसीलिए किसी शुभचिंतक ने करवा-चौथ का मुहूरत सोच-विचारकर निकाला है.


पति को तीन सौ पैसठ दिन भकोसने वाली बीवी जब अचानक किसी दिन मेहरबान हो जाय तो समझो कि शामत या क़यामत ज्यादा दूर नहीं है.शायद इसी तरह के प्रसंगों से प्रेरित होकर तुलसी बाबा ने लिखा है,'नवनि नीच कै अति दुखदाई,जिमि अंकुस,धनु,उरग,बिलाई'! यहाँ भी जब पत्नी से अनायास ज़्यादा प्यार टपकने लगता है तो पति की  हालत पतली होने लगती है.उसे लगता है कि वह बलि का बकरा है और उसको आज के ही दिन हलाल करने के लिए तैयार किया गया है.


क़रीब पंद्रह दिन पहले से इस दिन की आहट सुनाई  देने लगती है.जेब की तलाशी तो पूरे साल ली जाती है लेकिन इन दिनों तो बक़ायदा डकैती पड़ती है.मजाल है कि इस पवित्र पर्व के अनुष्ठान के लिए पति उफ़ भी कर दे.साल भर पानी पी-पी कर कोसने वाली सबला जब धर्मपत्नी बनने को आतुर हो उठती है तो फिर से तुलसी बाबा डराते हैं,''का न करै अबला प्रबल,केहि जगु काल न खाय" !पति की पूजा  के नाम पर पत्नी कितनी मेवा खा लेती है यह विशेषज्ञ पति ही बता सकता है. प्यारा और दुलारा पति अडोस-पड़ोस से गुजरता हुआ नकली मुस्कान चेहरे पे लादे रहता है और सोचता है कि कितनी जल्दी चाँद दिखे और उसका जो भी होना है हो जाये !चाँद को छन्नी से देखने का फंडा भी अजीब है.विवाह से पहले जिस चाँद से उसकी तुलना की जाती है ,पत्नी देखती है कि उसमें क्या ख़ास है जो अब उसमें नहीं रहा !


पत्नी के मेहंदी भरे हाथ पति को कैक्टस की चुभन से कम नहीं लगते.वह इस ख़ास  दिन को लेकर इतना आशंकित रहता है कि उसे भी कुछ दिन पहले से अपनी व्यूह-रचना करनी पड़ती है.इस समय अगर पति की  जेब टटोली जाये तो पैसों की जगह बादाम,किशमिश और काजू के कुछ दाने ज़रूर मिल जायेंगे.जहाँ उसकी पत्नी अपने त्यौहार की तैयारी सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करती है वहीँ पति ज़्यादातर चुपचाप ही रहता है.किसी भावी आशंका को वह अपने दोस्तों तक से ज़ाहिर तक नहीं कर सकता !क्या पता,संयोग से मिला एक सुकून भरा दिन भी उससे रूठ जाए !


सभी पतियों की तरह हम भी उम्मीद करते हैं कि यह करवा-चौथ भी पिछले की तरह बिना किसी ज्वालामुखी के फटे ,निर्विघ्न संपन्न हो जाये .पत्नी की मेहँदी का रंग नकली न निकले और यह अनुष्ठान बिना ए.टी.एम.
को नुकसान पहुँचाये,अगले साल तक के लिए विराम ले ले !जैसे हमसे पहले वालों के दिन बहुरे,वैसे हमारे भी बहुरें,इसी कामना के साथ करवा-चौथ की बधाई !!


12 अक्टूबर 2011

रजिया गुण्डों में फँस गयी !

थकावट थी इसलिए रात को जल्दी ही सो गया ! अचानक श्रीमतीजी की आवाज से चौंक गया,'अजी सुनते हो ! कई दिनों से पानी ठीक से नहीं आ रहा है,ज़रा टंकी तो देख कर आओ !कहीं कुछ लीक-वीक तो नहीं हो रहा है ! मैं अलसाया-सा उठ बैठा,सीढ़ी ढूँढने लगा तो उसके दो डेढ़के (पैर रखने वाले डंडे) नदारद मिले.मैं पड़ोसी के यहाँ जाकर उसकी सीढ़ी से अपनी छत पे पहुँचा ! 


छत के ऊपर बुरा हाल था.आस-पास कीचड़-सा जमा था .टंकी का ढक्कन खोलकर देखा तो तली में थोड़ा पानी दिखा,जिसमें दो-तीन मेंढक उछल-कूद कर रहे थे.मैं नीचे से मोटर चला कर आया था,पर यहाँ पानी की एक बूँद भी न टपक रही थी.अब मेरा दिमाग हलकान हो रहा था.टंकी लगभग सूखी थी और मेंढकों ने उस पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था.लेकिन मुख्य सवाल यह था कि पानी क्यों नहीं आ रहा है? अभी थोड़े दिन पहले ही एक जाने-माने प्लंबर से ठीक भी कराया था.उसने टंकी की मरम्मत करने के बाद उस पर बाक़ायदा  अपना नोटिस-बोर्ड लगा दिया था.किसी भी तरह की समस्या के लिए इस नंबर पर कॉल करें !मैंने तुरत वह नंबर डायल किया पर मुआ वह भी 'नॉट-रीचेबल' बता रहा था.


मैंने श्रीमतीजी को छत से ही खड़े-खड़े आवाज़ दी ,''भागवान, ज़रा शर्माजी से पता करो,वह दूसरे शहर के प्लंबर से काम करवाते हैं और उसका बड़ा नाम है.थोड़ी देर में पता चला कि वह प्लम्बर इस समय शर्माजी के यहीं आया हुआ है,सो श्रीमतीजी ने तुरत उसे अपने यहाँ बुला लिया.


शर्माजी के प्लंबर ने आते ही हमारी समस्या सुनी और बजाय वह छत पर चढ़ने के, जहाँ मोटर लगी थी,वहाँ   पहुँच गया.उसने बटन दबाते ही हम दोनों की तरफ घूरकर ऐसे देखा,हम तो डर ही गए ! हमें लगा कि  क्या कुछ हो गया है? उसने अपना निर्णय सुनाया,भाई साहब ! आपकी तो यह मोटर ही फुंकी पड़ी है तो पानी ऊपर टंकी में कैसे चढ़ेगा ? आपने इस मोटर को बिना चेक किये कई बार चलाया है जिससे यह जल गई है ! मैंने कहा,''अभी तो एक नामी-गिरामी स्पेशलिस्ट प्लंबर को दिखाया था,फिर यह कैसे ? उसने आगे बताया,देखिये ,उसी ने गलत जगह छेनी-हथौड़ी चलाई है इसलिए इसके नट-बोल्ट ढीले हो गए थे.ऐसे में आपको इसे नहीं चलाना चाहिए था.मैंने कहा,जो गलती हुई सो हुई अब बताओ क्या हो सकता है? उसने झट-से बात साफ़ कर दी कि अब इसमें इतनी तोड़-फोड़ हो चुकी है कि यह रिपेयर के लायक नहीं है,इसलिए अच्छा है  कि नई मोटर लगवा लें !


अब श्रीमतीजी की बारी थी! उन्होंने हमें ही कोसना शुरू कर दिया.'मुझे शुरू से ही इसके लच्छन अच्छे नहीं दिख रहे थे.जब इसमें ख़राबी आ गयी थी, तभी रिप्लेस कर देते,अब भुगतो. यह सब उस नासपीटे प्लंबर का किया धरा है जिसने मोटर तो खराब की ही ,टंकी में भी मेढकों का जमावड़ा कर दिया.अब जब पानी ही न रहा और न आने की गुंजाइश है तो ये मोटर और टंकी दोनों हमारे किस काम की ?'


अभी मैं इस पर आने वाले खर्चे की उधेड़बुन में ही था कि  हमारी पड़ोसन ने ज़बरदस्त -ऑफर  देकर थोड़ी राहत दी.उन्होंने श्रीमतीजी से कहा,'कोई नहीं बहन,आख़िर आप भले मुझे अपना न समझे पर मैं आपकी टंकी में अपने पाइप के ज़रिये थोड़ा-बहुत पानी दे सकती हूँ". मैं इस पर रजामंदी देने ही वाला था कि श्रीमती जी ने मेरा चद्दर उठाते हुए झिंझोड़ा,देखो जी कितना सूरज चढ़ आया है और आप हैं  कि अभी तक  घर्रे मारे जा रहे हैं  !

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा ! मेरी नींद काफूर हो गयी थी,फिर मैंने जल्द से टंकी की ओर देखा,उसी प्लंबर का फोन नंबर बड़े-बड़े अक्षरों में दिख रहा था !दूसरे कमरे में बच्चे एफ.एम. में गाना सुन रहे थे,'रजिया गुण्डों में फँस गयी' ! 





10 अक्टूबर 2011

राम विलास शर्मा को पढ़ते हुए !



क़रीब दस-बारह साल बाद  दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी गया था.हालाँकि घर में पढने लायक अथाह भंडार मौज़ूद  है,पर कई दिनों से अज्ञेय की आत्मकथा 'शेखर :एक जीवनी' को पढने की प्रबल  इच्छा थी मन में ! पुस्तकालय में जाकर पुनः सदस्य बनने का तात्कालिक कारण यह भी रहा.बहरहाल,आसानी से सदस्यता ग्रहण करके मैंने अपनी वांछित पुस्तक की खोज शुरू की ,पर वह उस समय वहां उपलब्ध नहीं थी. मैंने उसका विकल्प खोजना शुरू किया तो सहसा मेरी नज़र 'अपनी धरती,अपने लोग' पर पड़ी और उसे खोलते ही जिस तरह की भाषा मुझे दिखी,उससे मैं सहज ही आकर्षित हो गया.यह राम विलास शर्मा की आत्मकथा के तीन खण्डों का पहला भाग था.मैं लेखक के नाम से पहले से ही परिचित था,चूंकि वे हमारे बैसवारा के ही रहनेवाले थे,इसलिए उनकी आत्मकथा पढने में अतिरिक्त रूचि लगी और मैंने उस पुस्तक को ले लिया.हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा व जिन्ना के जीवन के बारे में अमेरिकी लेखक की लिखी पुस्तक ही इससे पहले मैंने जीवनी के नाम पर पढ़ीं थीं !


'मुंडेर पर सूरज' इस आत्मकथा का पहला भाग है,जिसमें लेखक के बचपन से लेकर अध्यापन-कार्य से मुक्त होने तक की अवधि को तफ़सील से बताया गया है.उनका शुरुआती जीवन अपने बाबा के साथ गाँव में बीता और इस दौरान होने वाले अनुभव मेरे लिहाज़ से सबसे ज़्यादा रोमांचकारी रहे क्योंकि उन प्रसंगों को राम विलास शर्माजी ने जस-का -तस धर दिया है .इसमें देशज शब्दों की भरमार  है.जिन शब्दों को मैं भूल-सा रहा था,उन्हें किताब में पाकर निहाल हो उठा.जिस जीवन को मैंने अपने बचपन में जिया था,इतने बरसों बाद लग रहा है कि यह मेरी अपनी ही कहानी है. इस तरह के कुछ अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ.


रसोई के बगल में  छोटी खमसार थी.एक तरफ सौरिहाई जहाँ मेरा जन्म हुआ था,दूसरी तरफ आटा,दाल,चावल,गुड़ रखने की कोठरी;खमसार में एक तरफ बड़ी चकिया ,दूसरी तरफ धान कूटने की  ओखली,उसी के ऊपर दीवाल में घी,तेल की हांडियां रखने का पेटहरा  !

                                                             ***************
कुछ  दिन में बाबा ठीक हो गए और मैं उनके साथ सोने लगा.सोने के पहले घुन्घूमनैयाँ करते थे .चित लेटकर पैर मोड़ लेते थे,उन पर मुझे लिटाकर घुटने छाती की तरफ़ लाते,फिर पीछे ले जाते. इस तरह झूला झुलाते हुए गाते जाते थे,घुन्घूमनैयाँ ,खंत खनैया ,कौड़ी पइयां,गंग बहइयां...और अंत में पैरों पर मुझे उठाते हुए  कहते थे,बच्चा का बिहाव होय,कंडाल  बाजे भोंपड़ प पों,पों !


इस तरह और भी कई जगह रोचक और जीवंत-प्रसंग हैं. कथरी,नहा ,पगही,चीपर,अंबिया,कुसुली गड़  आदि न जाने कितने शब्द हैं जो बैसवारे में ही बोले और सुने जाते हैं! इस तरह उन्होंने हचक के अवधी व बैसवारी शब्दों का प्रयोग किया है.


राम विलास शर्मा जी की ख्याति एक आलोचक के रूप में ही ज़्यादा रही,इसलिए भी आम पाठक उन्हें अधिक नहीं पढ़ या जान पाया.कहते हैं कि निराला के बारे में  जितनी प्रामाणिक जानकारी  शर्माजी के पास थी,शायद ही किसी के पास रही हो.वे अपने लखनऊ -प्रवास के दौरान निरालाजी के संपर्क में आये और उनकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी.वे निराला के गाँव गढ़ाकोला(उन्नाव) भी गए थे.निरालाजी ने कई बार उनको मानसिक सहयोग दिया,जिसका उन्होंने पुस्तक में जिक्र भी किया है.'तुलसी' के बारे में भी राम विलास जी ने ख्याति पायी है.इन्होंने निराला और तुलसी पर अलग से काफी-कुछ लिखा है !आलोचना के क्षेत्र में राम चन्द्र शुक्ल के बाद उस समय के आलोचकों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है.


महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्माजी के गाँव आस-पास ही थे,यह मेरा सौभाग्य है कि  मेरा गाँव भी इन दोनों विभूतियों से बहुत दूर नहीं है ! दिल्ली में रहते हुए भी शर्माजी से मिल नहीं पाया ,इसकी टीस ज़रूर हमेशा रहेगी !

पुस्तक पढने के दौरान ही यह जाना कि शर्माजी का जन्मदिन दस अक्टूबर को पड़ता है,संयोग से आज वही दिन है और  ख़ास बात यह है कि  यह उनके जन्मशती-वर्ष की शुरुआत का दिन भी है !इस नाते भी हमें उनको,उनके किये गए कामों को याद करना ज़रूरी है.उस महान आलोचक और लेखक की याद को शत-शत नमन !