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अविनाशी-मुद्रा |
क़रीब दस महीने पहले की बात है.नवभारत टाइम्स अखबार में एक व्यंग्य छपा था,जिसमें मास्टरों की जनगणना ड्यूटी के बारे में खूब मजे लिए गए थे .
अविनाश वाचस्पति जी का यह लेख मास्टरों की दयनीय दशा पर प्रहार था जो व्यवस्था को भी आइना दिखा रहा था.मुझे बड़ी गुदगुदी लगी और लगा कि यही समय है जब अविनाश जी को धरा जाय.उल्लेखनीय है कि यह वह समय था,जब मैं ब्लॉग-जगत में सक्रिय होने के लिए उतारू था.कई लोगों से मिल चुका था और कइयों से मिलने की ताक़ में था.सच पूछिए ,इस उपक्रम में अविनाशजी सबसे बढ़िया और आसान शिकार निकले.
मैं फेसबुक में अविनाशजी से जुड़ा था पर कोई ख़ास संवाद नहीं हुआ था.उस दिन उस लेख को पढ़कर मैंने फेसबुक से उनका नंबर लिया और तुरत फोन लगा दिया.मैंने अविनाशजी से गंभीर मुद्रा में पूछा,''क्या मिस्टर अविनाश वाचस्पति बोल रहे हैं ?' उधर से आराम से जवाब आया,"जी हाँ,बोलिए." मैंने कहा,'मैं शिक्षा विभाग से बोल रहा हूँ.आपने अखबार में जो लेख लिखा है उसके लिए आप पर मानहानि का दावा किया जा सकता है." उन्होंने उसी सहज अंदाज में उत्तर दिया,'जी नहीं.मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा है जिससे किसी की मानहानि हो".मैंने जल्दी ही हथियार डाल दिए और जब नाम बताया तो वे खिलखिलाकर बोले,"मैं जानता था कि किसी मास्टर का ही फ़ोन होगा और मुझे तो ऐसे फ़ोन सुनने की आदत-सी हो गई है". अब इसके बाद तो उनसे बातचीत का ऐसा सिलसिला शुरू हो गया कि पूछो मत.
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अविनाशजी के घर में |
पहले दौर की बातचीत जो निहायत अजनबियत के माहौल में हुई थी,इतनी रसदार रही कि हम आपस में रूटीन बातचीत करने लगे.उसी बीच उनकी बीमारी की ख़बर ने मिलने का मौक़ा जल्द ला दिया और पता-ठिकाना पूछते हुए हम उनके आवास पर मिल भी आये.उसके थोड़े दिन बाद ही अविनाशजी भी हमारे यहाँ आये और मेरे कम्प्यूटर पर हिंदी-फॉण्ट लिखने का जुगाड़ करके चले गए.ये बातें जितनी सहजता से हुईं कि लगा ही नहीं कि उनमें नवजात ब्लॉगरों से कोई अस्पृश्यता-भाव या मुँह-बिचकाऊ ग्रंथि है.बड़े व्यक्तित्व का स्वामी भी आज के समय में ऐसा करता हुआ नहीं दिखता.जो व्यक्ति थोडा-बहुत या छोटा-मोटा ही सही ,अपना झंडा गाड़ने लगता है वह अपने खूंटे के उखड़ने के डर से किसी दूसरे को ज़मीनी-माहौल भी देने में कतराता है.अविनाशजी इस सबमें एक अपवाद की तरह हैं. जब भी कोई समस्या हो आप अनौपचारिक ढंग से बात शुरू कर दीजिये और वे लम्बी-लम्बी सलाहें फेंकने लगते हैं.घर में भी किसी भी ब्लॉगर के लिए वे स्वागत को उत्सुक रहते हैं.
अविनाशजी में नए लोगों को प्रेरित करना,उन्हें तकनीकी और दूसरे दांवपेंचों से अवगत कराना जैसे मौलिक गुण हैं.क्या आज के समय में ऐसा कोई पहलवान है जो अपने अखाड़े के गुर किसी और पहलवान को बताएगा पर वे बिला-झिझक या संकोच के ऐसा लगातार करते रहते हैं.उन्होंने कई ब्लॉगरों को तो जन्म दिया ही,कुछ प्रकाशकों को भी अपनी दिहाड़ी कमाने और सबके सामने लाने का काम किया है.हाँ ,कुछ लोग ज़रूर उनके इस जबरिया सहयोग-भाव और भोलेपन का फायदा उठा ले जाते हैं.एक एजेंट,एक डॉक्टर और एक प्रकाशक के झांसे में वे फंस चुके हैं,फिर भी नए लोगों को ऊपर उठाने में वो कोई कोताही नहीं बरतते.एक बात और है,वे अगर ज़िद पर अड़ जाएँ तो किसी भी काम को पूरा करके ही दम लेते हैं.
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पहलवानी-मुद्रा |
उनके रचना-कर्म की तो कोई मिसाल ही नहीं है.अस्वस्थता की स्थिति में होते हुए भी एक दिन में दो-तीन लेख ज़रूर लिख लेते हैं.उनकी व्यंग्य की अपनी अलग शैली है.किसी एक शब्द के पीछे-पीछे वे पता नहीं कहाँ तक पहुँच जाते हैं.उनके लेखन का तो कई लोग ओर-छोर ही ढूँढते रह जाते हैं.कई दैनिक पत्रों में उनके नियमित कालम आते हैं और वे फेसबुक पर भी बराबर विमर्श करते रहते हैं.हर दिन वे क़रीब दस अखबार और तीन-चार पत्रिकाओं की खुराक लेते हैं.कुछ दिनों पहले ही ब्लॉगिंग को लेकर रवीन्द्र प्रभात जी के साथ उनकी एक पुस्तक आई थी और अभी एक बहुचर्चित व्यंग्य-संग्रह "व्यंग्य का शून्यकाल" भी आ चुकी है. वे अपने सामूहिक ब्लॉग
नुक्कड़ के ज़रिये बहुत बड़ा योगदान कर रहे हैं.उनके अन्य कई व्यक्तिगत-ब्लॉग हैं,जिन्हें यहाँ समेटना संभव नहीं है.इतनी कार्यक्षमता देखते हुए हमें उनसे रश्क होता है.
मुझ पर उनकी विशेष कृपा है.उन्होंने कई तरह से और कई जगह मुझे अयाचित लाभ और मौके मुहैया कराये हैं जिनका मैं हमेशा कर्जदार रहूँगा.ईश्वर उनको चिरायु करे और ऐसे ही बना रहने दे.