इन्हीं आँखों से मैंने, जाम को ज़हर होते देखा,
ढल गयी जो शाम उसे सहर होते देखा !१!
ज़िन्दगी के मायने ,अब बदल गए,
खुशबू-ओ-मोहब्बत से ,भरे हुए चमन में,
घुसते हुए लोगों का ,क़हर होते देखा !३!
जिन्होंने बनाए थे ,अपने खूं से घरौंदे,
उन्हीं को आज हमने , खंडहर होते देखा !४!
कहाँ तक बचेंगे ,बदलती रिवायत से,
छिपाते जिसे रहे ,नज़र होते देखा !५!
*आख़िरी शेर को छोड़कर सब पुरनिया हैं !
फतेहपुर,२५/०३/१९९०
नौका तो पुरनियों पर भारी पड़ गया है :)
जवाब देंहटाएंएक खुशी देने वाली बात भी है इस गज़ल के एक मिसरे में...
जवाब देंहटाएंढल गयी जो शाम उसे सहर होते देखा।
@देवेन्द्र पाण्डेय आपने बिलकुल सही पकड़ा है.यह बात मेरे संज्ञान में थी लेकिन ज़िन्दगी सुख-दुःख का मिक्सर ही तो है इसलिए उसे बदला नहीं ,वर्ना मामला एकतरफ़ा हो जाता !
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी के मायने ,अब बदल गए,
जवाब देंहटाएंअपनों में परायों का, असर होते देखा !२!
यह एक ऐसी तल्ख़ हक़ीक़त है जिससे हमें रोज़ ही दो-चार होना पड़ता है।
एक प्रयोग मैं भी कर ही लूं,
ढ्ल न पाई शाम, बस सहर होते देखा।
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंकहें क्या जिसे हमने मजलूम समझा
उसे मिश्र जी ने 'जबर' होते देखा :) १
नहीं है वहां कुछ , हमीं ऐसा समझे
मगर अगली सुबह खबर होते देखा :) २
यूं पोसा जो माना अकलमंद है वो
उसी नाज़नीं को डफर होते देखा :) ३
वो नौका पुरनियों पे भारी पड़ी जो
उसे ही बुढापों का घर होते देखा :) ४
लिखी पोस्ट उसको निशाना बनाके
छपी टीप तो फिर लवर होते देखा :) ५
@अली भाई आप भी बस कहर ढाते हैं!
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी के मायने ,अब बदल गए,
जवाब देंहटाएंअपनों में परायों का, असर होते देखा !२!....apna sach
bakiya, aisa kahar.....krah ke bhi jhela ja
sakta hai.....
sadar.
ज़िंदगी की हकीकत को कहती अच्छी गज़ल
जवाब देंहटाएंहर शाम का अंत शहर से ही होता है. अच्छी गज़ल
जवाब देंहटाएं@ अली साहब हमने तो तुक्केबाजी की थी,आपने तीर बनाकर निशाना लगा दिया !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूबसूरत रचना |
जवाब देंहटाएंकहाँ तक बचेंगे ,बदलती रिवायत से,
जवाब देंहटाएंछिपाते जिसे रहे ,नज़र होते देखा !५!
सभी शेर बेहतरीन हैं......
ज़दगी के मायने ,अब बदल गए,
जवाब देंहटाएंनहं है वहां कुछ , हमीं ऐसा समझे मगर अगली सुबह खबर होते देखा :)
Kya post hai? Adbhut!
Aur comments bhi utne hi
dhardaar.
Badhai.
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं.
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी के ब्लॉग से यहाँ तक आना हुआ.बहुत ही बेहतरीन शेर...बहुत अच्छा लगा आपको पढ़कर...आभार...
जवाब देंहटाएंहमें लगा हम तो इस ब्लॉग का अनुसरण कर रहे थे । फिर पहले कैसे नहीं पढ़ा ।
जवाब देंहटाएंलेकिन शायद यादों के कम्यूटर में मकड्जाल लग गया था ।
बढ़िया ग़ज़ल लिखे हैं भाई जी । और अली सा'ब तो सोने पर सुहागा लगा दिए हैं ।
बेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंजिन्होंने बनाए थे ,अपने खूं से घरौंदे,
जवाब देंहटाएंउन्हीं को आज हमने , खंडहर होते देखा...
बेहद खूबसूरत एवं भावपूर्ण गजल के लिये बधाई !
मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है ..
वाह वाह .......!
जवाब देंहटाएंइसके जियादा का हमारे पास इसे तौलने का शउर नहीं ...:-)
:)
जवाब देंहटाएंक्या बात है! :)
विलाप भाव में लोग इस्माइली लगा के टीप रहे हैं, वाकही बड़े कयामती हैं!
जवाब देंहटाएंचिंतन चालू रहे! कोई राह निकल आयेगी।
और हाँ, अली जी का नहले पे दहला मजेदार है :)
जवाब देंहटाएं@ अमरेन्द्र हाँ भई,अली साब का ज़वाब नहीं !
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