28 फ़रवरी 2012

किताब जो बोलती है !


मुझे ले तो आये हो 
ढोकर एक बोरे की तरह,
पड़ी रहूँगी किसी कोने में 
घर में एक बुजुर्ग की तरह ! 
जावेद अख्तर जी से 'लावा' की हस्ताक्षरित प्रति लेते हुए
 (२७/०२/२०१२),पुस्तक-मेला ,दिल्ली 
मेरी बातें सुनोगे भी कभी
या भूल जाओगे 
किसी रिश्ते की तरह ?
मैं गुमसुम हो 
तकती रहूँगी तुम्हारी राह 
कभी तो सहलाओगे मुझे 
जुल्फों की तरह !
हमारे हर्फ़ न होंगे स्याह 
और न ही ज़र्द,
जिंदा रहेंगे अर्थ 
रूह के हिस्से की तरह !

45 टिप्‍पणियां:

  1. कभी तो सहलाओगे मुझे
    जुल्फों की तरह !
    हमारे हर्फ़ न होंगे स्याह
    और न ही ज़र्द,
    जिंदा रहेंगे अर्थ
    रूह के हिस्से की तरह....

    बहुत सुंदर भाव पुर्ण सुंदर पंक्तियाँ ....
    जावेद जी से मुलाक़ात के लिए ...बधाई काश हम भी वहाँ होते...

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    1. बहुत धन्यवाद धीरेन्द्र भाई....
      कभी 'तुम्हारौ' मौका आई !

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  2. जिंदा रहेंगे अर्थ
    रूह के हिस्से की तरह....
    sateek abhivyakti .badhai javed ji se mulakat karne par .

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  3. बहुत सुन्दर भाव,
    बधाई!!! जावेद अख्तर जी से 'लावा' की हस्ताक्षरित प्रति प्राप्त करने के लिए...

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    1. हाँ विद्या जी...यह जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है हमारे लिए !

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  4. पड़ी रहूँगी किसी कोने में
    घर में एक बुजुर्ग की तरह !
    सुंदर रचना.....

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  5. सुनों किताबें बोलतीं, पावन करती देह ।
    कानों में मिश्री घुले, करलो इनसे नेह ।

    करलो इनसे नेह, निभाती रिश्ता हरदम ।
    लेकर जाओ गेह, मित्र ये रहबर अनुपम ।

    मानस मोती पाय, अघाए मानव बुद्धी ।
    साबुन तेल बगैर, करे तन-मन की शुद्धी।

    दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक

    http://dineshkidillagi.blogspot.in

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  6. हमारे हर्फ़ न होंगे स्याह
    और न ही ज़र्द,
    जिंदा रहेंगे अर्थ
    रूह के हिस्से की तरह !

    सुंदर अभिव्यक्ति .... किताब पर तो कभी ध्यान चला भी जाये लेकिन उपेक्षित बुजुर्ग क्या करें ?

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  7. अब ले आए हैं तो पढ़ा भी जायेगा .
    ये तो हो नहीं सकता की सिर्फ ज़ावेद साहब के साथ फोटो खिंचवाने के लिए खरीदी है . :)

    बहरहाल नज़्म बहुत खूबसूरत बन पड़ी है . बधाई .

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    1. मैं किताब को,
      जावेद को,
      और फोटो को यदि पढ़ सका
      तो धन्य हो जाऊंगा
      पकी हुई फसल की तरह !

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  8. माट्साब!
    इस व्यथा को कभी सुना है किताबों की सिसकियों में:
    कितनी रूहें तडपती हैं,
    पडी-पडी आलमारियों में
    उन किताबों की, जिनके
    दो जुड़े हुए पन्ने भी न काटे गए,
    गर्भनाल की तरह!!

    /
    पुस्तकों की संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति!!

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  9. मेरी पुस्तकें भी यही कहती हैं मुझसे..

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  10. किताब की कथा व्यथा को सुंदर सहज शब्दों में उतार दिया ।

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  11. किताबें वैसे भी तड़पती हैं
    हम जैसे चटोर के हाथों पड़कर
    छोड़ता हूं जब उन्हें पूरा ही चाटकर!

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  12. शीशे के पीछे से झांकती किताबें ऐसे भी बतियाती है ...
    सुन पा रहे हैं तो पढ़ भी लेंगे ही !

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  13. कभी मैंने भी पुस्तकों की तुलना रूपसियों से की थी ..मुझे तो लाये हो सजना ...क्या बात है ?
    अच्छा जा रहे हो !

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  14. हम सबसे यही शिकायत होगी ......सच में किताबों के मन का दर्द कितना गहरा है.....

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  15. चकाचक फोटो है। किताबें जो लाये हैं उनके बारे में लिखिये और अपनी कविता में व्यक्त आशंका को खलास कर दीजिये।

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  16. किताबो की मूक भाषा कभी कभी चीख के भी बोलती है ... पर यदि हम सुनना चाहें तभी ...

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  17. वास्तव में किताबों की यही हालात हैं अच्छी पोस्ट बधाई

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  18. पुस्तके हमारी धरोहर है उनको सहेजना हमारा कर्तव्य है,...बेहतरीन रचना....
    बहुत अच्छी प्रस्तुति,

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  19. मस्त तस्वीर...अब किताबों की समीक्षा की जाये...

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  20. शानदार अभिव्यक्ति.
    किताब को भी जुबान देती हुई.

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  21. अच्छा ...तो किताब इस तरह भी सोचती हैं?

    :)

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