आज कुछ ऐसा लिखें
ये कलम तोड़ दें हम !
बहती हुई धारा का ,ये
रुख मोड़ दें हम !
शेर की मांद में घुसकर ,
जबड़ों को ही तोड़ दें हम !
जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते रहेंगे !
राह की खाई को पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम !
दिन सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से वे निकलकर
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे हम,
सांप को यूँ छोड़ दें हम ?
...और चलते-चलते एकठो निठल्ला-चिंतन !
झील जो सूखी भर आई ,
नन्हें-मुन्नों की है माई,
अब नहीं चिंतित हैं मुन्ने,
गोद में ही सो रहेंगे,
इस ठिठुरती ठण्ड में
बस रजाई ओढ़ लें हम !
.......और ये देखिये अपने निठल्लू अली मियाँ ! क्या फरमाते हैं !
भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)
राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)
एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)
बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)
ये कलम तोड़ दें हम !
बहती हुई धारा का ,ये
रुख मोड़ दें हम !
शेर की मांद में घुसकर ,
जबड़ों को ही तोड़ दें हम !
जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते रहेंगे !
राह की खाई को पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम !
दिन सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से वे निकलकर
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे हम,
सांप को यूँ छोड़ दें हम ?
...और चलते-चलते एकठो निठल्ला-चिंतन !
झील जो सूखी भर आई ,
नन्हें-मुन्नों की है माई,
अब नहीं चिंतित हैं मुन्ने,
गोद में ही सो रहेंगे,
इस ठिठुरती ठण्ड में
बस रजाई ओढ़ लें हम !
.......और ये देखिये अपने निठल्लू अली मियाँ ! क्या फरमाते हैं !
भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)
राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)
एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)
बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)
इस ठिठुरती ठण्ड में
जवाब देंहटाएंबस रजाई ओढ़ लें हम ...
:-)
यह बढ़िया रही... मस्त रचना
रजाई ओढ़े घर में लेटे लेटे, कैसे इतनी तोड़ फोड़ कर पाओगे गुरु :-))))
खैर हम तो आपके साथ हैं ....
शुभकामनायें आपको !
ये जेहाद है तो हम साथ हैं
जवाब देंहटाएंभले ही बर्बाद हैं
मगर कहीं आबाद भी है हम:)
बहुत ठण्ड है भाई
मैंने ओढ़ ली है रजाई
ये जाड़े की शामें रात और दिन
नन्हे मुन्नों को तो छूती नहीं
जवान लगे हैं भाई
मगर बूढों को छोडती नहीं
कितनी ही ओढें रजाई ...
मगर आपके लिए एक
बोरसी की सिफारिश है .....
मेरे पास तो कई हैं :)
शेर की मांद में घुसकर ,
जवाब देंहटाएंजबड़ों को ही तोड़ दें हम !
आज किस की श्यामत आई hai !
निठल्ला चिंतन बहुत संवेदनशील hai ।
बस एक रजाई का सवाल hai बाबा ।
कुछ भी कर गुजरने के लिए एक अदद इरादा चाहिये बस्स्स
जवाब देंहटाएंउत्साह मँहगाई का व्युतक्रमानुपाती है, मँहगाई है कि बस बढ़ा जा रही है।
जवाब देंहटाएंसबके अपने रंग !! = डालो रंग में भंग !!
जवाब देंहटाएंआज कुछ ऐसा लिखें
ये कलम तोड़ दें हम !
= मरते दम तक टांगा जाये / जस्टिस त्रिवेदी !
बहती हुई धारा का ,ये
रुख मोड़ दें हम !
= इंजीनियर संतोष कुमार !
शेर की मांद में घुसकर ,
जबड़ों को ही तोड़ दें हम !
= आखेटक त्रिपीठाधीश्वर !
जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते रहेंगे !
राह की खाई को पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम !
= रहनुमा-ए अखाड़ा-ए ब्लागिस्तान सन्तु जी !
दिन सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से वे निकलकर
सर झुकाने आ गए ,
= जान की अमान पाऊं / जिल्ले इलाही तसल्ली बख्श साहिब बैसवारवीं !
अबकी नहीं मानेंगे हम,
सांप को यूँ छोड़ दें हम ?
= स्नेक हंटर
लिखने लगा था कुछ और
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी की बोरसी देख ठिठक गया
पढ़ते ही...या अलीssss! लिखने जा रहा था कि...रूक गया।
जवाब देंहटाएंपाबला(जी)भी हाथ सेंकने के लिए बावला...!
जवाब देंहटाएंका लिखें का टीपें ??
जवाब देंहटाएंई अली जी की टीप पढते पढते सब निचुड सा जाता है .....और मौन ससुरा घुस जाता है कलेजे तक ....हमको रजाई के अंदर से टुकुर टुकुर निहारने वाला ही समझा जाए .....जय संतोष अली!
@ सतीश जी
जवाब देंहटाएंअगर आपका साथ यूँहीं मिलता रहा,
हम बंजर-भू को उर्वरा बना देंगे !!
@अरविन्द जी
हमारे पास रजाई तो है,पर बोरसी नहीं,
सुनते हैं बनारस वालों का पेटेंट है उस पर !
आप वहाँ से भिजवा दें,पेमेंट हम करवा देंगे !
@डॉ.दराल आप ही बताएँ डागदर साहिब,रजाई का विकल्प क्या है ?
जवाब देंहटाएं@काजल कुमार फुल इरादा है जी !
@प्रवीण जी आप अब दार्शनिक-से होते जा रहे हैं टीपों में,हम कम-अकलों का भी कुछ ख्याल करो !
@ अली साहब
जवाब देंहटाएंसबसे चटख है रंग-ए-अली....आपको क्या ज़वाब दूं,पूरे शरीर का पोस्ट-मार्टम किया है,मगर दिल को अभी छुआ नहीं,उसी में आग और पराग है,तनिक फिर सोचियेगा !
@पाबलाजी
आपके ठिठकने से ठिठक गई सरदी,
ओढने वाले भी लेकर रजाई भागे !
@ देवेंद्रजी
जवाब देंहटाएंबस्स या..अली की गुहार लगाते रहिये,
पाबलाजी भी साथ-साथ हो लेंगे !
@प्रवीण त्रिवेदी
रजाई में घुसकर,सरदी न दूर होगी,
पर कलेजे में ठंडक तो महसूस होगी !
गुहार लगाने की सोच ही रहा था कि देखा पहले से अवतरित हैं:-)
जवाब देंहटाएंबे...बैं... में, किसी न किसी रूप में मिल ही जाते हैं।
बैं नहीं, बै..बिंदी गलती से लग गई।
जवाब देंहटाएंदृढ इच्छाशक्ति बहुत कुछ आसान कर सकेगी.....
जवाब देंहटाएंनाम बदल लें अब
जवाब देंहटाएंक्रांति की अलख जगा रहे हैं
जगा रहे हैं या कि धधका रहे हैं
फिर भी अभी तक
कहा रहे हैं संतोष
अब तो बदल लें भेष
हाथ में कलम की जगह
ए के 97 थाम लें
विसंगतियों के रास्ते कर दें जाम
फांसी चढ़ा दें सभी बुराईयों को अब सरेआम
आम आदमी खुश हो जाएगा
चूसने वाला उनको
अपनी जीभ कैसे बचा पाएगा
@ नुक्कड़
जवाब देंहटाएंअविनाशजी,
बड़े-बड़े काम कलम करती है,
आतताइयों के सर कलम करती है !
वैसे अब नाम सार्थक रहे कहाँ ?
संतोष जी ,
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र जी बिंदी लगा चुकने के बाद कह रहे हैं कि गलती हुई जबकि वे पहले से ही जानते हैं कि अपने वाले के सिवा किसी दूसरे वाले पे बिंदी लगाना पाप है :)
रेत की महीन बारीक धूल से सूखी हुई झील भर गई है वहां एक बूँद भी पानी होता तो आपको रजाई ओढने का मौक़ा ना मिलता :)
आपकी ख्वाहिश है तो फिर पेश है ...
भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)
राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)
एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)
बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)
@ अली साब
जवाब देंहटाएंवाह हुज़ूर, मुराद पूरी कर दी,
झील न सही मेरी झोली भर दी !
इसे ऊपर ही टांगता हूँ,
जैसे गुदड़ी में हीरे टंके हुए !
वाह अली साहब - सुनो ब्लॉगर बंधुओं!
जवाब देंहटाएंअली भाई इन दिनों अपने सृजन के उत्तुंग उफान पर हैं -उन्हें सभी बधाईयाँ दें !
झील को छील दिया...!
जवाब देंहटाएं@ मिश्राजी से सहमत...!
जवाब देंहटाएं@देवेन्द्र जी आपने पाबलाजी के पेटेंट का प्रयोग किया है,इसकी सज़ा मिलेगी,बराबर मिलेगी !
वे फिर भरमाने आ गए,
जवाब देंहटाएंतम्बुओं से वे निकलकर
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे हम,
सांप को यूँ छोड़ दें हम ?
लाजबाब .
जब तलक बचते रहेंगे,
जवाब देंहटाएंराह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते रहेंगे !
राह की खाई को पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम ....
Vaah ... Aaj ka sach to yahi hai ... Ozasvi rachna ... Honsle ko jeevit rakhne ko prerit karti rachna ...
आपका गैंग मजबूत है ....
जवाब देंहटाएंबधाई !
आत्मविश्वास से भरी इस रचना का ओज हमें प्रेरित करता है। जब यह है तो ...
जवाब देंहटाएंबहती हुई धारा का ,ये
रुख मोड़ दें हम !
शेर की मांद में घुसकर ,
जबड़ों को ही तोड़ दें हम !
मुमकीन है। क्योंकि
आत्मविश्वास में वह बल है, जो हज़ारों आपदाओं का सामना कर उन पर विजय प्राप्त कर सकता है।
फिर ये ठंड क्या चीज़ है?
बड़ी उत्साह वर्धक खुराफ़ात है।
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट मन को प्रभावित करने में सार्थक रहा । बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट 'खुशवंत सिंह' पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएं@ अनूप शुक्ल
जवाब देंहटाएंआखिर आपका भी शागिर्द हूँ !आशीर्वाद देते रहिएगा :-)
@ सतीश सक्सेना जी
जवाब देंहटाएंस्नेह के लिए आभार !
@ मनोज जी
अब ठण्ड बिलकुल नहीं लगेगी,पर कलेजा ज़रूर ठंडा हो गया !
agraz santoshji....ek to aapke babbar sher gurudev
जवाब देंहटाएंaur upar se unke chaturangni sena.....aur phir oos
sena me.....surya se tez wale senapati 'alisa'....
piche-piche hum jaise anuj-manuj......
gajjab.....
pranam.
एक अच्छी पोस्ट ,बकौल दुष्यंत कुमार -कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता ,एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो...
जवाब देंहटाएं