आज से प्रभाष जी को गए दो साल हो गए पर उनकी कमी अब भी लगातार महसूस हो रही है.वे समकालीन पत्रकारों में मूल्यवान पत्रकारिता के लिए संघर्षरत रहने वालों के अगुआ थे.अपने जीवन में उन्होंने सत्ता के प्रति कभी मोह नहीं किया.वे जिस मुकाम पर थे,चाहते तो पद और पुरस्कार उनके क़दमों में होते ,मगर एक सच्चे गाँधीवादी पत्रकार और इन्सान थे.जिस शिद्दत के साथ उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार ,सम्प्रदायवाद के खिलाफ कलम उठाई,उसी तेवर से उन्होंने बिकी हुई पत्रकारिता के खिलाफ आवाज़ बुलंद की.उनके जाने के तुरंत बाद दी गई श्रद्धांजलि आज उनकी बरसी पर यहाँ दी जा रही है.
बीती रात भारत-आस्ट्रेलिया का पांचवां एक-दिवसीय मैच कई मायनों में न भुला पाने वाला सबक दे गया !सचिन के अतुलनीय पराक्रम के बाद भारत ने सिर्फ़ एक मैच ही नहीं गंवाया बल्कि अपने एक सच्चे सपूत को भी खो दिया जो किसी मैच की हार-जीत से परे बहुत बड़ी क्षति है!
प्रभाष जोशी हमेशा की तरह अपने क्रिकेट और सचिन प्रेम के कारण इस मैच का आनंद ले रहे थे,जिसमें बड़ा स्कोर होने के कारण भारत के लिए ज़्यादा कुछ उम्मीदें नहीं थीं,पर टीम का भगवान् अपनी रंगत में था और लोगों ने सालों बाद सचिन की पुरानी शैली और जवानी की याद की। केवल अकेले दम पर उनने बड़े टोटल का आधा सफ़र तय किया और हर भारतीय को आश्वस्त कर दिया कि जीत उन्हीं की होगी पर तभी अचानक वज्रपात सा हुआ और जो मैच भारत की झोली में आ रहा था वह हमें ठेंगा दिखा कर चला गया और यही कसक जोशी जी की जान ले बैठी। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल ले जाया गया पर हम उन्हें बचा नहीं पाये ।पत्रकारीय बिरादरी का 'भीष्म पितामह' अपनी यात्रा पर जा चुका था। सचिन क्रिकेट के भगवान् थे, प्रभाष जी के लिए क्रिकेट भगवान् था और हम जैसे पाठकों के भगवान् प्रभाष जी थे !
प्रभाष जी की लेखनी के कायल इस देश में कई लोग मिल जायेंगे,जो उनका ही लिखा आखिरी फैसले की तरह मानते थे। केवल अखबारों में लेख लिखने के लिए नहीं उन्हें याद किया जाएगा,अपितु पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और उनकी चिंता को हमेशा स्मरण किया जाएगा। वे राजेंद्र माथुर के जाने के बाद अकेले ऐसे पत्रकार थे जिनकी किसी भी ज्वलंत विषय पर सोच की दरकार हर सजग पाठक को थी। वे ऐसे टिप्पणीकार भी थे जिन्होंने न केवल राजनीति पर खूब लिखा बल्कि क्रिकेट,टेनिस और आर्थिक मसलों पर उनकी गहरी निगाह थी। उनके राजनैतिक लेखों से आहत होने वाले भी उनकी क्रिकेट और टेनिस की टिप्पणियों के मुरीद थे।
प्रभाष जी के जाने से धर्मनिरपेक्षता को भी गहरी चोट लगी है। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा हमेशा गाँधी के भारत की हिमायत की और कई बार इसका मूल्य भी चुकाया।आज जब अधिकतर पत्रकार सुविधाभोगी समाज का हिस्सा बनने को बेचैन रहते हैं,जोशी जी एक मज़बूत चट्टान की तरह रहे और यही मजबूती उन्हें औरों से अलग रखती है।
जोशी जी इसलिए भी भुलाये नहीं भूलेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिकों को उपदेश दिया बल्कि उस पर ख़ुद अमल भी किया,इस नाते हम उनको निःसंकोच पत्रकारीय जगत का गाँधी कह सकते हैं। प्रभाष जी को 'जनसत्ता'की तरह अपन भी खूब 'मिस' करेंगे। उन्हें माँ नर्मदा अपनी गोद में स्थान दे,यही एक पाठक की प्रार्थना है!
पुण्य तिथि ०५/११/२००९
आदरणीय प्रातः स्मरणीय प्रभाष जी के अतार्किक क्रिकेट प्रेम की विवेचना पर कभी भी मैंने कोई विस्तृत आलेख नहीं पढ़ा जो इस पर कुछ प्रकाश डाल सके और एक प्रखर मेधा के धनी व्यक्ति की सनक का औचित्य बता पाए ..यह निश्चय ही उनकी एक वह ललक थी जिसके लिए अंगरेजी का शब्द "इडियोसिंक्रेसी " है -और इसी ने एक प्रतिभा की जान भी ले ली ...यह तो कोई बात नहीं हुयी ! श्रद्धांजलि !
जवाब देंहटाएंअरविन्दजी, आपने उन्हें पढ़ा नहीं है इसलिए ऐसी बात कह रहे हैं.एक तरफ़ उनकी लेखनी जहाँ राजनीति को काटती थी,वहीँ क्रिकेट और लान-टेनिस की ऐसी मनमोह लेने वाली व्याख्या करती थी कि पूछो मत !क्रिकेट और टेनिस के उनके लेखों को ये खेल न जानने-समझने वाले भी उतने ही मज़े से पढ़ते थे.हम जैसों को तो खेल की उनकी टिप्पणी का बेसब्री से इंतज़ार रहता था.
जवाब देंहटाएंयहाँ हम उन्हें एक सच्चे पत्रकार के रूप में याद कर रहे हैं !
उनकी लेखनी को अब भी याद करता है भारत।
जवाब देंहटाएंप्रभाष जी के जाने से जो जगह खाली हुई है उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती।
जवाब देंहटाएं@संतोष जी मैं पुनः यह यही कहूंगा कि क्रिकेट जैसा फालतू ,वाहियात गेम भले ही प्रभाष जोशी के संस्पर्श से महिमा मंडित हुआ हो मगर क्रिकेट ने रंच मात्र भी इस मेधा का कोई अलंकरण नहीं किया!
जवाब देंहटाएंप्रभाषजी के बारे में एक नई जानकारी मिली ।
जवाब देंहटाएंशत शत नमन
जवाब देंहटाएंसच कहूं संतोष जी, तो उनके कारण मैंने जनसत्ता पढ़ना शुरु किया था। जो पहला लेख मैंने पढ़ा था, उनका, वह था, “इस किशोर के कंधों पर” - सचिन पर लिखा उनका लेख। तब से जब तक वे जीवित रहे मैं उनके हर लेख, संपादकीय आदि पढ़ता रहा।
जवाब देंहटाएंकागद कारे आदि ऐसे लेख/स्तंभ हैं जिसका कोई विकल्प नहीं।
विनम्र श्रद्धांजलि।
किसी भी खेल के शौक़ीन के लिए खेल में हार जीत बहुत अहमियत रखती है । जोशी जी भी इन्सान ही थे । और क्रिकेट के शौक़ीन भी । लेकिन उनका यूँ चले जाना एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहलाएगी ।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी , इससे क्रिकेट एक वाहियात गेम नहीं हो जाता ।
अरे भाई , हम भी शौक़ीन हैं , देखने के ।
कल से दिल्ली में टेस्ट मैच शुरु हो रहा है , और इस बार हमने ठान रखी है कि देख कर ही आयेंगे ।
जोशी जी को विनम्र श्रधांजलि ।
अखबारों में कभी कभी उनका प्रितिबिम्ब उभर ही आता है... कलम के सिपाई को श्रधांजलि.
जवाब देंहटाएं@डॉ.दराल जी दर-असल क्रिकेट के प्रति दीवानगी उनमें पत्रकारीय-प्रतिभा के अलग एक विशेषज्ञता की तरह थी.जब भी कोई मैच भारत के साथ होता,जीत या हार होती,लोग उनकी समीक्षा का बेसब्री से इंतज़ार करते !
जवाब देंहटाएंमुझे याद है पीट सम्प्रास के खेल पर एक बार उन्होंने बहुत भाव-पूर्ण लेख लिखा था,उनका खेल-कौशल और निस्पृहता गज़ब की थी,पढकर रोना आ गया था !
अपने देश में क्रिकेट एक खेल कम पर्व की तरह ज्यादा मनता है.प्रभाष जी तो उस इंदौर के थे जहां की माटी में क्रिकेट समाया हुआ है !
प्रभाष जी को आने वाले समय में अभी और याद किया जाएगा ...ठीक वैसे ही जैसे .....लोग अब कहते हैं कि चावल में वह सुगंध और स्वाद नहीं ............पर याद ही किया जाएगा .......बकिया पत्रकारिता की नई ब्रीड आती रहेंगी !
जवाब देंहटाएंहमरी भी श्रृद्धांजलि !
प्रभाष जोशी अद्भुत पत्रकार थे। उनके लेखों का संग्रह ’कागद कारे’ पढ़ने का मन है।
जवाब देंहटाएंप्रभाष जोशी को नमन!
इस आलेख के बहाने एक बार फिर पत्रकारिता के अनूठे स्तंभ को नमन
जवाब देंहटाएंप्रभाष जी के दिवंगत होने के बात दो साल पहले मैने आपकी पोस्ट पढ़ी थी। टीपा था। सब याद आया। उनके दिवंगत होने के कुछ ही समय पूर हम सबकी मुलाकात भी हुई थी।
जवाब देंहटाएंजोशी जी को नमन!!