रोज़ सुबह उठकर
बालकनी से निहारता हूँ,
मेरे नीले आसमान में
बादलों के काले-घुंघराले निशान
नहीं दिखते दूर-दूर तलक |
दिल एकदम से बैठ जाता है,
फ़िर से बालकनी को छोड़कर
बादलों को दो बातें सुनाकर
सुखा देता हूँ अपना हलक |
दिन में भी कई बार
देखता हूँ आकाश को
मानसूनी-मौसम में
सीधा-सपाट |
मेह के बिना,
कितना बंजर है वह ?
हम ताकते हैं उससे
उम्मीद की फ़सल
जबकि पत्थरों से फोड़े हैं
खुद अपने ललाट |
अपनी प्रगति की दौड़ में
बिसरा दिया प्रकृति को,
खा गए उसके सब फल |
सोख लिया उसके समुद्र को,
भर लिया असीमित पेट
खाली कर धरती की कोख
लूट लिया नई पीढ़ी के स्वप्न
दे दिया सीमेंट के महल |
अब आसमान को निहारने में
आँख भी साथ नहीं देती,
ज़मीन के साथ-साथ
अब यह भी नम नहीं होती|
बाबा नागार्जुन ने बहुत पहले
बादल को घिरते देखा था,
हम आज की दुनिया में
आगे बढ़ते
प्रगति करते हुए
महज़ कागजी-सवाल करते हैं,
'बादल को किसने देखा है ?'
बालकनी से निहारता हूँ,
मेरे नीले आसमान में
बादलों के काले-घुंघराले निशान
नहीं दिखते दूर-दूर तलक |
दिल एकदम से बैठ जाता है,
फ़िर से बालकनी को छोड़कर
बादलों को दो बातें सुनाकर
सुखा देता हूँ अपना हलक |
दिन में भी कई बार
देखता हूँ आकाश को
मानसूनी-मौसम में
सीधा-सपाट |
मेह के बिना,
कितना बंजर है वह ?
हम ताकते हैं उससे
उम्मीद की फ़सल
जबकि पत्थरों से फोड़े हैं
खुद अपने ललाट |
अपनी प्रगति की दौड़ में
बिसरा दिया प्रकृति को,
खा गए उसके सब फल |
सोख लिया उसके समुद्र को,
भर लिया असीमित पेट
खाली कर धरती की कोख
लूट लिया नई पीढ़ी के स्वप्न
दे दिया सीमेंट के महल |
अब आसमान को निहारने में
आँख भी साथ नहीं देती,
ज़मीन के साथ-साथ
अब यह भी नम नहीं होती|
बाबा नागार्जुन ने बहुत पहले
बादल को घिरते देखा था,
हम आज की दुनिया में
आगे बढ़ते
प्रगति करते हुए
महज़ कागजी-सवाल करते हैं,
'बादल को किसने देखा है ?'
सुंदर रचना ...सूखा सावन हृदय विदारक ही लगता है ...!!
जवाब देंहटाएंहर सीमा पार कर गए हैं हम प्रकृति के दोहन की ....
जवाब देंहटाएंदर्द की बरसात ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक कथन ।
सबकी व्यथा ।।
बचपन में भोगा दिखा, टपका का भय खूब ।
वर्षा ऋतु में रात दिन, टप टप जाए ऊब ।
टप टप जाए ऊब, आज भी टपका लागा ।
बिन बादल की उमस, पसीना टपक अभागा ।
करता है बेचैन , नैन टकटकी लगाए ।
ताकें जल के सैन, और कुछ भी ना भाये ।।
when we constantly abuse our ecology and pollute the environment, we have to expect these repurcussions. we are all unhappy about the delay in the monsoon, but none of us will stop using plastic bags..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबरखा विरह!!
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति!!
बादलों को दो बातें सुनाकर
जवाब देंहटाएंसुखा देता हूँ अपना हलक |
खुद ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर बादलों को दोष देने में लगा है इंसान .... सार्थक रचना ॥
यथार्थ को शब्दों में उतरा है आज ... बाबा तो सच ही कह गए हैं ... आंखमिचौली खेलने लगी है बरसात अब तो ..
जवाब देंहटाएंहर कवि ने देखा है और हर किसान ने - ख्यालों में
जवाब देंहटाएंबादलों के दल की दिल्ली को इंतजार है।
जवाब देंहटाएंचाहे दिखे न, बरस जाए, भिगोए मन।
बादल बस अपनी बात कहते हैं, किसी की सुनते नहीं।
जवाब देंहटाएंकही जोर से बादल फटते,कही होती बरसात
जवाब देंहटाएंसावन सूखा उमस से, कटते नहीं दिन रात,,,,,,,
बहुत बढ़िया प्रस्तुती, संतोष जी,,,,,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: आदर्शवादी नेता,
हलक सुखाने से क्या फायदा पथराई हुई आंखों से बादलों का इंतज़ार लिखते तो बादलों का दिल भी पसीज जाता !
जवाब देंहटाएंदिल्ली जाने से क्यों घबरा रहे हैं बादल ? ये तो बडी चिंता का विषय है !
मुझे भी ऐसा ही लगता है :)
हटाएंसावन में - 'सूखा', .. हमारी ही करतूत .. सुंदर पंक्तियाँ.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएंतुमने बादल को आते देखा होगा
मैने तो बादल को जाते देखा है।
सराहनीय - संग्रहणीय प्रस्तुति .आभार हमें आप पर गर्व है कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
जवाब देंहटाएंये दिन भी आने ही थे, इतना श्रम जो क्या है :(
जवाब देंहटाएंसामयिक और विचारणीय पारिस्थितिकी बोध -कविता
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ते
जवाब देंहटाएंप्रगति करते हुए
महज़ कागजी-सवाल करते हैं,
'बादल को किसने देखा है ?'
.....एक सच को बयान किया है आपने।
सामयिक बेहतरीन कविता।
अब आसमान को निहारने में
जवाब देंहटाएंआँख भी साथ नहीं देती,
ज़मीन के साथ-साथ
अब यह भी नम नहीं होती|
....प्रकृति के साथ खिलवाड़ का परिणाम भुगत रहे हैं...ऐसा ही रहा तो शायद वर्षा भी एक ख्वाब बन कर रह जाये...बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति...
behad rochak......
जवाब देंहटाएंक्या बात है रविकर जी ,मजा न आ गया ,कतई लठ्ठ गाढ दिए भाई आज तो ..बढिया व्यंग्य संतोष त्रिवेदी जी का .
जवाब देंहटाएंअब आसमान को निहारने में
आँख भी साथ नहीं देती,
ज़मीन के साथ-साथ
अब यह भी नम नहीं होती|
प्रकृति (राजनीति की )और पर्यावरण (सामाजिक )सभी कुछ पिरो दिया इस छोटी सी कविता में .
..कृपया यहाँ भी पधारें -
कविता :पूडल ही पूडल
कविता :पूडल ही पूडल
डॉ .वागीश मेहता ,१२ १८ ,शब्दालोक ,गुडगाँव -१२२ ००१
जिधर देखिएगा ,है पूडल ही पूडल ,
इधर भी है पूडल ,उधर भी है पूडल .
(१)नहीं खेल आसाँ ,बनाया कंप्यूटर ,
यह सी .डी .में देखो ,नहीं कोई कमतर
फिर चाहे हो देसी ,या परदेसी पूडल
यह सोनी का पूडल ,वह गूगल का डूडल .
ओह! सच में बहुत ही दुखद स्थिति है.
जवाब देंहटाएंआपकी प्रस्तुति हृदय को झकझोर रही है.