हर सुबह घर के आंगन में
खड़े होकर निहारता
चमकीली-पीली पिचकारी के साथ
सूरज दादा दाखिल होते हमारी दुनिया में !
छत की मुंडेर पर बैठकर
पहले ताकता फिर बोलता कौवा,
'तुम्हारे मामा आयेंगे आज'
यह बतातीं हमारी अम्मा ,
और चूल्हे पर चढ़ी हुई दाल
और पतली हो जाती !
छज्जे पर बैठी गौरैया,
थोड़ी देर इंतज़ार के बाद
चुप्पे-से नीचे उतरती
वहीँ हमारे आस-पास मंडराने लगती !
बचे हुए या बिखरे दाने उठाती
और हमारी पकड़ में आने से पहले ही
फुर्र हो जाती !
दालान और दहलीज को
बुहारती हुई अम्मा
हमें नसीहत देतीं और टोंकती
डेहरी पर टेक लगाकर बैठे हुए हम
किसी चीज़ की फरमाइश में
कुहराम मचा देते !
आखिर में अम्मा हारतीं
हम जीतते
इस तरह मजे से जीते !
अब न कौवा है न गौरैया
दालान,दहलीज और न डेहरी
न अम्मा की नसीहतें और न उनकी टोंक,
जीतता तो रोज हूँ पर अब ,
उस जीत जैसा स्वाद नहीं मिल पाता,
क्योंकि उस छोटी-सी जगह के बदले
हमने अपनी जेबें चौड़ी कर दीं
और हमारा अपनों से ,
अपनी ज़मीन से टूट गया नाता !
छज्जे पर बैठी गौरैय्या, फुर्र हो गई ।
जवाब देंहटाएंद्वार बुहारे मेरी मैया, कहाँ खो गई ।
कौआ उल्लू तोता व्याकुल आसमान में-
मारक मोबाइल की टिन-टिन, उन्हें धो गई ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
हमेशा की तरह...मस्त रविकर जी !
हटाएंbehtreen rachna!
जवाब देंहटाएंआभार किदवई जी !
हटाएं@अब न कौवा है न गौरैया
जवाब देंहटाएंदालान,दहलीज और न डेहरी
न अम्मा की नसीहतें और न उनकी टोंक,
जीतता तो रोज हूँ पर अब ,
उस हार जैसा स्वाद नहीं मिल पाता
...
:(
...
@उस हार जैसा स्वाद नहीं मिल पाता
हटाएंअनुराग जी..जल्दबाजी में जीत की जगह हार कर दिया था,अब सुधार लिया है.आभार !
दिल को छू लेने वाला भावाभिव्यक्ति. आभार संतोष जी.
हटाएंअम्मा से उस जीत का रह गई बस याद,
जवाब देंहटाएंन वो बचपन रहा,न मिलता वह स्वाद,
न मिलता वह स्वाद,न नसीहतें मिलती
अब कौवा की कावं कावं न गौरया दिखती,
सुंदर भावनात्मक बहुत सुंदर रचना,संतोष जी बधाई.....
NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...
NEW POST ...फुहार....: फागुन लहराया...
समान भाव के लिए आभार !
हटाएंumda rachna hai,bdhai aap ko
जवाब देंहटाएंआभार अवंती जी !
हटाएंहमने तो कभी सोचा भी नहीं कि हमने क्या खोया है!! संचार के टावर खड़े कर लिए मगर दरख्तों को कट जाने दिया.. दरख़्त थे तो गौरैया थी और काक भी.. लेकिन टावर पर तरक्की तो बैठ सकती है, गौरैया नहीं!!
जवाब देंहटाएंपैसों के आगे रिश्ते और प्रकृति सबसे हमारा नाता टूट गया !
हटाएंकविता पढ़ कर एक टीस सी होती है... हूक सी उठती है सीने मे... तब अम्मा की डांट कितनी बुरी लगती थी ,,, आज उसी डांट को तरसते हैं...
जवाब देंहटाएंसही कहा पदम भाई...!
हटाएंउस डांट के बिना हम कितने बिगड़ैल हो गए हैं ?
दिल्ली भी आपकी ही है भाई ।
जवाब देंहटाएंखोना पाना तो जीवन भर लगा रहता है ।
कुछ खोकर ही कुछ पाया जाता है ।
...दिल्ली तो पृथ्वीराज चौहान ,अकबर और बहादुर शाह ज़फर की न रही...!
हटाएंबाकी आभार आपका !
पुरानी यादों को फिर से होली पर जाकर जी लीजिये सरकार !
जवाब देंहटाएंहोली तो अब हो ली...न वह गाँव रहे,न वह होली और हम ही कहाँ बचे वैसे?
हटाएंहाँ सम सभी का बहुत कुछ छूट गया है ...... ये यादें तो जीवन भर की थांती हैं....
जवाब देंहटाएंजी मोनिकाजी,कुछ दिन बाद ऐसी यादें भी न रहेंगी !
हटाएं*हम
जवाब देंहटाएंबड़ा नॉस्टेल्जिक मामला है।
जवाब देंहटाएं...आप कहते हैं तो हम भी कहाँ इंकार करते हैं ?
हटाएंसमय के साथ हुआ एक ऐसा परिवर्तन है जो हमें हमारी ही जड़ों से काट रहा है। कितने भौतिकवादी हो गए हैं हम।
जवाब देंहटाएंयह भौतिकता तो नश्वर है पर इसे समझने में हम चूक रहे हैं !
हटाएंछोटी छोटी बातों में छिपी न जाने कितनी खुशी...कौआ और गौरय्या।
जवाब देंहटाएंबस अब यादें ही हैं...नई पीढ़ी अब इन्हें कागज पर देखती है !
हटाएंउन यादों को संजोये रखने के लिए अपनी अगली पीढ़ियों को भी ऐसी ही यादें दे ...जहाँ स्थान मिले , वृक्ष लगा दें !
जवाब देंहटाएंआपकी सलाह नेक है,पर ज़मीन का टुकड़ा अब बहुत कीमती है,किसी बिरिछ से बहुत ज़्यादा !
हटाएंजीवन में सब कुछ होने के बाद भी कुछ कमी महसूस होती है जब बीते दिन याद आते हैं....
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव।
सहिये कहा अतुल भाई...!
हटाएंलगा जैसे कोई मेरी बात कह गया...बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंहर कविता आपकी आवाज है....हौसला-अफजाई का शुक्रिया !
हटाएंवाकई हम अपनी जमीन को खो बैठे संतोष भाई ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
आभार सतीश भाई !
हटाएंबहुत प्यारी भावभीनी प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंमन को छू गयीं ...
शुभकामनाएँ.
धन्यवाद आपका !
हटाएंएक संवेदनशील रचना ... हम अपना बचपन अपनी मिट्टी भुला चुके हैं आज ...
जवाब देंहटाएंदिल को छु बायीं ये रचना संतोष जी ...
आभार दिगंबर जी !
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