दर्द अब निकलता नहीं
महसूसता भी नहीं,
उपजाया जाता है चेहरे पर
खेत में फसल की तरह
और काट लिया जाता है पकते ही .
नकली दर्द खबर बनता है
ऊँचे दाम पर बाज़ार में बिकता है,
उस पर और रंग-रोगन कर
परोस दिया जाता है
सभ्य समाज में चर्चा के लिए .
दर्द अब पीड़ा नहीं बनता
न ही मोहताज़ होता किसी हाथ का
अपने काँधे पर रखे होने का,
साहित्य का हिस्सा बनकर वह,
सम्मान-समारोहों में मालाएं पहनता है
इस तरह दुःख और दर्द को हम नहीं
बाज़ार भोगता है !
महसूसता भी नहीं,
उपजाया जाता है चेहरे पर
खेत में फसल की तरह
और काट लिया जाता है पकते ही .
नकली दर्द खबर बनता है
ऊँचे दाम पर बाज़ार में बिकता है,
उस पर और रंग-रोगन कर
परोस दिया जाता है
सभ्य समाज में चर्चा के लिए .
दर्द अब पीड़ा नहीं बनता
न ही मोहताज़ होता किसी हाथ का
अपने काँधे पर रखे होने का,
साहित्य का हिस्सा बनकर वह,
सम्मान-समारोहों में मालाएं पहनता है
इस तरह दुःख और दर्द को हम नहीं
बाज़ार भोगता है !
महसूसता !!!
जवाब देंहटाएंइस प्रकार के शब्दों से बचें
वे मोहताज़ता भी लिखते तो मैं ऐतराज ना करता :)
हटाएं...अली सा,आपसे ही उम्मीदता थी पर हाय :-)
हटाएंपर आपसे उत्तरता की उम्मीदता ना थी :)
हटाएं...अच्छा तो यह आपकी उदारता थी :-)
हटाएंपीड़ा देकर जाती पीड़ा,
जवाब देंहटाएंनहीं और कोई पथ संभावित,
मन का बोझ हटाने बैठा,
दुखमग्ना सी लहर प्रवाहित।
...महसूस होने से कहीं अधिक प्रभावी हमें लगता है यह शब्द ।कविता में यह चलन में है ।
जवाब देंहटाएंउपजाया जाता है चेहरे पर फसल की तरह ..... सटीक .... सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंबाजारवाद लितना हावी हो गया है ... दर्द भी बिकने लगा है ...
जवाब देंहटाएंगहरी अभिव्यक्ति है संतोष जी ...
आलोचना मिलना सौभाग्य होता है। काजल जी को धन्यवाद दें। उन्होंने आपकी कविता में रच-बस कर ही सुझाव दिया है। और प्रवीण पाण्डेय जी ने तो (टिप्पणियों)को अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में साहित्य का दर्जा तक दिया है।
जवाब देंहटाएंआपकी कविता में यथार्थ की सुन्दर अभिव्यक्ति है।
हटाएं...विकेश जी,हमने काजल जी की आलोचना को नकारात्मक रूप से नहीं लिया है,पर अपनी समझ तो बता ही सकते हैं.
हटाएंबिलकुल जी।
हटाएंबहुत बढ़िया आदरणीय मित्र ||
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें-
जारज-जार बजार सह, सहवासी बेजार |
दर्द दूसरे के उदर, तड़पे खुद बेकार |
तड़पे खुद बेकार, लगा के भद्र मुखौटा |
मक्खन लिया निकाल, दूध पी गया बिलौटा |
वालमार्ट व्यवसाय, हुआ सम्पूरण कारज |
जारकर्म संपन्न, तड़पती दर दर जारज ||
...आभार मित्र !
हटाएंउपजाया जाता है चेहरे पर
जवाब देंहटाएंखेत में फसल की तरह
और काट लिया जाता है पकते ही ......waahh !! bahut khoob !!
उपजाया जाता है चेहरे पर
जवाब देंहटाएंखेत में फसल की तरह
और काट लिया जाता है पकते ही .
नकली दर्द खबर बनता है
ऊँचे दाम पर बाज़ार में बिकता है,,,,सटीक अभिव्यक्ति,,,बधाई संतोष जी,,
recent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
बाज़ारवाद का नंगा सच!
जवाब देंहटाएंढ़
--
थर्टीन रेज़ोल्युशंस
दर्द का व्यापार ! एक नया पहलु उजागर किया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति सोमवार के चर्चा मंच पर ।। मंगल मंगल मकरसंक्रांति ।।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंवाकई महसूसता शब्द इंटेंस लगता है...शब्दकोष से परे भी कुछ लिखना चाहिए कभी कभी.
जैसे हमारा पसंदीदा शब्द है निष्फिक्र :-)
सादर
अनु
...निष्फिक्र भी पहली दफा सुन रहा हूँ:-)
हटाएंनिश्चित रूप से बाज़ार ही भोगता है.....और यह भी समाज के लिए एक दर्द है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति के अवसर पर
उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!
शास्त्री जी,आपको भी ।
हटाएंदर्द बिकता बाज़ार मे भैया
जवाब देंहटाएंजैसे नींबू आचार में भैया
जवाब देंहटाएंदिनांक 03/02/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
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फिर मुझे धोखा मिला, मैं क्या कहूँ........हलचल का रविवारीय विशेषांक .....रचनाकार--गिरीश पंकज जी
आभार !
हटाएंबहुत खूबसूरती से दर्द की नुमाइश को बखान किया है.
जवाब देंहटाएंदर्द के बाजार को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना...