उनके पास है मरने का हुनर-ओ-इल्म ,
ठीक से जीना भी नहीं, सीख पाए हम !१!
उस्ताद हैं वे, सबको भरमाने की कला में,
सफ़र में न किसी एक को,रोक पाए हम !२!
कई साल से मसल्सल ,वे पीटते रहे,
गाँधी के नाम थप्पड़ ,रोज़ खाए हम !३!
महफ़िल में आज छाये ,मेरे ही करम से,
गीतों में सुर चढाते ,जो छेड़ आए हम !४!
चलते ही जा रहे,बड़ी तेज़ चाल से,
कहना न फिर कोई,न संभाल पाए हम !५!
शतरंज की बिसात पर,तुम जीत तो गए,
पर किसी मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!
ठीक से जीना भी नहीं, सीख पाए हम !१!
उस्ताद हैं वे, सबको भरमाने की कला में,
सफ़र में न किसी एक को,रोक पाए हम !२!
कई साल से मसल्सल ,वे पीटते रहे,
गाँधी के नाम थप्पड़ ,रोज़ खाए हम !३!
महफ़िल में आज छाये ,मेरे ही करम से,
गीतों में सुर चढाते ,जो छेड़ आए हम !४!
चलते ही जा रहे,बड़ी तेज़ चाल से,
कहना न फिर कोई,न संभाल पाए हम !५!
शतरंज की बिसात पर,तुम जीत तो गए,
पर किसी मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!
थप्पड़ आज खाने वालों में नहीं, खिलाने वालों की जमात से संबंध रखते हैं। आपके थप्पड़ों ने तो काफियों का भविष्य सुधार दिया है। सरकार से मांग करेंगे कि इन्हें कायम रखा जाए, रद्द कर दिया गया है तो फिर से बहाल कर दिया जाए। लेकिन फिर मास्टरों को कक्षाओं में बच्चों से सुरक्षा के लिए हेलमेट अवश्य धारण करने होंगे।
जवाब देंहटाएंगाँधी के नाम का थप्पड़ भी नहीं खाते मिट्टी में मिला दिया उसका नाम, उसने कहा था कोई एक मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो, इनके बसमें तो एक भी झेलना नहीं रहा है।
जवाब देंहटाएंवाह वाह थप्पड़ आरती
जवाब देंहटाएंवाह, जब आँख खुले तब सवेरा!
जवाब देंहटाएंआम जनता को शपथ लेनी चाहिये कि वे रोज एक थप्पड़ अपने यहाँ के नेता को मारेंगे जो भी वैसा है, तभी यह देश सुधर सकता है।
जवाब देंहटाएंअक्रोश अब किसी न किसी रूप में फाट रहा है। थप्पड़ हो या नज़्म या ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएंअब आपकी यही आदत हमें बुरी लगती है -पुराने जख्मों को कुरेद देते हैं :(
जवाब देंहटाएंमगर हम तो परलोक तक इन्साफ की गुहार जारी रखेगें -कम बेहया नहीं हैं हम......
विनाशाय च दुष्कृताम ....साझा अभियान की इस रणभेरी को सलाम ....
रचना की तो कुछ पूछिए मत ....मगर काहें बौद्धिकता को आलतू फालतू अलाय बलाय में बर्बाद कर रहे हैं?
कीन्हे प्राकृत जन गुन (अवगुन भी ) गाना सर धुन गिरा लाग पछताना .....
शतरंज के खिलाड़ियों में एक बात बड़ी मस्त है। जीतते हैं तो कहते हैं..हम जीते। हारते हैं तो कहते हैं..हारा तो मोहरा हारा हम कहां हारे!
जवाब देंहटाएंथप्पड़ तो...!
नेता के गाल पे वहां थप्पड़ जो पड़ गया
जवाब देंहटाएंशायर हमारा उसके कसीदों पे अड़ गया :)
जनता को राय एक लगाओ हरेक दिन
कहते विवेक उनकी पिटाई नहीं है सिन :)
थप्पड़ के आसरे पे सुबह की तलाश है
गर जो ना पिटें नेता इन्डियन उदास हैं :)
नव-आरती के वाकई काजल मुरीद हैं
माहौल आजकल का शायर मुफीद है :)
आपसे बैठकर गज़ल लिखनी सीखनी पड़ेगी, बहुत अच्छी है।
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी आपने पहला शेर पकड़ा,जो मेरा भी पसंदीदा शेर है इस ग़ज़ल का !आप इसीलिए हमारे गुरु हैं !
जवाब देंहटाएंबकिया सभी ने अपने मिजाज़ के अनुसार थप्पड़-प्रसंग को गले लगा लिया !
@अली साब मैं तो आपसे गुहार लगाने जा रहा था ,'अली साब इस थप्पड़ से मुझे बचाओ' पर आपने तो इसी बहाने विवेकजी,अनुराग जी और काजल जी पर अलग से शेर चस्पा कर दिए !
अली साब,यह ग़ज़ल-नुमा टीप तो मस्त रही,पर और शेर तो उदास हैं,उन पर भी कुछ रहम करो !
@ प्रवीण पाण्डेय आभार आपका....आपका हाथ कविता में बड़ा अच्छा है,ग़ज़ल भी बढ़िया लिख लोगे आप !
जवाब देंहटाएंमहफ़िल में आज छाये ,मेरे ही करम से,
जवाब देंहटाएंगीतों में सुर चढाते ,जो छेड़ आए हम !४!
सम्यक और प्रभावशाली रचना ..!
शतरंज कि बिसात पर तुम जीत तो गए,
जवाब देंहटाएंपर किसी मोहरे से नही मात खाए हम,
बहुत ही प्रभावशाली कविता है बधाई...
नई पोस्ट में आपका स्वागत है
rochak prastuti .badhai
जवाब देंहटाएंशतरंज की बिसात पर,तुम जीत तो गए,
जवाब देंहटाएंपर किसी मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!
bahot achche......
नेताजी को तो लगा जैसे किसी ने धक्का मारा है ...
जवाब देंहटाएंकाहे बेचारे नेता के पीछे पड़ गए हैं सब ब्लोगर्स !
जवाब देंहटाएंइस देस में कम से कम १०० करोड़ नेता हैं भाई ।
सही कह रहे हैं डॉ. दराल जी और बाकी बचे हिन्दी चिट्ठाकार या तो बन चुके हैं अथवा बनने की प्रक्रिया में हैं।
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी वैसे संतोष जी से खड़े होकर भी ग़ज़ल लिखना सीखा जा सकता है, वे ग़ज़ल तो ऐसे लिखते हैं जैसे गाज़र का हलवा बना रहे हों स्वादिष्ट एवं जायकेदार।
@पर किसी मोहरे से नहीं ,मात खाए हम !६!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन है जी...
हाथ आजमाते रहिये - गज़ल में भी..बढिया लगी.
@ अविनाश जी यह हलुवा आपका ही बनाया हुआ है !
जवाब देंहटाएं@ दीपक बाबा आपका साथ रहा तो हाथ भी हमारे साथ होगा !
बढ़िया गज़ल ..
जवाब देंहटाएंकई साल से मसल्सल ,वे पीटते रहे,
गाँधी के नाम थप्पड़ ,रोज़ खाए हम !३!
बढ़िया व्यंग
सरल शब्दों में शानदार गजल कही है आपने। बधाई।
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ये किसानी आँख, अनधुली बासी..
क्यों नहीं मिल रही कैंसर के सफल इलाज को मान्यता?