हमारा
देश जब आज़ाद हुआ था तो इसके आधार में धर्मनिरपेक्ष
गणतंत्र की अवधारणा मुख्य रूप से थी ।उस समय देश के नव-निर्माण और सृजन में जो लोग
अगुवाई कर रहे थे,उनने
कुछ विरोधों के बावजूद ऐसा स्वरुप स्वीकारा था ,जो आगे चलकर हमारे देश की मुख्य पहचान (यूएसपी) सिद्ध हुई ।किसी देश में धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व के लिए वहाँ की बहुसंख्य आबादी के बजाय वहाँ के रहनुमाओं की सांविधानिक और लोकतान्त्रिक निष्ठा जिम्मेदार होती है,इसके उदाहरण पाकिस्तान और इंडोनेशिया से समझे जा सकते हैं।अपने देश में गाहे-बगाहे,खासकर
चुनावों के समय धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस ज़ोर पकड़ लेती है अब यह इतना अपरिहार्य
तत्व हो चुका है कि इसके
आलोचक भी खुले-आम
इसकी ज़रूरत पर बल देते हैं।वे भी अब अपने को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बताने लगे हैं।धर्म,धार्मिकता,धर्मनिरपेक्षता और धर्मान्धता पर अपनी राय कुछ इस तरह से है।
धर्म
का सीधा मतलब खास पूजा-पद्धति से लगाया जाता है।उस धर्म का प्रतीक विशेष ईश्वर
होता है और हम मानते हैं कि उसको मानने वाला उस खास धर्म का अनुयायी है।दरअसल,धर्म का अर्थ किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत
जीवन के आचरण को प्रभावित करने में सहायक होता है।इससे उसे वह दिशा मिलती है जो
सन्मार्ग पर ले जाती है।धार्मिक व्यक्ति कभी प्राकृतिक या मानवीय नियमों का
उल्लंघन नहीं करता।वह धर्म से यह सीखता है कि उसके अतिरिक्त जो भी व्यक्ति हैं,चाहे वे किसी भी जाति,धर्म या क्षेत्र के हों,बिलकुल उसी के जैसे हैं।वह मानवजनित
खांचे (जाति-धर्म) के आधार पर भेदभाव नहीं करता।धर्म सभी को जोड़ता है,तोड़ता नहीं।किसी धर्म की दूसरे धर्म से
तुलना ही गलत है।यह जीवन-शैली का साधन-मात्र है।जो लोग पूजा-पाठ नहीं करते और
मानवीय स्वभाव रखते हैं,वे सबसे बड़े धार्मिक हैं।
जब
तक व्यक्ति धर्म को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रखता है,उसमें स्वयं को सुधारने की ललक होती है ,वह विनम्र होता है।जब व्यक्ति धर्म को
सामूहिक रूप से देखने का भाव आने लगता है,उसमें धार्मिकता आ जाती है,वह
दूसरों के प्रति तुलनात्मक हो उठता है।धार्मिकता का अतिवादी रूप ही धर्मान्धता में
परिणित हो जाता है।स्वयं के
लिए धार्मिकता नुकसानदेह नहीं है,पर
धीरे-धीरे धर्मान्धता इसे अपनी ओर खींचने का प्रयास करती है।धर्मांध व्यक्ति
धार्मिक तो होता ही नहीं,वह
साधारण व्यक्ति भी नहीं होता।वह मानव और प्रकृति दोनों का शत्रु होता है।वह अपने
निजी विचार और मत को धर्म के नाम पर दूसरों पर थोपने का प्रयास करता है।धर्मान्धता
दरअसल,स्वयं की सबसे बड़ी
शत्रु होती है।
धर्मनिरपेक्ष
होने का मतलब अधार्मिक होना नहीं होता।जो धार्मिक होगा,वस्तुतः वही धर्मनिरपेक्ष होता है।इसमें
व्यक्ति स्वयं के आचरण को सुधारने के लिए धार्मिक होता है पर दूसरों की जीवनशैली में बाधक नहीं बनता,न ही उनके जीवन में किसी प्रकार का दखल
देने का यत्न करता है। धार्मिक होते ही हम हिन्दू,मुस्लिम या ईसाई बनने लगते हैं जबकि
धर्मनिरपेक्ष होने पर हम कहीं अधिक मानवीय होते हैं,मानव-धर्मी होते हैं।सच्चा धार्मिक कभी
दूसरे धर्म या धर्मी को कमतर नहीं समझता।इसलिए व्यक्तिगत जीवन में धर्म बहुत
महत्वपूर्ण है।हम सबका धर्म अंततः मानवता-प्रेमी ही होना चाहिए क्योंकि जब मानवता
ही नहीं रहेगी,कोई
धर्म नहीं बचेगा।
सुन्दर आलेख !!
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने ,,,! धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब अधार्मिक होना नहीं होता।जो धार्मिक होगा,वस्तुतः वही धर्मनिरपेक्ष होता है।
जवाब देंहटाएंगहन अवलोकन से भरा आलेख।
जवाब देंहटाएंहम सबका धर्म अंततः मानवता-प्रेमी ही होना चाहिए क्योंकि जब मानवता ही नहीं रहेगी,कोई धर्म नहीं बचेगा।-...एक प्रचलित हिन्दू विचार!
जवाब देंहटाएंDiwali mubarak ho!
जवाब देंहटाएंतुलसीदास जी की चौपाई याद आ गई।
जवाब देंहटाएंपरहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
अंधत्व हमारी दृष्टि छीन लेता है। लेकिन अंधत्व अपने विश्वास के पालन में नहीं होता, वह होता है अपने से इतर विश्वास के अंधविरोध में। अब ये अंधविरोध चाहे अल-क़ायदा/तालेबान/ISI द्वारा गैर-मुस्लिमों के नाश की बात हो चाहे कम्युनिस्टों द्वारा संसार के सारे धर्मों के नाश, और धर्म-पालकों की प्रताड़ना के कुकृत्य हों. याद रखने की बात यह है कि कमी अपने विश्वास में नहीं दूसरों के विश्वास के प्रति असहिष्णुता में है.
जवाब देंहटाएंvaah
जवाब देंहटाएंanurag ji ke facebook post se yahaan pahunchi hoon. thanks
Nicely written.
जवाब देंहटाएंVinnie