23 दिसंबर 2013

सर्दी के रंग

१)
सर्द सुबह
मफलर बाँधे हुए,
शहर की सुनसान सड़क पर
कोहरे के साथ
आँखमिचोली करना
कभी कभी अच्छा लगता है।


२)
सर्दी की शाम
छप्पर के नीचे
अलाव तापते हुए
आलू भूनता हूँ,
कभी कभी बुढ़ापे में
अपने मन की सुनता हूँ।


३)
पीठ पर भारी बस्ता लादे
सुबह-सुबह निकलते हैं बच्चे,
कोहरे को चीरते हुए
नन्हें नन्हें पाँव बढ़ाते हैं,
हाथ की लकीरें मिटाते हैं !


 

24 नवंबर 2013

बहुत कठिन समय है साहब !

बहुत कठिन समय है साहब,

पता नहीं कब,कौन पत्रकार तरुण
और ईमानदार केजरीवाल हो जाए,

सब कुछ दांव पर है,
पता नहीं कब कोई संत आसाराम
और राजनीति साहब हो जाए !

बहुत कठिन समय है साहब,
पता नहीं
कब कोई सामाजिक योद्धा
कार्पोरेट पत्रिका का संपादक
और कोई न्यायाधीश मुजरिम बन जाए !! 

बहुत कठिन समय है साहब ,
पता नहीं कब पहरेदार लुटेरा
और चोर चौकीदार हो जाए !!

21 अक्तूबर 2013

धर्म,धर्मनिरपेक्षता और धर्मान्धता !



हमारा देश जब आज़ाद हुआ था तो इसके आधार में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की अवधारणा मुख्य रूप से थी ।उस समय देश के नव-निर्माण और सृजन में जो लोग अगुवाई कर रहे थे,उनने कुछ विरोधों के बावजूद ऐसा स्वरुप स्वीकारा था ,जो आगे चलकर हमारे देश की मुख्य पहचान (यूएसपी) सिद्ध हुई ।किसी देश में धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व के लिए वहाँ की बहुसंख्य आबादी के बजाय वहाँ के रहनुमाओं की सांविधानिक और लोकतान्त्रिक निष्ठा जिम्मेदार होती है,इसके उदाहरण पाकिस्तान और इंडोनेशिया से समझे जा सकते  हैं।अपने देश में गाहे-बगाहे,खासकर चुनावों के समय धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस ज़ोर पकड़ लेती है अब यह इतना अपरिहार्य तत्व हो चुका है कि इसके आलोचक भी खुले-आम इसकी ज़रूरत पर बल देते हैं।वे भी अब अपने को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बताने लगे हैं।धर्म,धार्मिकता,धर्मनिरपेक्षता और धर्मान्धता पर अपनी राय कुछ इस तरह से है।

धर्म का सीधा मतलब खास पूजा-पद्धति से लगाया जाता है।उस धर्म का प्रतीक विशेष ईश्वर होता है और हम मानते हैं कि उसको मानने वाला उस खास धर्म का अनुयायी है।दरअसल,धर्म का अर्थ किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन के आचरण को प्रभावित करने में सहायक होता है।इससे उसे वह दिशा मिलती है जो सन्मार्ग पर ले जाती है।धार्मिक व्यक्ति कभी प्राकृतिक या मानवीय नियमों का उल्लंघन नहीं करता।वह धर्म से यह सीखता है कि उसके अतिरिक्त जो भी व्यक्ति हैं,चाहे वे किसी भी जाति,धर्म या क्षेत्र के हों,बिलकुल उसी के जैसे हैं।वह मानवजनित खांचे (जाति-धर्म) के आधार पर भेदभाव नहीं करता।धर्म सभी को जोड़ता है,तोड़ता नहीं।किसी धर्म की दूसरे धर्म से तुलना ही गलत है।यह जीवन-शैली का साधन-मात्र है।जो लोग पूजा-पाठ नहीं करते और मानवीय स्वभाव रखते हैं,वे सबसे बड़े धार्मिक हैं।

जब तक व्यक्ति धर्म को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रखता है,उसमें स्वयं को सुधारने की ललक होती है ,वह विनम्र होता है।जब व्यक्ति धर्म को सामूहिक रूप से देखने का भाव आने लगता है,उसमें धार्मिकता आ जाती है,वह दूसरों के प्रति तुलनात्मक हो उठता है।धार्मिकता का अतिवादी रूप ही धर्मान्धता में परिणित हो जाता है।स्वयं के लिए धार्मिकता नुकसानदेह नहीं है,पर धीरे-धीरे धर्मान्धता इसे अपनी ओर खींचने का प्रयास करती है।धर्मांध व्यक्ति धार्मिक तो होता ही नहीं,वह साधारण व्यक्ति भी नहीं होता।वह मानव और प्रकृति दोनों का शत्रु होता है।वह अपने निजी विचार और मत को धर्म के नाम पर दूसरों पर थोपने का प्रयास करता है।धर्मान्धता दरअसल,स्वयं की सबसे बड़ी शत्रु होती है।

धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब अधार्मिक होना नहीं होता।जो धार्मिक होगा,वस्तुतः वही धर्मनिरपेक्ष होता है।इसमें व्यक्ति स्वयं के आचरण को सुधारने के लिए धार्मिक होता है पर दूसरों की जीवनशैली में बाधक नहीं बनता,न ही उनके जीवन में किसी प्रकार का दखल देने का यत्न करता है। धार्मिक होते ही हम हिन्दू,मुस्लिम या ईसाई बनने लगते हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष होने पर हम कहीं अधिक मानवीय होते हैं,मानव-धर्मी होते हैं।सच्चा धार्मिक कभी दूसरे धर्म या धर्मी को कमतर नहीं समझता।इसलिए व्यक्तिगत जीवन में धर्म बहुत महत्वपूर्ण है।हम सबका धर्म अंततः मानवता-प्रेमी ही होना चाहिए क्योंकि जब मानवता ही नहीं रहेगी,कोई धर्म नहीं बचेगा।

 

 

9 अक्तूबर 2013

नारी-शक्ति के मायने !

जब नारी-शक्ति की बात होती है तो सामान्य लोग इसे लैंगिक आधार पर देखने लगते हैं। इस तरह उनको लगता है कि यह स्त्री के पुरुष से अधिक शक्ति की बात है,जबकि ऐसा नहीं है। नारी सृजन का पर्याय है और सृष्टि में संतुलन के लिए वह अपनी शक्ति का प्रयोग करती है। इसमें सृजन और संहार दोनों समाहित हैं। इस प्रक्रिया में पुरुष भी एक तत्व है पर इसका मतलब नारी उसके विरुद्ध है,उचित नहीं है।
नर-नारी की तुलना करने के बजाय नारी-शक्ति को समझना चाहिए। लैंगिक आधार पर गुण-अवगुण दोनों में विद्यमान होते हैं पर सृजन के आधार-स्तंभ के रूप में  देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि लैंगिक-दृष्टि से देखने पर हम नारी के अर्थ और उसकी महत्ता को संकुचित कर देते हैं। शक्तिस्वरूपा नारियों ने बिना कोई लिंगभेद किए आसुरी-प्रवृत्तियों का नाश किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नारी को शक्ति कहने के पीछे कोई पुरुष-विरोधी मानसिकता नहीं है। यह भी सही नहीं है कि नारी को हम देवी-स्वरूप देकर उसे केवल पूजा-पाठ की वस्तु मान लें। अतीत में समाज के कुछ चतुर लोगों ने अवश्य यह जाल फ़ैलाने का प्रयास किया और वही मानसिकता अभी तक बरक़रार है। नारी पर फूल-माला चढ़ाकर उसे एक प्रतिमा में बदल देना उसके अस्तित्व को बाँध देना है।
 
समाज में लैंगिक भेदभाव के चलते नारी को प्रमुखता न दिए जाने से उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता । मुख्य बात यह है कि कोई भी अपनी सत्ता को क्यों छोड़ना चाहेगा ? यह आज हर क्षेत्र में हो रहा है,इसके लिए स्वयम को पहचानना होता है,तभी अधिकार मिलते हैं। जब तक आप अधिकार देने की बात करेंगे,देनेवाले को आप स्वतः महान बना देते हैं। कौन से अधिकार नारी के लिए उचित हैं या अनुचित हैं,इसका निर्णय भी वही ले सकती है। समाज में नारी की स्वतंत्रता को लेकर जो हल्ला मचता है,दरअसल वो निरर्थक और अनुचित है। नारी आज अपनी स्वतंत्रता और उसका दायरा बाँधने के लिए स्वयं सक्षम है। स्वतंत्रता की इस राह में उसे यदि खुली हवा के झोंके मिलेंगे तो अंधड़ के थपेड़े भी। समाज इस विषय में अपना विचार तो दे सकता है पर अध्यादेश नहीं जारी कर सकता।
 
नारी को हम जब तक केवल  लैंगिक  आधार पर ही देखते रहेंगे,हर बात पर पुरुष से तुलनात्मक अध्ययन करते रहेंगे,वह अबला और शोषित बनी रहेगी। साहित्य और समाज में नारीवाद का अलग खेमा बनाकर हम नारी-शक्ति को केवल सीमित और प्रतिस्पर्धी बना रहे हैं। नारी समाज का कोई खेमा या वाद भर नहीं है। यह समाज की सूत्रधार है। इसलिए उसकी अपनी महत्ता है,उसे किसी से मांगने की ज़रूरत नहीं है।  
 

25 सितंबर 2013

वर्धा-सम्मलेन के सबक !

कार्यक्रम की शुरुआत
 

महात्मा गाँधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,वर्धा द्वारा आयोजित हिंदी ब्लॉगिंग पर  दो दिवसीय संगोष्ठी (२०-२१ सितम्बर २०१३) कई मायनों में अविस्मरणीय और उपलब्धिपूर्ण रही.हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया के इस पर होने वाले प्रभावों पर जमकर बहस और चर्चा हुई.विशेष रूप से इस आयोजन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि 'चिट्ठासमय' की संकल्पना का साकार होना रहा.विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय जी ने इसके लिए एक समयबद्ध प्रारूप तैयार करनी की घोषणा की जो हिंदी ब्लॉगिंग में लम्बे समय से एक अच्छे एग्रीगेटर की कमी को पूरा करेगा.यह उम्मीद की जानी चाहिए कि १५ अक्टूबर तक 'चिट्ठासमय' अपना काम करना शुरू कर देगा.विश्वविद्यालय ने पहले से ही राय जी के नेतृत्व में हिंदी समय  के माध्यम से हिंदी साहित्य के करीब एक लाख पृष्ठ अंतर्जाल पर उपलब्ध करा रखे हैं.कुलपति महोदय ने यह भी जानकारी दी कि इस साइट के जरिये सामग्री डाउनलोड करने की भी सुविधा है.

इस सम्मलेन में जिन बातों पर विमर्श हुआ उनमें महत्वपूर्ण बात यह रही कि फेसबुक,ट्विट्टर आदि सोशल साइटों से ब्लॉगिंग को नुकसान पहुँच रहा है या नहीं.बहुत से लोगों की आशंकाओं को सिरे से खारिज किया गया.इस चर्चा में जो मुख्य बातें उभरकर सामने आईं वे ये रहीं कि ब्लॉग मुख्य रूप से सोशल मीडिया का काम करता है.यह फेसबुक,ट्वीटर से बिलकुल अलग माध्यम है.जहाँ फेसबुक और ट्विट्टर 'तुरंता-मीडिया'(इन्स्टैंट मीडिया) का काम करते हैं,चलते-फिरते,खाते-पीते,विमर्श करते हुए आप अपने विचारों या सूचनाओं को साझा कर सकते हैं,वहीँ ब्लॉग पर थोड़ा ठहरकर,चिंतन-मनन कर,गंभीर और विस्तृत तरीके से बात कही जा सकती है.इस नाते इसका स्थायित्व भी अधिक है.इसलिए ब्लॉग को अन्य किसी माध्यम से कोई खतरा नहीं है,बल्कि फेसबुक और ट्विट्टर इसके एग्रीगेटर बनकर इसकी पहुँच को और व्यापक कर सकते हैं.

ब्लॉगिंग एक विधा है  या माध्यम ,इस पर कई लोगों में असहमतियां रहीं.डॉ. अरविन्द मिश्र जहाँ इसे नई और भिन्न सुविधाओं से लैस विधा मान रहे थे,वहीँ डॉ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी  इसे विधाओं का समुच्चय के पक्ष में तर्क दे रहे थे.इष्टदेव सांकृत्यायन भी इस पक्ष में लग रहे थे.
प्रवीण पाण्डेय इसे कुछ अर्थों में ही विधा मानने को तैयार थे.दूसरी ओर अनूप शुक्ल ,हर्षवर्धन त्रिपाठी और मैं ब्लॉगिंग को एक उन्नत माध्यम ही स्वीकार रहे थे.इसके पक्ष में हर्षवर्धन त्रिपाठी ने सबसे ज़ोरदार तर्क दिए और अपनी बातों से साबित करने की कोशिश की कि यह समाचार पत्र,रेडियो या दूरदर्शन की तरह एक संचार का एक 'टूल' या माध्यम है.बहरहाल अंत में यह सहमति बनी कि इसे विधा या मीडियम के पचड़े में नहीं डालना चाहिए और हम सबको नियमित व सार्थक ब्लॉगिंग पर फोकस करना चाहिए.

एक विमर्श सोशल मीडिया के राजनीति में योगदान पर भी ख़ूब हुआ.इसमें सबकी सहमति इस बात पर थी कि आज की राजनीति का मुद्दा बदलने व उसकी दिशा को मोड़ने तक की हैसियत में यह न्यू मीडिया आ गया है.इसमें हमें अपने-आप थोड़ा सावधानी से काम करते हुए अपना योगदान करना होगा अन्यथा समाज में विद्वेष फ़ैलाने वाली बातें इसको नुकसान पहुँचा सकती हैं.सरकार इस बहाने कई पाबंदियां और मुश्किलें खड़ी कर सकती है.इस सत्र में विशेष रूप से अनिल सिंह रघुराज,संजीव तिवारी, ललित शर्मा, संजीव सिन्हा और पंकज झा ने भाग लिया.

हिंदी ब्लॉगिंग में साहित्य की स्थिति पर भी ख़ूब विमर्श हुआ.इसमें अशोक प्रियरंजन और मनीष मिश्र के विचार सबसे अधिक प्रभावी लगे.हम सभी को प्राचीन साहित्य को नई पीढ़ी के सामने लाने के लिए उसे धीरे-धीरे ब्लॉग के माध्यम से लाना होगा.कविता,कहानी या साहित्य की अन्य विधाओं में लोग ख़ूब लिख रहे हैं पर स्तरीय-लेखन का ध्यान रखना होगा.

इस सम्मलेन में दुतरफा काम हुआ .जहाँ एक तरफ़ लेखन में प्रवीण पांडेय,अनूप शुक्ल ,अरविन्द मिश्र ,अविनाश वाचस्पति,कार्तिकेय मिश्र ,डॉ प्रवीण चोपड़ा आदि ने अपने अनुभव साझा किए वहीँ तकनीक के क्षेत्र में आदि चिट्ठाकार आलोक कुमार,चिट्ठाजगत के विपुल जैन,शैलेश भारतवासी आदि ने ब्लॉग बनाने व कम्प्यूटर में हिंदी-लेखन पर प्रयोगात्मक-शिक्षण दिया.विश्वविद्यालय के छात्रों को व्यक्तिगत रूप से इसका बहुत लाभ हुआ.कई पुराने ब्लॉगर्स ने भी अपनी जानकारी नई की.

इस सम्मलेन में इण्डिया टुडे की फीचर -एडिटर मनीषा पाण्डेय और वंदना दुबे अवस्थी ने स्त्री-विमर्श को आवाज दी.इसी बहस में शकुंतला शर्मा व शशि जी ने भी योगदान किया.

गाँधी और विनोबा की कर्मभूमि पर बने इस विश्वविद्यालय को इसके कुलपति के रूप में ऐसी विभूति मिली हुई है जिसने हिंदी ख़ासकर हिंदी-ब्लॉगिंग के लिए अपेक्षा से अधिक रूचि दिखाई.अधिकतर ब्लॉगर्स की माँग थी कि ब्लॉगिंग में एग्रीगेटर की बेहद कमी महसूसी जा रही है,इस बात को उन्होंने सहृदयता से लिया और वहीँ 'चिट्ठासमय' की घोषणा कर दी.देश भर से आए हुए आगंतुकों का उन्होंने भरपूर आतिथ्य किया.कई लोगों को व्यक्तिगत रूप से वहाँ का पर्यटन भी करवाया.इस
सबके पीछे कार्यक्रम के संयोजक सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी साधुवाद के पात्र हैं,जिन्होंने इस आयोजन को
उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में अपना योगदान किया.


बैठक-स्थल पर पहुँचते हुए


नई-पुरानी पीढ़ी


समापन-सत्र


प्रकृति के संग


अकादमिक के संग प्रिंट मीडिया व अंतरजाल


बैठक-दृश्य

 

16 सितंबर 2013

मोदी बनाम अडवाणी

मोदी के सर ताज है,अडवाणी कंगाल।
खुद का बोया काटते,काहे करें मलाल ?
काहे करें मलाल,बताया जिन्ना सेकुलर।
तिकड़म  सब बेकार, रहे ना हिन्दू कट्टर।
अब काहे रिरियांय,फसल जो पहले बो दी।
कट्टरता का खेत, काटने आए मोदी।।

 

5 सितंबर 2013

अंकल सैम का अमन !

हमले की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं,
रुक्के हाथ में आ गए हैं,
सबकी सहमति दर्ज़ कर ली गई है,
मित्र देशों ने गरदनें हिला दी हैं
बस ,
अब अंकल सैम का हाथ
मिसाइल की बटन दबाने को बेताब है,
फिर सीरिया में धमाके के साथ शांति
और सारे संसार में चुप्पी छा जाएगी,
इस तरह दुनिया खुशहाल हो जाएगी
  

2 सितंबर 2013

बाबा के रंग अनेक !

चौदह दिन बैकुंठ में,रहे अप्सरा संग।
बाबा पूर्ण पवित्र हो,नहीं शील हो भंग।।:)


चोला ओढ़े संत का, सीख जगत को देत।
पुड़िया बेचें धरम की,जनता बनी अचेत।
जनता बनी अचेत,हो रहे हैं सब अन्धे।
नेता, बाबा संग,चलातेअपने धन्धे।
ईश्वर भी हैरान,देख मन ही मन बोला।
मनुज नहीं ये निसिचर, धारे नकली चोला।।


मुझे सहानुभूति है उस नाबालिग से
जिसने हैवानियत की मिसाल कायम की,
मुझे दया आती है उस बाबा पर
जिसने संतई पर कालिख पोत दी,
मुझे सहानुभूति है हर उस मानव से
जिसने मानवता खोकर
व्यर्थ कर दिया अपना सृजन,
नष्ट कर दिया सृष्टि की अनुपम कृति,
और करा दिया अहसास अपने बीज का।
मुझे सहानुभूति है उसके निर्माता से,...
उसके पालकों और सेवकों से,
दुनिया के सबसे गरीब और असहाय
इस समय वे ही हैं।



28 अगस्त 2013

मोहन और मनमोहन !

१)

बड़ी देर भई नंदलाला,तेरी राह तके हर ग्वाला.....!
देश की जनता भूखी-प्यासी,मौज उड़ायें लाला।
तुमने एक कंस मारा था,यमुना विषधर काला,
आज सर्प सर्वत्र विराजे,जनता बने निवाला।
फिर मुरलीधर चक्र सुदर्शन,उर वैजन्ती माला,
त्राहिमाम्, अब शरण तिहारी, तू ही है रखवाला।।
बड़ी देर भई नंदलाला।


२)

सोना नींद हराम केहे
औ रुपिया धरती फारे ,
बड़-बड़ी होइ गईं  हवा ,
गरियारु बैलु काँधा डारे।।
अब कउनो राह न सूझति है,
दिन मा ही अंधियारु भवा,
मनमोहन चुप्पे  देखि रहे,
काटु करै अब कउनि दवा ?


३)

 
मोहन आकर तुम्हीं उबारो,मनमोहन अब हारे।
धर्म,अर्थ की ग्लानि हुई,भक्त बने बेचारे।।
मुरली मधुर बजाओ अपनी,घर-घर ,द्वारे-द्वारे।
प्राण फूँक दो तुम रूपये में,अब तो तुम्हीं सहारे।।




 
 

5 अगस्त 2013

सामयिक दोहे !

बादल झाँकें दूर से,टिलीलिली करि जाँय।
बरसें प्रीतम के नगर,हम प्यासे रह जाँय।।


माटी की सोंधी महक,हमें रही बौराय।
बदरा प्रियतम सा लगे,जाते तपन बुझाय।।

बारिश आखिर आ गई,भीगा सारा अंग।
चोली चिपकी बदन ते,रति के संग अनंग।।


सत्ता की कुर्सी मिले,रामलला की ओट।
राघव कारागार में,कैसे माँगें वोट।।


दाम टमाटर के बढ़े,आसमान की ओर।
भिंडी का मुँह ताकती, धनिया के मन चोर।।


फेंकू अपने घर गये,पप्पू देहरादून।
राजनीति की आपदा,चूसे सबका खून।।


छाती फटी पहाड़ की,धरती हुई अचेत।
बहती नदी ठहर गई,मुनिया फाँके रेत।।

26 जुलाई 2013

धरतीपकड़ फ़िर मैदान में !


'कलयुग के भगवान तुम्हारी जय हो ! तुम्हारे पास चमचमाती कार है, आलीशान बंगला है ढेर सारा रूपया है ... लजीज व्यंजन खाते हो ... विदेशी शराब और अर्द्धनगन सुन्दरियां तुम्हारी शाम को हसीन बनाती है।तुम्हारी काबिलियत तुम्हारे पुरुषार्थ की पृष्ठभूमि है ....कौन है इस जग में भूप ,जो तुम्हारी नंगई को नंगा कर दे , जो तुम्हें नंगा करने की सोचेगा खुद नंगा हो जाएगा । आदमी सादा जीवन की विचारधारा का पैरोकार होता है इसलिए तुम्हें जी खोलकर लूटने का अधिकार होता है ,तुम्हारी महिमा अपरंपार है नेताओं ।इतना कहकर निर्दलीय जीने हवन कुंड में दुबारा फिर घी डालते हुए कहा -


ओम श्री मुद्राय नमः।।'
 
'सबकी अपनी-अपनी प्रॉब्लम है  भारत की गरीबी को सबसे बड़ी प्रॉब्लम बताने वाला एक डाकू टाईप बन्दा कल बता रहा था कि मैं और मेरे साथियों ने बड़ी मुश्किल से एक बस को लूटा , मगर हाय री हिन्दुस्तान की गरीबी पूरी बस से केवल अड़तीस हजार ही जुट पाए अब थानेदार को लूटने के एवज में पचास हजार कौन दे इसलिए मैंने सारे पैसे यात्रियों को लौटा दिए ...'
 
 
का करोगे रामभरोसे, राजनीति मथुरा  का पेड़ा है, आगरा का पेठा, लखनऊ की रबडी है, मनेर का खाजा । राजनीति है ही ससुरी ऐसी मिठाई कि जो चख लेता है  ऊ ससुरा चोर हो जाता है ।  अऊर त अऊर राजनीति में चोरी-चमारी करने से इज्जत बढ़ती है न कि घटती है   बोले निर्दलीय जी !
 
 
ये कुछ अंश हैं ,रवीन्द्र प्रभात जी के सद्यःप्रकाशित होने वाले व्यंग्य उपन्यास के ,जो हिंद-युग्म से प्रकाशित होकर आ रहा है .प्रकाशक ने बड़े पैमाने पर इसके वितरण की योजना बनाई है.जो भी अंश हमने पढ़े हैं,संकेत मिलहै कि इस उपन्यास का कथानक चाहे जैसा हो,भाषा और शिल्प के लिहाज़ से बड़ा मज़बूत और प्रभावी होगा.इसमें बोलचाल के लिए बेहद आत्मीय और सहज शैली अपनाई गई है.जिस तरह हम आपस में बातचीत करते हैं,ठीक उसी तरह.इस व्यंग्य उपन्यास में देशज शब्दों के जरिये तीखापन लाया गया है,जो पठनीयता को और आकर्षक बनाता है.इससे ज़्यादा और कहना अभी ठीक नहीं लगता पर व्यंग्य-लेखन के क्षेत्र में होने के कारण मुझे भी इसके आने का बेसब्री से इंतज़ार है.इसकी बुकिंग के जो शुरूआती रुझान मिले हैं,प्रकाशक के मुताबिक बहुत उत्साहजनक हैं.
 
हिंद-युग्म ने इस उपन्यास की प्री-बुकिंग के लिए कुछ साइटों को चुना है,जहाँ से यह रियायती दामों पर बुक कराई जा सकती है.इस पेपरबैक पुस्तक का मुद्रित मूल्य 95/- है पर इसे होमशॉप से महज़ 68/- में बुक कराया जा सकता है.एक और बात ,यह पैसा इसकी डिलीवरी के समय ही दिया जायेगा.
पाठकों की सुविधा और उनके आर्थिक हितों के लिए यहाँ पर केवल होमशॉप 18 का लिंक दिया जा रहा है,जहाँ पर यह सबसे कम दर (मात्र ६८ रूपये) में उपलब्ध है.
 
रवींद्र प्रभात जी को इस रचना-कर्म पर बधाई !
 
 
 

27 जून 2013

लिखने का माध्यम और सरोकार !


 
कई बार यह बहस उठती है कि अभिव्यक्ति के लिए कौन-सा माध्यम उचित है या सबसे उत्तम है,पर मेरी समझ से मूल प्रश्न यह होना ही नहीं चाहिए। हर माध्यम की अपनी सम्प्रेषणता होती है और पहुँच भी। बदलते समय और नई तकनीक के साथ इसमें भी उत्तरोत्तर बदलाव हो रहा है। यह सहज और स्वाभाविक प्रकिया है। इससे,पहले वाले या परम्परागत माध्यमों की उपयोगिता या प्रासंगिकता खत्म नहीं हो जाती। यह व्यक्तिगत रूप से इसका उपयोग करने वाले पर निर्भर है कि उसे किस माध्यम में सहजता और सहूलियत होती है। माध्यमों के बदलने से लिखने वाले के सरोकार नहीं बदल जाते। इसलिए लेखक के सरोकार हर माध्यम से जुड़े होते हैं। इसलिए लेखक के लिखे पर या कंटेंट पर बहस तो ठीक लगती है पर माध्यम के साथ उसके सरोकारों पर सवाल उठाना उचित और तर्कपूर्ण नहीं है।
कुछ लोग फेसबुक ,ट्विटर या ब्लॉगिंग को आपस में गड्डमड्ड कर देते हैं। उनके अनुसार ये तीनों माध्यम एक जैसा उद्देश्य पूरा करते हैं,पर सच तो यह है कि तीनों एक-दूसरे के विकल्प नहीं हैं। ये आपस में अच्छे पूरक बन सकते हैं। एक छोटी मगर महत्वपूर्ण बात को जल्द से जल्द पूरी दुनिया में ट्विटर के द्वारा अधिक सुगमता से फैलाया जा सकता है। किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा-परिचर्चा के लिए,बहस-मुबाहिसे के लिए फेसबुक सबसे अच्छा माध्यम है,पर यह इसकी उम्र इस लिहाज़ से कम है क्योंकि अगले अपडेट के साथ ही यह संवाद बिला-सा जाता है । ब्लॉग पर हम अपनी बात पूर्ण रूप से व सहज ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। इसमें आपसी संवाद की भी गुंजाइश होती है और इस पर कहा-लिखा गया ढूँढना भी मुश्किल नहीं होता।
इन तीनों माध्यमों से आगे का माध्यम प्रिंट-मीडिया है। यह इन तीनों का विकल्प नहीं है क्योंकि यह इनसे पहले भी था और इनके बाद भी है। तमाम इलेक्ट्रोनिक और इन्टरनेटीय विकल्प होने के बावजूद प्रिंट मीडिया की पठनीयता लगातार बढ़ी है। ऐसा नहीं है कि सोशल साईट पर लिखने वाले और प्रिंट मीडिया में लिखने वालों के सरोकार अलग होते हैं। सबका उद्देश्य यह होता है कि उसके द्वारा प्रेषित सूचना अधिकाधिक लोगों तक पहुँचे और विश्वसनीय तरीके से भी। प्रिंट मीडिया विश्वसनीयता के मामले में अभी औरों से काफ़ी आगे है। अखबार और पत्रिका में छपा हुआ पाठक को अधिक विश्वसनीय लगता है क्योंकि अंतरजाल में जबरदस्त ‘पाइरेसी’ के चलते कई लोग शंकित रहते हैं। किसी के लिए भी उसका प्रिंट में छपना स्वाभाविक रूप से आकर्षित करता है। साथ ही यदि अर्थ-लाभ भी हो रहा है तो इसमें हर्ज़ भी क्या है ? ज़रूरी बात यह है कि लेखक जो लिख रहा है,उससे समाज को,देश को कुछ मिल रहा है कि नहीं।
लेखक के सरोकारों पर सवाल उठाना गलत नहीं है,जब यह लगे कि उसका लेखन किसी भी तरह मानवीय सरोकारों से बहुत दूर है। कोई भी व्यक्ति आत्म-मुग्धता के लिए या ‘स्वान्तः सुखाय’ लिखता है,तो अनुचित नहीं है पर यदि उसके लिखे से सामाजिक या मानवीय सरोकार पूर्ण होते हैं,तो वही टिकाऊ साहित्य बन जाता है। हर माध्यम में कुछ लोगों के सीमित सरोकार भी होते हैं,इनमें कोई लाल,केसरिया तो कोई हरा झंडा थामे रहता है। ऐसे लोगों को उस व्यक्ति के लेखन से बड़ी तकलीफ पहुँचती है,जो उसके एजेंडे को पूरा नहीं करता। यदि पाठक अपना एजेंडा तय करने के लिए स्वतंत्र हैं तो लेखक क्यों नहीं ? कहने-लिखने का माध्यम कुछ भी हो सकता है,इससे लेखक की निष्ठा या उसके सरोकार पर संदेह करना अनुचित है।

16 जून 2013

ओ मेरे पिता !

ओ मेरे पिता
तुमने हर दुःख सहा
माँ से भी ना कहा
कंधे पर लादकर
बोझ मेरा सहा।
घोड़ा बने,
संग खेले मेरे,
मैंने मारी दुलत्ती
सब खिलौने मेरे।
मुझको मेला घुमाया
हर कुसंग से बचाया
दिल के अंदर भरे प्यार को
सारे जग से छुपाया।
मुझमें उम्मीद दी
रोशनी दी हमें,
मेरे अस्तित्व को
एक पहचान दी।
खुद को मिटाकर
पसीना बहाकर
मुझे माँ से मिलाया
संस्कृत किया,
स्वयं को तपाकर  
ज़हर सब पिया
मुझको अमृत दिया।
 
पिता ओ पिता !
तुम नहीं हो अलग।
रूप बदला भले
पर मुझमें तेरी झलक।
चाहे जो कुछ करूँ
नहीं तुमसे उरिन,
यह जीवन तुम्हारा
है तुम बिन कठिन।
ओ मेरे पिता !

15 जून 2013

'तार' से बेतार होना !

'नई दुनिया' में १५/०६/२०१३ को प्रकाशित ! 


जब से हमने यह सुना है कि थोड़े ही दिनों में तारयानी टेलीग्राम का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा,दिल भारी हो रहा है।वैसे तो इस तारसे हमारे तार बहुत पहले ही टूट चुके थे,फ़िर भी उसका ऐसे जाना खल रहा है।पहले फिक्स फ़ोन और फ़िर मोबाइल फ़ोन के वज़ूद में आने के बाद से ही तारका चलन समाप्त-प्राय सा हो गया है ।नए ज़माने की तकनीक से मीलों दूर बैठे हम आमने-सामने बात कर सकते हैं पर शायद अब जीवन उतना सहज नहीं रह गया है।आज हम चौबीसों घंटे एक-दूसरे से तकनीक के माध्यम से जुड़े रहते हैं, जिससे कई फायदे हैं तो नुकसान भी ।नई तकनीक का सकारात्मक पहलू यह है कि हम अपने प्रियजनों से हर समय रूबरू रहते हैं वहीँ इसका नकारात्मक पक्ष यह भी देखने में आया है जब वेबकैम के सामने कोई प्रेमी अपनी मौत का सीधा प्रसारण कर देता है।

तारका आना कभी सहजता या सामान्य समाचार का प्रतीक नहीं रहा।पुराने समय में जब गाँव में डाकिया तारकी सूचना लाता तो प्रकटतः कुहराम-सा मच जाता।वह केवल इतना बताता कि फलां के नाम तारआया है और उसे डाकबाबू ने बुलाया है।परिवारीजन और आस-पड़ोस में यह खबर बड़ी तेजी से फैलती और लोग किसी अनिष्ट की आशंका करने लगते।थोड़ी देर बाद किसी प्रियजन की गंभीर बीमारी या मौत की खबर आती।शायद ही कभी यह तारकिसी की नौकरी या खुशखबरी की खबर लाया हो !एक पुरानी फिल्म में तारका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है,जब घर के लोग बिना पढ़े ही ,‘तारपाने के साथ रोना-धोना शुरू कर देते हैं।बाद में मास्टरजी तारपढ़कर बताते हैं कि घर का लड़का वकील बन गया है तो अचानक मातम खुशी में बदल जाता है।उस समय लोग अधिकतर तारका इस्तेमाल किसी अहैतुक घटना पर ही करते थे ,इसलिए जब भी तार’ की खबर आती,लोग किसी अनिष्ट की आशंका से घबड़ाने लगते।

उस दौर में तारने कभी सामान्य कुशल-क्षेम या प्यार-इज़हार की खबर नहीं दी।इस तरह इसकी छवि आतंकित-सी करती थी।अब दिन-रात बातें तो होती हैं पर खबर या सन्देश लायक कुछ नहीं बचा।मन में जो गुदगुदी चिट्ठी से या कभी-कभार फ़ोन से आती थी,वह इस संचारी-समय में गायब है।लगभग हर समय एक-दूसरे के संपर्क में रहने के कारण संवाद में हम सपाट और बेतकल्लुफ होते हैं और रोमांचहीन भी।इस असहज और अस्त-व्यस्त सी ज़िन्दगी में तारकी भूमिका अपने आप नगण्य हो गई।बेतार’(वायरलेस) के आने के साथ ही वह तारनिष्प्राण हो गया,जो स्वयं कभी किसी के निष्प्राणहोने की सूचना देने का मुख्य जरिया बना करता था।

तारका जाना महज एक साधन का जाना भर नहीं है।इससे बहुत से लोगों के सुख-दुःख जुड़े हुए थे।इसने कई पीढ़ियों को बदलते और रोते-कलपते देखा।यह कई घरों के उजड़ने का गवाह रहा तो वहीँ दूर-देश से प्रियतम की खबर का माध्यम भी बना।इस तरह तारभले ही कभी-कभी अपनी सेवा देता था,पर एक तसल्ली भी देता था कि अगर कुछ गड़बड़ होगा तो तारज़रूर आएगा।ऐसे में यह न आकर भी कुशल-क्षेम का बायस तो बनता ही था।यानी यह हमारे जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा बन गया था।

आज भले ही हम नए ज़माने के यंत्रों को हमेशा अपने साथ रखते हैं,फ़िर भी उनसे उस तरह का जुड़ाव नहीं हो पाया है,जैसा कि तारया चिट्ठीके मामले में होता था।चिट्ठीया पातीभी अब गुजरे जमाने की बात हो चली है,पर औपचारिक रूप से उनका अस्तित्व अभी खत्म नहीं हुआ है।तारका यूँ चले जाना भले नई पीढ़ी के लोगों को न अखरे पर जिनका इससे आत्मीय जुड़ाव रहा है,उनके लिए इसका निधनअपने ही किसी आत्मीय के जाने जैसा है।ऐसे में हमारा बेतारहोना दुखद नहीं तो क्या है ?
 

8 जून 2013

हो रहा 'भारत-निर्माण' ?


जिस समय देश के सभी नेता आने वाले समय में लोकतंत्र और देश की सेवा के नाम पर होने वाले पांच-साला पाखंड की तैयारियों में व्यस्त हैं, वहीं देश की राजधानी दिल्ली से एक ऐसी खबर आती है, जिससे इन सबका कोई सरोकार नहीं है। राजधानी की अनधिकृत बस्ती में रहने वाले एक निम्नवर्गीय परिवार का मुखिया पत्नी और बच्चों की प्यास बुझाने के लिए दो किलोमीटर दूर से पानी लाते समय अपनी जान गंवा देता है। बीस लीटर पानी को अकेले ढोकर लाने में उसका दम ऐसा फूलता है कि घर के आंगन में पहुंचते ही वह खामोश हो जाता है। ऐसे में उसकी पत्नी और बच्चों पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पानी की प्यास ने एक परिवार की खुशी छीन ली। सरकार और व्यवस्था जनता के प्रति अपने सरोकारों के नाम पर जनता के साथ छल करने में व्यस्त है। ऐसा लगता है कि सरकार और सरोकार दोनों दो विपरीत ध्रुव की कहानी बनते जा रहे हैं। किसी भी जीव के लिए हवा और पानी बुनियादी और सबसे जरूरी चीजें हैं, पर आजादी के बाद से अब तक हमारी तमाम सरकारें यह भी सुनिश्चित कराने में विफल रही हैं। मीडिया की जिम्मेदारी बस इतनी रही कि  एकाध अखबारों के किसी कोने में इस खबर को छोटी-सी जगह मिल गई।उपर्युक्त घटना में पानी की अनुपलब्धता मौत का कारण बनी।

लेकिन क्या सचमुच पानी का इतना अभाव है कि एक इंसान को इसके लिए दूरदराज के इलाकों के साथ-साथ देश की राजधानी दिल्ली में भी कई-कई किलोमीटर सफर करना पड़े और इसी की वजह से जान गंवानी पड़े? कभी हर सौ-दो सौ मीटर पर सड़कों के किनारे लगे नल की टोंटी पानी की जरूरत के सवाल पर सरकार का चेहरे में मानवीयता के भी शामिल होने का सबूत हुआ करती थीं। आज घर में तो बीस लीटर के बोतलबंद पानी पर निर्भरता लगभग तय हो ही चुकी है, घर से सड़क पर निकल गए तो बिना जेब ढीली किए प्यास नहीं बुझा सकते। लेकिन प्रकृति के इस नैसर्गिक स्रोत को पूरी तरह दुकानदारी का मामला बना देने में खुद सरकार की कितनी बड़ी भूमिका है, क्या यह किसी से छिपी बात है? पानी के दुरुपयोग के बहाने व्यवस्था की काहिली का ठीकरा आम जनता के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। शहरों-महानगरों की बात छोड़ दें, कस्बाई इलाकों तक में जिस तरह बोतलों में बंद पानी बीस-पच्चीस रुपए लीटर खुलेआम बिक रहा है, वह कहां से आता है? धरती का सीना निचोड़ कर पानी निकालने और बोतलबंद पानी और पेप्सी या कोका कोला जैसे ठंडे पेयों का कारोबार करने वाले वे लोग कौन हैं जिनके लिए कभी पानी की कमी नहीं होती? यह सब किस सौदेबाजी की व्यवस्था के तहत चल रहा है?

सत्तापक्ष जहां नौ साला-जश्न मना कर आगे की तैयारी में जुटा है, वहीं मुख्य विपक्षी दल अपने लिए एक अदद नेता की तलाश में लगा हुआ है। किसी को इन ‘छोटी-मोटी बातों’ के लिए समय नहीं है। इसके उलट अखबारों और टीवी में हर दिन ‘भारत-निर्माण’ का बड़ा-सा ‘प्रमाण-पत्र’ आता है। इसके अलावा कोई सरकार कर भी क्या सकती है! जब इतना बड़ा ‘भारत-निर्माण’ हो रहा है तो किसी न किसी की बलि तो चढ़ेगी ही और इस काम के लिए आम आदमी से मुफीद कौन हो सकता है? उसके लिए रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतें तो दूर, पानी के भी लाले पड़ गए हैं। ऐसे में किसके भारत का निर्माण हो रहा है?
ये बात उन्हें समझ में नहीं आएंगी जो आइपीएल जैसे खेल-तमाशों में सट्टा, सुरा और सुंदरी के सम्मिलित मनोरंजन और और अय्याशियों से अघाए हुए लोग हैं। उनके जश्न मनाने के लिए अभी शैंपेन या शराब की कोई कमी नहीं है। आम आदमी महज पानी के लिए मरता है तो मर जाए, सत्ता और उससे जुड़े हुए लोग अभी जश्न के मूड में हैं।

 

31 मई 2013

मृत्यु और जीवन !



(1)मृत्यु

घिन आती है ऐसे समाज से
जहाँ हक की लड़ाई
जमीन और जंगल के बहाने
जान लेने पर उतारू है।
जिस जमीन पर गिरता है पानी
वहां बहाया जाता है रक्त।
फसल में धान और सरसों की जगह
लहलहाती हैं लाशें।
उर्वर मानव-समाज को
बंजर कर रहे जमीन की तरह
... अपनी पीढ़ियों को उजाड़कर
बना रहे हैं ठूँठ
जंगल और समाज को।
बच्चों के हाथ में
गेंद नहीं बम हैं
फिर भी नई सदी के
क्रांतिकारी हम हैं।
 
 
 
 
 
(2)जीवन

जेठ दुपहरी आम ताकते
झूला डाले बीच बाग में।
पेंग मारते,ऊपर जाते
बड़ी दूर थे गुणा-भाग से।
सांप-सीढ़ी और चन्दपो
खेल दोस्तों संग जमाते।
पड़-पड़ गिरते आम,
डाल जब जोर हिलाते।
जाने कहाँ गए वो दिन,
धरती,अम्बर औ उपवन।
मिल पाते तो जी सकते फिर
वो जीवन,वो प्यारा बचपन।।



 

28 मई 2013

काठमांडू का एजेंडा !


ब्लॉग-जगत से मेरी अनियमितता लगातार जारी है। इस बात को मैं काफ़ी समय पहले पहचान गया था। जब से टेढ़ी उँगली   के चक्कर में पड़ा,सीधा लेखन बंद-सा हो गया। हाँ,इस बीच फेसबुकवा में ज़रूर डुबकी लगाना जारी रहा,पता नहीं ससुर उससे कब निजात मिलेगी। इस व्यस्तता के चलते हम ब्लॉग-पोस्टों पर टीप नहीं पा रहे हैं,दोस्त क्षमा करेंगे। आप भी पढ़ लें,पर टीपना ज़रूरी नहीं है।

मैंने एक-डेढ़ साल ख़ूब ग़दर काटी। बड़ा मजा आया। काफ़ी सुखद अनुभव मिले। कड़वी यादों को साथ नहीं रखता क्योंकि उनकी उम्र थोड़ी होती है। हमारे लेखन में ब्लॉग्गिंग से गज़ब का निखार आया। जहाँ मैं राजनैतिक लेखन से साहित्यिक लेखन में उतरा और साथियों ने ख़ूब मनोबल बढ़ाया। यहाँ पर ऐसे साथियों का नाम नहीं लूँगा,हो सकता है ,फ़िर कभी विस्तार से बात करनी हो,तब बूझेंगे।

फिलहाल,जर्मनी की दौड़ ने लस्त-पस्त पड़े ब्लॉग-जगत को पानी के ठंडे छींटे मारे। उससे लोगों में पुरस्कार और सम्मान पाने की भारी जद्दोजहद देखी गई। जमकर लाबिंग हुई,समर्थन के रुक्के पढ़े गए,बुक्का-फाड़ निवेदन भी हुए,पर परिणाम आने पर गज़ब की मरघटी-शांति छा गई। ऐसे मामलों में हमेशा रिस्क रहता है। किसी भी सार्थक लेखन को पुरस्कार या सम्मान की बैसाखी नहीं चाहिए और जिन्होंने लेखन की सार्थकता को ऐसे झूठे सम्मानों से जोड़ दिया,वास्तव में सबसे अधिक नुकसान उन्होंने ही किया। किसी भी काम के प्रति यदि कोई अपने आप प्रशंसित करता या सम्मानित करता है ,तो उससे प्रेरणा मिलती है और वह गलत नहीं है,पर इसके पीछे यदि हम अपराधी तत्वों का भी बैक-अप लेने लगें तो स्थिति हास्यास्पद बन जाती है।

बहरहाल,अब माहौल में परिकल्पना-सम्मान का शोर सुनाई पड़ने लगा है। मेरी व्यक्तिगत राय में ऐसे समारोह सम्मान के बजाय मिलन का सुखद अनुभव देते हैं और हम इसी कारण से इसे लेते भी हैं। इतनी भागदौड और लिखने-लिखाने के बाद भी ब्लॉगिंग का सबसे बड़ा उद्देश्य आपसी संवाद या मिलना-मिलाना है। यह इस वजह से अन्य प्रकार के लेखन से भिन्न है। परिकल्पना वाले कम से कम इसके लिए एक शुरुआत(इनिशिएटिव) करते हैं और बस,इसी वजह से हम इसका समर्थन भी करते हैं। समारोह में आने-जाने और खाने का प्रबंध तो हमें खुद करना ही पड़ेगा,इसके लिए भी किसी तर्क या सफ़ाई की ज़रूरत नहीं है। और हाँ,जो इस तरह जायेंगे,वे वहाँ की व्यवस्था-अव्यवस्था पर चाहे तो अधिकृत वक्तव्य भी दे सकते हैं। वैसे मैं निजी तौर पर समझता हूँ कि इस तरह के कार्यक्रमों में छोटी-मोटी चूक को तिल का ताड़ नहीं बनाना चाहिए। हमारा मुख्य उद्देश्य साथियों से संवाद और मिलना-मिलाना ही है। कुछ लोग इस शर्त को भी ब्लोगिंग के लिए बेवजह मानते हैं ,सो उनकी मर्जी।

आगामी १३ से १५ सितम्बर को काठमांडू में होने वाले सम्मेलन के लिए हम तो तैयार हैं। आप भी यदि समय निकालकर मिल सकें तो अच्छा लगेगा। वहाँ सम्मेलन तो होगा ही,बाबा पशुपति नाथ के दर्शन भी हो जायेंगे। अपना तो यही खुला एजेंडा है,आपका क्या है,आप जानें।

 

13 मई 2013

क्षणिकाएं !

(१) सुख और दुःख

ऐसा वक्त कब आएगा
जब हम खुशी में
बचे रहेंगे सरल
और दर्द में अविकल
न खुशी में चहकेंगे और 
न ही दुःख में होंगे विह्वल
क्या हमारे जीते जी
ऐसा वक्त आएगा
जब हम चीजों को
एक नज़र से देखने लगेंगे ?
                                                        
 (२ )  कवि बनना स्थगित कर दिया है

दर्द को कितना बताएँ

हर तरफ मौजूद है.

समय नहीं मेरे पास

कि इस पर महाकाव्य लिखूं !

तुम मेरे खुशी के गीतों में ही दर्द बांच लेना,

अपने दर्द को मेरी खुशी में तिरोहित कर देना,

ऐसे ही जब तुम खुशी के नगमे गाओगे,

मैं तुम्हारा दर्द जान जाऊँगा !

फ़िलहाल,मैंने कवि बनना स्थगित कर दिया है !
 
(३) मदर्स डे
माँ की पहचान
अब फेसबुक कराएगा,
बाज़ार बड़ी ज़ोर से
माँ-माँ चिल्लाएगा ,
मगर वह भाव
कहाँ से लाएगा ?
सोचा न था,
एक दिन
माँ-बाप का रिश्ता
यूँ खुलेआम नुमाइश पे आएगा !!