14 मार्च 2012

सदाबहार बौराए हुए !

फागुन बीत गया है,बसंत भी बीत गया पर मन अभी भी बहक रहा है.मेरा मन कभी भी मौसम के साथ नहीं चल पाता.अगर ऐसा होता तो प्रेम-दिवस ,फगुनहट आदि मौकों पर इसमें ज्यादा उबाल आ जाता और बाकी दिनों में हमारे दिल की धड़कन सामान्य रहती.अब तो ऐसा हो गया है कि चालीस के पार पहुँचकर भी लगता है कि चौबीस के ही आस-पास हूँ.हमें लगता है कि इस दुनिया में हर चीज़ बदल गई है सिवाय हमारी उमर के !जब तक आइना नहीं देखते ,यही सोचे रहते हैं कि हम  बिलकुल  कॉलेज जाने वाले टीनएजर हैं !

हमारा मन किसी सुन्दर नारी चित्र को देखकर एकदम से बौरा जाता है.घर में अंग्रेजी-अख़बार इसीलिए नहीं मँगाते. घर से बाहर सजीव- सौन्दर्य देख कर तो हम आँख ही बंद कर लेते हैं.सोचता हूँ,क्या इस उमर में यह सब देखना या सोचना हमें शोभा देता है ? ख़ास बात यह है कि हम इस मामले में इत्ते पेटू हैं कि एक-दो 'दर्शनों' से जी नहीं भरता.अगली बार ऐसा न करने का वचन खुद ही लेता हूँ और अगले पल उतनी ही ज़ोरदार तैयारी  से इसके खिलाफ़  हमला बोल देता हूँ.इसके अलावा हम अकेले ,केवल  आँखों के अस्त्र के साथ,निरुपाय,असहाय भला क्या कर सकते हैं ? यह कोई बीमारी है या महज़ जीवन-रस ?

आखिर हमारा मन उमर के साथ-साथ  अपनी इच्छाओं को क्यों नहीं दबाता ? फिर सोचता हूँ कि यदि वास्तव में ऐसा हो जाये ,मन से यह रस निकल जाये तो कितना नीरस हो जायेगा यह जीवन !कहने को तो सब कहेंगे,'अजी ! ऐसे ख़याल आपको ही आते होंगे,आप तो बड़े ही कमीने-टाइप के निकले.अपनी पत्नी के होते इधर-उधर ताकने की कोशिश में लगे रहते हैं !"    और हाँ ,  यही  लोग  ऑफ-द-रिकॉर्ड हमारी बात को पूरी तरह तसदीक करेंगे ! इस विषय पर मेरी कई दोस्तों से गुफ्तगू हुई है जो ऐसी बातें खूब रस लेकर सुनते हैं. कुछेक का तो बकुर तभी फूटता है जब हम कोई काल्पनिक-वृत्तान्त सुनाने लगते हैं. पर ऐसे लोग सामूहिक रूप से चुप्पी ओढ़े रहते हैं . मैं तो कहता हूँ  कि ये   चुप्पा-टाइप लोग व्यावहारिक रूप से ज़्यादा  खतरनाक होते हैं.इनसे अच्छे तो हम हैं जो अपनी हवा निकाल लेते हैं !

कभी किसी को घूरते हुए लगता है कि क्या वाकई में हम इत्ते कमीने हैं ? बाल-बच्चेदार हैं, यदि वास्तव में हम संत बन जाएँ तो जीवन से आनंद और आशा का विलोप हो जायेगा.घर से तो सूखे निकलते ही हैं बाहर भी सुदर्शना न दिखे ,कोई बोहनी न हो तो पूरा दिन ही चौपट और वृथा हो जाये !इस तरह हमारा दिन तो ख़राब हो ही,अगले का साज-श्रृंगार में लगा धन व समय भी अकारथ हो जाये.कई बार बस-स्टॉप में  हमने महसूस किया कि यदि किसी लड़की को कुछ निगाहें घूरती हुई नहीं दिखतीं तो वह खुद बार-बार अपने को देखना शुरू कर देती है.ऐसा करके वह अपनी सुन्दरता पर शक करने लग जाती है और यह सब देखकर हम और दुखी हो जाते हैं.


हम ईश्वर का धन्यवाद करते हैं कि अस्सी-साला होते हुए भी वह लोगों को ऐसी ललक के सहारे ज़िन्दा रखता है.ऐसे ख़याल आते ही घर बैठकर  वे बीमारी में भी टॉनिक लेते रहते हैं.हमारे एक मित्र जो हमसे दस साल बड़े हैं,इस रस को अपना रोग बनाये बैठे हैं.बात होने पर दिल की भड़ास निकालते हैं और इच्छा करते हैं कि पुराने दिन फिर से लौट आयें.इस पर मैं कहता हूँ कि ऐसा होने पर फ़ायदा तो एक मिलेगा पर नुकसान बहुत सारे झेलने पड़ेंगे.इस तरह उनकी उम्मीद हवा हो जाती है पर टूटती नहीं.नए सिरे से,नए तरीके से वे अपने दिल को बहलाने का इंतजाम करने में जुट जाते हैं ! ऐसे में उन्हें मुक्ति मिलेगी क्या ?


अगर किसी को हम  भौतिक रूप से नुकसान नहीं पहुँचाते,खुद मन ही मन खुश और रस-युक्त हुए रहते हैं तो भला दुनियावालों को क्या आपत्ति ?

56 टिप्‍पणियां:

  1. मन की साथी आत्मा, जाओ तन को भूल ।
    तृप्त होय जब आत्मा, क्यूँ तन खता क़ुबूल ?

    क्यूँ तन खता क़ुबूल, उमरिया बढती जाए ।
    नहीं आत्मा क्षरण, सुन्दरी मन बहलाए ।

    बुड्ढा होय अशक्त, आत्मा भटका हाथी ।
    ताक-झाँक बेसब्र, खोजता मन का साथी ।।

    दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
    dineshkidillagi.blogspot.com

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    1. जितनी मात्रा में अशक्तता बढती है,मन की तीव्रता उतनी ही तेजी से !

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  2. मुल्ला नसरुद्दीन ने ६५ साल की उमर में शादी का फैसला किया और अपने बेटे को बताने लगा... बेटे को ये भी बताया कि उसने हभी देख ली है.. पता चला कि लड़की की उम्र १८ साल है और वो पास ही रहती है.. बेटा भड़क गया, बोला,"अठारह साल की लडकी से शादी करोगे आप!" मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, "इसमें क्या बुराई है! जब तेरी माँ से मैंने शादी की थी तब वो भी १८ साल की ही थी!"
    /
    और माट्साब! इस कहानी के बाद एक बड़ा पुराना शे'र चिपकाने की इजाज़त चाहता हूँ:
    देखकर उसको बजाने चला था सीटी मैं,
    अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल काँप गया!!
    /
    बाक़ी तो सब सब एक ही है भौतिक हो या मानसिक... आँख बंद करने से दिखाई देना बंद कहाँ होता है माट्साब!!

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    1. अब शेरों की बात चली है तो चचा ग़ालिब कहाँ पीछे रहने वाले भला। सुना है कि उन्होंने कभी लिखा था:
      खुदा करे इन हसीनों के बाप मर जायें
      बहाना मौत का हो हम उनके घर हो आयें

      [मिर्ज़ा ग़ालिब का न लगे तो कृपया बता दें किनका है]

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    2. सलिलजी..एक घटना इसी बात पर साझा करूँगा.
      हमारे एक बिहारी मित्र हैं.पन्द्रह साल पहले की बात है.हम दोनों अच्छे दोस्त थे,अभी भी हैं.एक बार विद्यालय के गेट पर एक खूबसूरत महिला खड़ी दिखी.मैंने झट उन दोस्त से कहा,'यार ! देखो क्या माल है.उन्होंने गंभीर होते हुए कहा ,भाई ! ये तेरी भाभी है ! मैं तो सन्न रह गया.बाद में भाभी से भी यह बात बताई और हम सब खूब हँसे !

      ..इसलिए अब बहुत सतर्क हो गया हूँ !!

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    3. अनुरागजी...यह शेर सुना हुआ है,पर शायद ग़ालिब का नहीं है,याद नहीं,हो सकता है,फ़िराक गोरखपुरी का या अन्य किसी का हो !

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  3. :-) टिप्पणी क्या करूँ???
    एक सवाल है- क्या आपकी मैडम आपका ब्लॉग पढ़ती हैं?
    :-)

    jokes apart........
    nicely written post...
    regards.

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    1. मैडम को हमरे लिखने पर ही आपत्ति है,पढ़ेंगी क्यों भला ?

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  4. आपने हमारी टिप्पणी हटा दी ???????

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    1. आप जैसी हसीना की टिप्पणी के लिए तो हम मरते हैं, हटाने का कौनो सवाल ही नहीं.
      ...स्पैम में बंद हो गई थी !

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    2. जिसकी तस्वीर कहीं ना
      वह कैसे हुई हसीना?

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    3. देवेन्द्र जी,आपकी आपत्ति जायज है,पर रंगों की पसंद और लिखने से ढंग से मैंने यह कयास लगाया है. ईश्वर करे,हम सही हों !

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  5. वाह ... वैसे लिखा तो सच ही है आपने ... पर सौंदर्य की प्रशंसा का मतलब हमेशा गलत ही नहीं होता ... चाहे किसी उम्र में हो ललक तो होनी ही चाहिए ...

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  6. किसी भी उम्र में हो ललक तो होनी ही चाहिए ...
    बहुत सुंदर और सटीक शब्दों की प्रस्तुति,...

    RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...

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  7. दिल ज़वान रहे तो उम्र कौन देखता है ।
    लेकिन ये मन भी बड़ा चलायमान होता है ।
    इस पर थोड़ी लगाम कस कर रखनी चाहिए ।
    वर्ना कभी चाँद मांगने लगेगा तो क्या कीजियेगा ! :)

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    1. लगाम लगा लिया तो फिर दिल का असली अर्थ बिला जायेगा !

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  8. क्या बतायें, मन सदा युवा बना रहता है।

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  9. ऐसे ही टीन एजर बने रहे। हवा निकालते रहो।

    और शेरो शायरी की बात चले तो कहा गया है:

    कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
    आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता।

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  10. " क्या ....है "...बहुत बुरा लगा पढ़कर!
    प्रशंसा हर उम्र में स्त्री /पुरुष को लुभाती ही है मगर संतुलित , मर्यादित और शालीन हो तब ही !

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    1. वाणी जी ,
      अगर आपकी प्रतिक्रिया लेख के बारे में है तो बुरा लगने से मनोवृत्तियाँ बदल जातीं तो क्या बात होती ? यह और बात है कि मैंने जैसे महसूसा ,ठीक वैसे ही साझा किया.हाँ,झूठ-मूठ के संत हम भी बन सकते हैं !
      ...वैसे इसे हास्य-व्यंग्य के रूप में लेतीं तो बुरा न लगता.

      अगर ,ऊपर मेरी एक टीप से सबंधित आपकी आपत्ति है तो आपके लिहाज़ से सही है,पर वह दो दोस्तों के बीच की रोज़मर्रा बातचीत का हिस्सा जैसा था.किसी को सुनाकर या चिल्लाकर नहीं कहा गया था.वैसे भी यह पोस्ट का हिस्सा नहीं,वरन सन्दर्भ भर है.
      इस सबके बावजूद मेरी पोस्ट और टीपें हल्के-फुल्के मूड में ही लेने लायक हैं,कृपया गंभीरता से न लें !

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    2. आपने सही कहा यह मनोवृति या प्रवृति की ही बात है , आपने पुरुष मनोवृति के बारे में लिखा और मैंने स्त्रियों की !

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    3. ..मगर आपने स्त्रियों के प्रवृत्ति की कौन-सी बात की है ? प्रशंसा पाकर खुश तो सभी होते हैं !

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  11. चुप्पा-टाइप लोग व्यावहारिक रूप से ज़्यादा खतरनाक होते हैं. :)पूर्ण सहमति

    मन में उर्जा का सदाबहार प्रवाह बना रहे .....

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  12. काग़ज़ की नाव तैरती भी है और मन मोहती भी है। पर अन्ततः वह पार लगाने में सक्षम नहीं, भीग कर नष्ट होना ही उसकी नियति होती है।

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    1. ...मगर नष्ट होने से पहले वह मनोरंजन तो खूब कर लेती है !

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  13. मुक्ति और मोक्ष सबको नसीब नहीं होता नसीब वालों को होता है !

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    1. ई सही काहे बाबू,मुक्ति आपको नसीब हो !

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    2. क्यों आपको क्यों नहीं ,अंगूर खट्टे तो नहीं लगते!

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    3. हम अपने अंगूर,जो किशमिश बन चुके हैं,उन पर ही संतोष किये हैं !

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  14. मर्यादा में रहकर आनंद लिया जाना चाहिए। हम वहीं तक स्वतंत्र हैं जहां दूसरे की स्वतंत्रता बाधित न हो। हास्य तभी तक निर्मल है जब सुनने वाले को आनंद आये। देखिए, किसी शायर ने कितने मर्यादित ढंग से एक शाम मांगी है...

    तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
    मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे।

    मन के विकारों को दूर करने का सरल उपाय उसे भोगना ही है। हम जिससे दूर भागते हैं वह हमारे जेहन में उतना ही सवार होता चला जाता है। भोगने के बाद विरक्ति हो सकती है। पहले फिल्म में नायिका का आंचल लहराने पर हम रोमांचित हो जाते थे अब आइटम सांग देख कर भी मन नहीं मचलता। हमे लगता है हम कुछ नपुसंक होते जा रहे हैं। मार्निंग वॉक में सुबह-सुबह बुढ़्ढों के ठहाके सुनिये और यह भी सुनिए कि वे किस बात पर इत्ते खुश होते हैं? आपको लगेगा कि आप बहुत शरीफ हैं।

    आप टीन एजर बने रहें हमे तो अभी जन्म लेना है।:)

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    1. ..बिलकुल दुरुस्त बताया.काफ़ी चीज़ें बदल रही हैं,पर जिस प्रवृत्ति की चर्चा की गई है उसमें क्षरण मंद-गति से है !

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    2. रोमांच कहाँ से आए, विकारों को भोगते भोगते इतने दूर चले आए कि विचार ही कुंद और मंद हो गए :)

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    3. विकारों को भोगने में विचार कुंद भी होते हैं कुंदन भी। यह भोगने वाले पर निर्भर करता है।

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    4. कुंदन होना वाकई मेहनत का काम है !

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  15. सच्‍चाईयों का अहसास तो सभी को होता है परंतु किशोरीय चिंतन की स्‍वीकार्यता सबमें नहीं होती। सब मास्‍टरों में भी नहीं, अन्‍यों की बात तो क्‍या कहिए। आपने कहा, माना, जाना - अच्‍छा लगा यह मनभावन गाना। अब सुनाइए एक नया तराना।

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  16. संतोष भाई , मेरी भी सोच कुछ ऐसी ही है . जो दिल में रहता है वो सबके सामने बोल देता हूँ ,क्योंकि दिल में रखने से ख्याल "ख़राब" हो जाता है . खूबसूरती की तारीफ करना और तारीफ के अंदाज से देखना बुरा नहीं है बशर्ते वो खुले दिल से किया जाये , बहुत खूब .

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  17. गजब का चिंतन ठेलो हो मास्टर !
    मामला बस्स इतना है कि चादर में पैर उत्ता फैलायो कि चादरवा ना फट जाए !

    कहा थोड़ा ....समझा जियादा :)

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