दोपहर बीत जाने के बाद
कोहरा और घना हो चला था
मैं कब तक सेल में बंद रहता
थोड़ी ही देर में
ढके आकाश के नीचे ढका था,
रास्ते पर चल चुका था !
चल रहा था फुटपाथ पर ,
क्योंकि सड़क पर आदमी नहीं,
गाड़ियाँ चलती हैं,
यह मुझे अख़बार से मालूम हुआ था !
थोड़ी दूर बढ़ने पर
कान बांधे,मूँगफली की ढेरी पर
मटकी से धुआँ निकालते
एक आदमीनुमा गट्ठर से मैंने कहा,
'भाई,अठन्नी की दे दो '
उसने कहा,'बस ,छू लो !'
मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ
मैंने पाँच का पत्ता आगे बढ़ाया
मूँगफली लेकर आगे बढ़ आया !
अब ,
घना कोहरा,दिल्ली की सड़क,
गरम मूँगफलियाँ और हम !
सब एक साथ थे
जेब में हाथ थे .
थोड़ा आगे बढ़ने पर
लालबत्ती का अहसास हुआ ,
उसकी लालिमा भी जैसे बिला गई हो हमारी तरह ,
फिर भी रह-रह कर दमक रही थी,
किसी बुजुर्ग की ज़िम्मेदारी की तरह !
मैंने आव न देखा ताव,
सड़क को रुका हुआ देखकर
अपना वज़न आगे किया,
फुर्र से एक लम्बी गाड़ी ने
बिल्ली की तरह रास्ता काट दिया,
काले-सफ़ेद शीशों के बीच से
एक गोलमटोल आकृति ने हड़का ,
'अबे ! दिखता नहीं है क्या ?'
मैं सन्न था,सुन्न था ,
क्या बोलता !
हाथ में पकड़ी हुई मूँगफलियाँ
साथ छोड़ चुकी थीं.
तभी मैंने कंधे पर एक गरम हाथ महसूसा,
'बेटे,आप ही देखकर चला करो,
इनके पास तो देखने,चलने,
यहाँ तक कि जीने की भी मशीने हैं !
हम,आप तो बस इन्हें देखने के लिए हैं.'
मैं जब तक कुछ बोलता,
एक बुज़ुर्ग आगे जा चुके थे.
मैं चल रहा था,
सोच भी थोड़ा रहा था.
'ये तो मौसम का कुहरा है,छँट जायेगा,
पर,
जिनके दिमाग शीशों में बंद हैं,
संवेदनाओं की खाल पर बर्फ जमा है ,
वो किस गर्मी से पिघल रहे हैं ?
बाहर के कोहरे से भी ज्यादा धुंध
क्या कभी वे हटा पाएंगे,
उन शीशों और उस कोहरे के पार
कभी देख पाएंगे ?'
कोहरा और घना हो चला था
मैं कब तक सेल में बंद रहता
थोड़ी ही देर में
ढके आकाश के नीचे ढका था,
रास्ते पर चल चुका था !
चल रहा था फुटपाथ पर ,
क्योंकि सड़क पर आदमी नहीं,
गाड़ियाँ चलती हैं,
यह मुझे अख़बार से मालूम हुआ था !
थोड़ी दूर बढ़ने पर
कान बांधे,मूँगफली की ढेरी पर
मटकी से धुआँ निकालते
एक आदमीनुमा गट्ठर से मैंने कहा,
'भाई,अठन्नी की दे दो '
उसने कहा,'बस ,छू लो !'
मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ
मैंने पाँच का पत्ता आगे बढ़ाया
मूँगफली लेकर आगे बढ़ आया !
अब ,
घना कोहरा,दिल्ली की सड़क,
गरम मूँगफलियाँ और हम !
सब एक साथ थे
जेब में हाथ थे .
थोड़ा आगे बढ़ने पर
लालबत्ती का अहसास हुआ ,
उसकी लालिमा भी जैसे बिला गई हो हमारी तरह ,
फिर भी रह-रह कर दमक रही थी,
किसी बुजुर्ग की ज़िम्मेदारी की तरह !
मैंने आव न देखा ताव,
सड़क को रुका हुआ देखकर
अपना वज़न आगे किया,
फुर्र से एक लम्बी गाड़ी ने
बिल्ली की तरह रास्ता काट दिया,
काले-सफ़ेद शीशों के बीच से
एक गोलमटोल आकृति ने हड़का ,
'अबे ! दिखता नहीं है क्या ?'
मैं सन्न था,सुन्न था ,
क्या बोलता !
हाथ में पकड़ी हुई मूँगफलियाँ
साथ छोड़ चुकी थीं.
तभी मैंने कंधे पर एक गरम हाथ महसूसा,
'बेटे,आप ही देखकर चला करो,
इनके पास तो देखने,चलने,
यहाँ तक कि जीने की भी मशीने हैं !
हम,आप तो बस इन्हें देखने के लिए हैं.'
मैं जब तक कुछ बोलता,
एक बुज़ुर्ग आगे जा चुके थे.
मैं चल रहा था,
सोच भी थोड़ा रहा था.
'ये तो मौसम का कुहरा है,छँट जायेगा,
पर,
जिनके दिमाग शीशों में बंद हैं,
संवेदनाओं की खाल पर बर्फ जमा है ,
वो किस गर्मी से पिघल रहे हैं ?
बाहर के कोहरे से भी ज्यादा धुंध
क्या कभी वे हटा पाएंगे,
उन शीशों और उस कोहरे के पार
कभी देख पाएंगे ?'
उनके हृदय की धूप जगे और यह धुंध हटे।
जवाब देंहटाएंओह! सच ही कहा बुज़ुर्गवार ने।
जवाब देंहटाएंओह काश कार वाले बेकारों का दर्द समझ पाते ....भिखारी तो कार वालों को फूटी आँख भी नहीं सुहाते... महराज कहें आप भिखारी बने मूंगफली के सहारे दर दर भटक रहे हैं ?
जवाब देंहटाएंसुना है कल लालकिला और इण्डिया गेट धुंध में गयाब हो गए थे?
............तो इसलिए ही फेसबुक पर मूंगफली खाई जा रही थी ...
तभी मैंने कंधे पर एक गरम हाथ महसूसा,
जवाब देंहटाएं'बेटे,आप ही देखकर चला करो,
इनके पास तो देखने,चलने,
यहाँ तक कि जीने की भी मशीने हैं !
हम,आप तो बस इन्हें देखने के लिए हैं.'
वाह! बहुत सुन्दर अहसास.
कहते है घनी धूप में में पेड़ की छाया अच्छी और
सुखद होती है.ऐसे ही बुजर्गों की अनुभवपूर्ण नसीहत
भी ढंडक सी देती है.
शुक्रवार भी आइये, रविकर चर्चाकार |
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति पाइए, बार-बार आभार ||
charchamanch.blogspot.com
मौसम का कोहरा तो मिट जाएगा , दिमागों की धुन्ध कैसे मिटे ...
जवाब देंहटाएंवाह !
chalte....chalte likhte rahe...
जवाब देंहटाएंabhi phir aate hain...
pranam.
त्रिवेदी जी,
जवाब देंहटाएंसंतोष हुआ यह जानकर,
कि हम तो कार होते हुए भी बेकार हैं
क्योंकि जब कार में होते हैं
हमारी नज़रों से होते नहीं ओझल,
वो भिखारी, शीशा पोंछते बच्चे,
मूंगफली खाते सड़क पार करते
आप जैसे लोग,
बड़ी बेकार है कार मेरी,
वो सब दिखाती है
जो कार में बैठकर
धुंध छिपा जाती है.
/
ज़बरदस्त लिखे हैं त्रिवेदी जी!! आभार!!
'भाई,अठन्नी की दे दो '
जवाब देंहटाएंउसने कहा,'बस ,छू लो !'
हा हा हा ! सही मारा .
बढ़िया रही यह आप बीती .
लेकिन फ़र्ज़ तो पैदल यात्रियों का भी बनता है .
लगा कर कान में हेड फोन ऐसे चलते हैं जैसे सड़क उनके पिताश्री की हो .
मिश्र जी , भिखारी को चौराहे पर भीख देना दिल्ली में कानून में जुर्म है .
आपने तो खाका खींच दिया नज़रों के सामने ...
जवाब देंहटाएंइन कारों वालों को कौन समझायेगा ... आपको नया साल मुबारक हो ...
उसकी लालिमा भी जैसे बिला गई हो हमारी तरह ,
जवाब देंहटाएंफिर भी रह-रह कर दमक रही थी,
किसी बुजुर्ग की ज़िम्मेदारी की तरह !'
नए प्रतीक,नए प्रतिमान,नई उपमाये .......आप जैसों के लिए नए वर्ष का क्या आना क्या जाना! सोच सच को सुहाने स्वरूप मे सृजित करने वाले मेरे सन्तु दा !कमाल हो. और क्या कोहरे पकड़ा कि मेरे घर मे घुस आया वो कोहरा. कार वालों का दोष नही उनकी सम्पन्नता,उनके भाग्य से हमारी स्वाभाविक ईर्ष्या भर है.हम आपसे भी ईर्ष्या करते होंगे कई लोग.हा हा हा
प्रथम दृष्टया कविता फल्ली दाने के एश्वर्य को भोगते हुए घुमक्कड़ का सरल विवरण प्रतीत होती है जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं ...
जवाब देंहटाएंमेरे लिए यह कविता समकालीन भारतीय सामाजिक राजनैतिक परिदृश्य पर कई तरह के प्रतीकों की मदद से प्रहार करती हुई लगती है ! कोहरा गहन अवसाद और कठिन हालात के बिम्ब बतौर घनचक्कर हुए / बौखलाए हुए /अकबकाए हुए / बिलबिलाये हुए / दिशाहीन / मार्ग नहीं खोज पा रहे साधारण नागरिक का चौतरफा सत्य है !
कविता में मौजूद आशावाद कवि को सड़क पर घुमाने के बहाने आर्थिक सामाजिक असमानता की खाल खींचता हुआ अभिव्यक्त होता है ! कवि का आशावाद दिशाहीनता वाले परिदृश्य में किसी एक नागरिक के सचेत / जागरूक होने का उद्घोष करता है पर उसके मस्तिष्क में कहीं दूर अन्ना का नेतृत्व अब भी कायम है जबकि वह जानता है कि बुज़ुर्ग कैनवास से बाहर कर दिए गए हैं फिर भी वह खुद के बोध को रिवील करके उम्मीद जीवित रहने का इशारा करता है !
राजनैतिक / आर्थिक / सामाजिक कुहासे के विरुद्ध एक साधारण नागरिक की आँखे खुली हुई होने का संकेत अंततः सकारात्मक परिणाम के लिए संघर्ष और आशा लौ जलाये रखता है !
कविता शुद्ध रूप से राजनैतिक आशय रखती है !
@ अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंबस इतना सच है कि फेसबुकिया-स्टेटस से हमें थोड़ी प्रेरणा मिली,वर्ना महज कबिताई की कोशिश की है मैंने !
@सलिल वर्माजी,
आपको रुचा,हमको अच्छा लगा !
@डॉ.दराल साब
आपबीती नहीं जगबीती है !
@ इन्दुजी
जवाब देंहटाएंआपने कोहरे में टिमटिमाती लालबत्ती पकड़ ली,जैसे बुज़ुर्ग होते हुए लोग....लाख परेशानी में भी अपनी चमक(हल्की ही सही)बिखेरते रहते हैं !
@ अली साब
आपने बहुत-कुछ ताड़ लिया है,मुझे आपसे ज़्यादा उम्मीद थी और आपने निराश नहीं किया.
कोहरा,सड़क पर आदमी के बजाय गाड़ियां ,आदमीनुमा गट्ठर ,लालबत्ती,धुंध,गरम हाथ ,शीशे आदि ऐसे प्रतीक हैं जो इसे आज के सामाजिक बदलाव,नकली विकास,संवेदनहीनता,शिष्टाचार....सबको बिम्बित करते हैं !
आपकी टीप हमेशा की तरह पोस्ट से कहीं ज़्यादा प्रभावी और भावपूर्ण है !
सुबह पढ़ी थी कविता तो सोच रहा था कि वो हाथ आखिर किसका होगा..? कहीं अली सा का तो नहीं! मगर (अब बजरिये अली सा के कमेंट) जान पाया कि नहीं वो अन्ना जी का हाथ था।:)
जवाब देंहटाएंयह तो रही मजाक की बात। अब गंभीरता से कहें तो इस कविता में साधारण से दिखने वाले प्रतीकों के सहारे कवि बड़ी बात कहना चाहता है। बुजुर्ग के यह कहने के बावजूद भी कि देख कर तो हमे ही चलना है, उसके ह्रदय में अभी भी उम्मीद की किरण शेष है। वह मानता है कि सूरज फिर निकलेगा और कोहरा छंटेगा। आशा न होती तो वह संशकित होकर प्रश्न नहीं करता। बुजुर्ग के कहने पर चुपचाप मान लेता।
..नववर्ष में कोहरे से लड़ते रहने की यह प्रतिबद्धता मंत्रमुग्ध करती है। हमारी बधाई भी स्वीकार करें।
@ देवेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंटिपियाने में मिसिरजी,अली साब और आप आपस में कम्पटीशन रखते हैं !आपकी टीप की बड़ी देर से प्रतीक्षा थी.
आपने कही-अनकही को समझा,रचनाधर्म सार्थक हुआ !
कम्पटीशन! अरे नहींsss कम्पटीशन होती तो क्या सुबह ही नहीं कूद पड़ता:)
जवाब देंहटाएंएक गोलमटोल आकृति ने हड़का ,
जवाब देंहटाएं'अबे ! दिखता नहीं है क्या ?'
उसको हड़का देते। कहते क्या समझते हैं श्रीमान! हिंदी का ब्लॉगर हूं। कविता लिख के रगड़ दूंगा। :)
"कविता लिख के रगड़ दूंगा। :) " हा हा !
जवाब देंहटाएंस़ड़क, सर्दी और कोहरा
जवाब देंहटाएंदेता है सबको यूं ही डरा
न होता है हरा
न रहने देता है हरा
कोहरा ठंडाई से हरा भरा
उसकी भराई बनती है
आपकी भरभराहट
जिसे आप समझते हैं
सर्दी की ठंडाहट
कंपकंपाहट, आहट, चाहत
मूंगफलियों की रंग दिखलाती है
मुंह में जाती है पर घुलती नहीं
दांतों से मसली जाती है
यही तो मूसली पावर कहलाती है
इसी मूसली पावर की अब जरूरत है
हिन्दी चिट्ठों और चिट्ठाकार साथियों को
कम्पीटीशन में मिशन नहीं
काम आता है तुरंत डिसीजन।
kavitayi ki ragrai se agar na mane to
जवाब देंहटाएंtippaniyon ke bambari se dhwast kar doonga........
pranam.
@अनूप जी आम आदमी के साथ-साथ ब्लॉगर और कविता की भी इज्ज़त उतरवानी है क्या ?
जवाब देंहटाएंपरिवेश प्रधान मार्मिक प्रसंग और संवेदना लिए है यह रचना .शहर की निस्संग जिन्दगी की बे बाक झांकी .
जवाब देंहटाएं@अविनाश भाई
जवाब देंहटाएंआपकी लिखाई,
हमारी पढ़ाई पर भारी है,
क्योंकि आप अंतर्जाल के शिकारी हैं !
@वीरू भाई
आपका आभार .
इनके पास तो देखने,चलने,
जवाब देंहटाएंयहाँ तक कि जीने की भी मशीने हैं !
हम,आप तो बस इन्हें देखने के लिए हैं.'
शानदार प्रतीकों और बिम्बों से सजे खूबसूरत अभिव्यक्ति...
सादर बधाई...
इस बार "मिस" हुई है दिल्ली की सर्दी...अगली बार हिसाब चुकता कर लेंगे :) ...
जवाब देंहटाएंमुझे अंत की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं...
'ये तो मौसम का कुहरा है,छँट जायेगा,
पर,
जिनके दिमाग शीशों में बंद हैं,
संवेदनाओं की खाल पर बर्फ जमा है ,
वो किस गर्मी से पिघल रहे हैं ?
बाहर के कोहरे से भी ज्यादा धुंध
क्या कभी वे हटा पाएंगे,
उन शीशों और उस कोहरे के पार
कभी देख पाएंगे ?'
कविताई और अली जी की टिपाई मोहक..:)
जवाब देंहटाएंजिनके दिमाग शीशों में बंद हैं,
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं की खाल पर बर्फ जमा है ,
वो किस गर्मी से पिघल रहे हैं ?... सच कहा है आपने, हर किसी की व्यथा, हर किसी की कविता
आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |
जवाब देंहटाएंकभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-