25 जनवरी 2012

किसका है गणतंत्र ?

हम अपने गणतंत्र के बासठ-साला ज़श्न की तैयारी में हैं. राजपथ पर बहुरंगी छटाएँ बिखरने भर से टेलीविजनीय -चकाचौंध तो पैदा की जा सकती है  पर इस पर इतराने जैसी कोई बात नहीं दिखती है.तकनोलोजी के क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति की है और आर्थिक-मोर्चे पर भी हमारा दमखम खूब दिखता है पर इतने अरसे बाद भी क्या वास्तव में जिस उद्देश्य को लेकर हमने अपना सफ़र शुरू किया था,उसे हासिल कर लिया है ? संविधान में आम आदमी को सर्वोपरि माना गया था,वह आज कहाँ खड़ा है ? ऐसे में ज़ाहिर है ,इस सफ़र को शुरू करने वाले तो ज़रूर अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं क्योंकि तब से लेकर अब तक उन लोगों की सेहत बराबर सुधर रही है,जबकि इस तंत्र में देश और उसका गण टुकुर-टुकुर केवल उसकी ओर ताके जा रहा है !

किसी भी देश के लिए उसका संविधान-स्थापना दिवस बहुत महत्त्व का होता है और होना चाहिए. ऐसे  दिवस मनाये जाने या उल्लास प्रकट करने से ज्यादा हमें आत्म-मंथन व भूले-बिसराए हुए संकल्पों की याद के लिए होते हैं,पर हो रहा है इसके उलट ! सरकारी दफ़्तर औपचारिक कार्यक्रम कर लेते हैं,अखबारों में लम्बे विज्ञापन आ जाते हैं और इस 'उत्सव' के बहाने खजाने से हाथ साफ़ कर लिया जाता है.हम ऊपरी चमक-दमक को पेश कर विकसित होने का मुलम्मा अपने ऊपर चढ़ा लेते हैं.कुछ को लगता है कि इस तरह आम आदमी पर  भी थोड़ी देर के लिए विकसित होने का नशा तारी हो जाता है.

हमारी राजनीति गण के प्रति संवेदित न होकर इस तंत्र के फेर में उलझी हुई है.अपने ही लोगों को अपना शत्रु घोषित कर दिया जाता है.भ्रष्टाचार को एक आवश्यक अंग मान लिया गया है.उसे हटाने पर जोर दिया जाता है,न कि ऐसी व्यवस्था लागू करने पर कि वह आ ही न सके ! जो इस खेल के खिलाड़ी हैं,उन्हें ही यह ज़िम्मा सौंपा गया है कि वे देखें कि खेल साफ़-सुथरा हो ! अजब-सा सिस्टम बन गया है कि अपराधी निश्चिंत है और भुक्त-भोगी डरा-सहमा.राज्य चाहे तो कानून उसके हिसाब से चलेगा,जिस पर और जब चाहे तभी लागू होगा.ऐसा चयन ,ऐसी सोच आम आदमी में विद्रोह को उकसा रही है.ऐसे लोगों को देश के खिलाफ बताया जा रहा है.

राजनीति में अवमूल्यन का असर साहित्य में भी आ रहा है.अब लोग प्रेम-काव्य रचने के बजाय 'जूता-पुराण' लिखने में उत्सुक हैं. लेखक या कवि समाज की माँग और रूचि समझता है इसलिए वह अब गंभीर लेखन के बजाय ऐसी विषय-वस्तु को अपने पाठकों के लिए ज्यादा मुफीद समझता है.हमारा राजनैतिक प्रभु-वर्ग अभी भी यदि किसी मुगालते में रहता है तो उसे गणतंत्र के असली लक्ष्यों और अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा,अन्यथा हम बासठवां या हजारवां गणतंत्र भी इस तरह के सवालों के घेरे में मनाएंगे !यह भी ज़रूरी नहीं है कि गण हमेशा चुप्पी साधे अपना चीर-हरण होते देखता रहे ! यह कैसा और किसका गणतंत्र है जिसमें एक तरफ राजनेता और अधिकारी दोनों हाथों से अपनी जेबें भर रहे हैं,कुर्सी पाने के लिए आम आदमी को  जाति,धर्म के नाम पर लड़ा रहे हैं और दूसरी ओर वह आदमी अपनी दो-रोटी के जुगाड़  में  ही लगा हो ?

49 टिप्‍पणियां:

  1. जन जिस दिन जाग गया तो दुष्टों को सिर छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी...

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  2. गणतंत्र नहीं, गनतंत्र हो गया है अब!! ऐसे में और उम्मीद भी क्या की जा सकती है!!

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  3. न कुछ कहने को है - न लिखने को...
    सभी को अपनी अपनी करने दीजिए.

    गणतंत्र से गनतंत्र होता हुआ अब गुनातंत्र हो गया है...

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  4. ६२ वां गणतंत्र मनाने आये
    जब से भारत स्वतंत्र बना
    आओ सोच विचार करे अब
    कितना तंत्र- स्वतंत्र बना....
    बहुत सुंदर आलेख,..
    WELCOME TO NEW POST --26 जनवरी आया है....
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए.....

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  5. मै तो पहले से ही आपका फालोवर हूँ
    आप भी फालो करे तो मुझे हार्दिक खुशी होगी,...आभार

    WELCOME TO NEW POST --26 जनवरी आया है....

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    1. धीरेन्द्र भाई ,यदि मेरे फोलो करने से आपका 'स्कोर' बढ़ता है तो मुझे खुशी होगी !

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  6. ,इस सफ़र को शुरू करने वाले तो ज़रूर अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं क्योंकि तब से लेकर अब तक उन लोगों की सेहत बराबर सुधर रही है,जबकि इस तंत्र में देश और उसका गण टुकुर-टुकुर केवल उसकी ओर ताके जा रहा है !

    सोचने पर विवश करती अच्छी पोस्ट ..अब गण नहीं बस तंत्र बचा है ..

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  7. आपके इस उत्‍कृष्‍ठ लेखन का आभार ...

    ।। गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं ।।

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  8. विचारणीय आलेख ...
    गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ

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  9. भाई जी ,बकौल रघुवीर सहाय

    राष्ट्रगीत में भला कौन वह
    भारत-भाग्य-विधाता है
    फटा सुथन्ना पहने जिसका
    गुन हरचरना गाता है।....हरचरना का सुथन्ना तो आज भी जैसे का तैसा ही है और 'भाग्य विधाता ' साक्षात भगवान बन बैठे हैं !

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    1. चलो तिरसठवां मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है,पर मर्ज़ ज्यों का त्यों है !

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  11. सार्थक चिंतन ।
    गणतंत्र रुपी इस फिल्म में हीरो एक और विलेन दो दो हैं ।

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  12. ...कभी कभी सोचता हूं कि मेरे बीते हुए कल को ही बढ़िया कहने की तथाकथित सच्चाई अगर मेरे पूर्वजों के भी पास होती तो मैं आज निश्चय ही रसातल में धंस चुके समाज में रह रहा होता, ये भी हो सकता था कि समाज मेरे आने से कहीं पहले मिट ही चुका होता...

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    1. बहुत-कुछ अच्छा हुआ है और उसको कहना भी चाहिए पर आज जिस प्रकार की राजनीति हावी है उससे केवल आत्म-मुग्ध हुए नहीं रहा जा सक्ता !

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    2. काजल कुमार से सहमत हूँ।

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    3. अनुराग जी ,कभी-कभी हमसे भी सहमत हो लिया करो !!

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  13. 'राजनीति में अवमूल्यन का असर साहित्य में भी आ रहा है.अब लोग प्रेम-काव्य रचने के बजाय 'जूता-पुराण' लिखने में उत्सुक हैं'
    सही कहा, हालात बद से बदतर ही होते जा रहें हैं. जूता फेकना तो फैशन में आ गया है , अब 'जूता पुराण' साहित्य व समाज क्या असर दिखाता है?........

    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

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  14. आपकी इस पोस्ट पर कुछ पंक्तियां शेयर करने का मन बन गया ...

    प्रकृति ने भाषा बदल दी व्याकरण खतरे में है,
    आदमी ख़तरे में है, पर्यावरण ख़तरे में है।
    रह रहे हैं लोग अब ख़ुद की बनी भूगोल में,
    सिर्फ़ दर्पण ही नहीं अन्तःकरण ख़तरे में है।

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  15. गणतंत्र हुए 62 साल हो गए पर क्‍या वो ख्‍वाब पूरा हो पाया जो आजादी के दीवानों ने देखा था....???

    बढिया विचारणीय पोस्‍ट।

    गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....

    जय हिंद... वंदे मातरम्।

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  16. सार्थक पोस्ट.....हर स्तर पर हर क्षेत्र में हमने संवेदनशीलता खो दी है ..... और अवमूल्यन हो रहा है....

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  17. 'जूता प्रेम' आज की सच्‍चाई है
    गणतंत्र जागेगा, सबसे बड़ा झूठ है
    कर्मठ वही है जिसके हाथ में
    चाबी है
    नोटों की कर रहा खूब अच्‍छे से लूट है
    लूट है, बूट है, कूट दो
    कूट सकोगे
    किस किसको
    शब्‍दों की कुटाई काफी है
    चाय तो फीकी वाली है।

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    1. जूता या थप्पड़ मारना नैतिक और संवैधानिक रूप से गलत है,पर इस तरह गलत और भी चीज़ें हैं,जिनको धडल्ले से किया जा रहा है,उसका क्या ?

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  18. गणतंत्र दिवस की बधाई!
    जय हिन्द! सत्यमेव जयते!
    अवमूल्यन समाज के हर क्षेत्र में हुआ है मगर कई जगह तो सदाबहार बरसात का मौसम है। मेंढकों के मधुर गायन के बीच बेचारी कोयल को कौन सुने?

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  19. विचारणीय लेख के लिए बधाई
    गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
    जय हिंद...वंदे मातरम्।

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  20. सचमुच आज भी एक संक्रांति काल सा लगता है ....एक सेनाध्यक्ष अपने मनोबल की लड़ाई लड़ रहा है ..एक पूर्व इसरो के अध्यक्ष को काली सूची में डाल दिया गया है ...जनता जानना चाहती है यह हो क्या रहा है? कितनी हकीकत कितनी कहानी !

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    1. गुरूजी,खुश होने के लिए बहुत कुछ है पर आज की राजनीति का इसमें योगदान न्यूनतम है !

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  21. आक्रोश भरी है आज की पोस्ट ... कडुवा सच है पर कहीं न कहीं आजादी के बाद से कुछ भूल जरूर हुयी है जो आज गण का महत्व खत्म हो गया है और तंत्र की रखवाले अपने आप को तंत्र का मालिक समझ बैठे हैं ...

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  22. संतोष अंकल जी! सपरिवार सहित गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.....

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  23. ..बढ़िया वृतांत... गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना

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  24. बहुत सटीक विवेचन, आपके विचारों से पूणर्तः सहमत।
    कृपया इसे भी पढ़े-
    क्या यही गणतंत्र है
    क्या यही गणतंत्र है

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  25. बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति|
    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें|

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  26. गण का है गणतंत्र ! आपको बहुत बहुत शुभकामनायें ! जो है इससे बेहतर होना चाहिये था ! जो है इससे बदतर भी हो सकता था ! आप सभी का आभार जो संभावनायें अभी तक शेष हैं !

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    1. कहना तो आपको भी बहुत कुछ है,पर इस तंत्र में कहना-सुनना भी बेमानी-सा हो गया है !

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  27. सुमित प्रताप सिंह Sumit Pratap SinghJan 24, 2012 10:00 PM

    जन जिस दिन जाग गया तो दुष्टों को सिर छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी.

    पर ये जन किस दिन जागेगा (हम सबके समेत)....बातों से कभी किसी की नींद नहीं खुलती ....अनु



    आपके लेख के लिए आभार ...अच्छा लिखा हैं

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    1. अनुजी....मगर हमारे वश में कहना भर ही है,इस पर भी अब एतराज़ उठ रहे हैं !

      आप सुमितजी से उन्हीं के टीप-बॉक्स में प्रश्न पूँछ सकती थीं !
      आभार !

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  28. गण तो अपने भी गुणा भाग में व्यस्त है, देश से हिसाब कौन माँगे..

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