पसीने को भी तरसता है ,
बंद कमरों में बैठे भद्र जन
बाहर का तापमान नाप रहे हैं ||
निखंड घाम में बाहर जाता आदमी
होठों से प्यास को दबाता है,
मॉल में घूमते बड़े लोग
ठंडी बियर डकार रहे हैं ||
निखंड घाम में सफ़र करता आदमी
गमछे से मुँह ढाँपता है,
बी एम डब्ल्यू में बैठे लोग
पॉप संगीत पर ठहाके मार रहे हैं ||
निखंड घाम में घर लौटता आदमी
एक नींबू के लिए मोलभाव करता है,
कोठियों में आते संभ्रांत जन
अंगूर की पेटियाँ ला रहे हैं ||
hamne bhi gandhi aashram se ek gamchha 90 rs. me liya hai.
जवाब देंहटाएंhijaab me nikalna padta hai.
शुक्रिया जनाब |
हटाएंनिखंड घाम में सफ़र करता आदमी
जवाब देंहटाएंगमछे से मुँह ढाँपता है,
बी एम डब्ल्यू में बैठे लोग
पॉप संगीत पर ठहाके मार रहे हैं ...
कितना कडुवा सच लिखा है ... यथार्थ लिखा है ... आम आदमी की त्रासदी कों लिखा है शब्दों में ...
नासवा जी आभार |
हटाएंnagarjun si kavita...
जवाब देंहटाएं...हो सकता है,कुछ पंक्तियाँ यहाँ डाल देते तो मैं भी समझ सकता !!
हटाएंसुख से यहाँ भी दूरी है
जवाब देंहटाएंसुख से वहां भी दूरी है ,
यहाँ हेल्थ की मजबूरी है
वहां वेल्थ की मजबूरी है !
जिंदगी तेरे कितने रूप !
दराल साब,क्या खूब फ़रमाया है...!
हटाएंवास्ते दराल साहब ,
हटाएंजिंदगी तेरे कितने रूप
कहीं छांव तो कहीं धूप
दो स्थितियों के विरोधी दृश्य-क्रम को लिए रचना, सच्चाई रखने ka प्रयास!
जवाब देंहटाएंआभार अमरेन्द्र भाई !
हटाएंशुभकामनायें आपको ...
जवाब देंहटाएंसतीश भाई ,
हटाएंसंतोष जी ने दो परिस्थितियाँ सामने रखी हैं आपने कौन सी वाली के लिए उन्हें शुभकामनाएं दीं हैं :)
फंसायें मत गुरुवर ....
हटाएंमैंने सिर्फ शुभकामनायें दी हैं :)
शुभकामनायें भी फंसाती हैं! :)
हटाएं...मगर इस वक़्त मुझे सतीश भाई की शुभकामनाओं की सख्त ज़रूरत है |
हटाएंआभार
हमेशा आपके साथ खड़े हैं ...
हटाएंसतीश जी,आपके इन शब्दों में गज़ब की ऊर्जा है,आभार |
हटाएं:)
हटाएंनिखंड घाम में घर लौटता आदमी
जवाब देंहटाएंएक नींबू के लिए मोलभाव करता है,
....... यह कविता ....... सत्य की बेहद करीब है !
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है ..!!
जवाब देंहटाएंजब दिल से लिखोगे,आप भी लिख सकोगे ||
हटाएंजय जय जय जय,
जवाब देंहटाएंजय भारत जय
आभार भाई !
हटाएंकविता पढ़कर ये भाव जगे....
जवाब देंहटाएंधूप में
ढूँढता हूँ
छांव
छांव में
पीता हूँ
धूप
घर आता हूँ
जब थकते हैं
पाँव
लिखता हूँ
धूप-छांव
मैं कवि हूँ।
...बहुत उम्दा,अब आप भी हमारी तरह कवि हो गए...!
हटाएंआंय !
हटाएं:)
हटाएंयही वह विडम्बना जिसे प्रतिपल भोगने हम विवश हैं।
जवाब देंहटाएंबस लिखकर दिल का हाल बयां कर देते हैं,
हटाएंऐसे भी दिन आए हैं ,छुपकर हम रो लेते हैं !!
संवेदनशील है मामला। शुभकामनायें आपको।
जवाब देंहटाएंमहराज...शुभकामना के अलावा और कुछ दीजिए.यह काम सतीशजी के नाम पेटेंट है !!
हटाएंनिखंड घाम के कुछ दृश्य हमने भी देखे ...
जवाब देंहटाएंनिखंड घाम में
श्रमिक महिलाएं
तगार उठाये
तीसरी मंजिल पर
ईंटे पहुंचाएं ...
तोड़ कर प्याज मुट्ठी से
रोटी को पानी से गटककर
थोडा सुस्तायें !
निखंड घाम में कही
बस के इंतज़ार में
खड़ी है कुछ महिलाएं
कतार लगाए !
उसी निखंड घाम में
स्कार्फ लपेटे कुछ बालाएं
दस्ताने पहने
काला चश्मा लगाये
फटफटिया की पिछली सीट पर
फ़र्राट लगाये !
वाणीजी...ई तो हमारी रचना से भी अच्छी रचना है !
हटाएंबहुत आभार
निखंड घाम में अब आप भी अखंड खर खाने को स्वतंत्र हैं !
जवाब देंहटाएं...पर चरने को तो नहीं मिलेगा |
हटाएंफिर भी समाजवाद , संवेदनशीलता , समानता की बात होती है ... !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रश्मिजी !
हटाएंमित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
जवाब देंहटाएंआओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
--
शुक्रवारीय चर्चा मंच ।
आभार रविकर भाई !
हटाएंनिखंड घाम में सफ़र करता आदमी
जवाब देंहटाएंगमछे से मुँह ढाँपता है,
बी एम डब्ल्यू में बैठे लोग
पॉप संगीत पर ठहाके मार रहे हैं ||
बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर कविता,,,,,
RECENT POST ,,,, काव्यान्जलि ,,,, अकेलापन ,,,,
आभार लम्बरदार !
हटाएंअब निखंड घाम में हमारे मन पर तो केवल एक ही चित्र उभरता है और बचपन से छपा हुआ है.. तोडती पत्थर
जवाब देंहटाएंदेखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर!!
निखंड घाम में मैंने अपनी आँखों से ४८ डिग्री में डामर की सड़क काटते मजदूर को देखा है जिसके काम का लेखा-जोखा १८ डिग्री पर कमरे में बैठा इंसान कर रहा होता है.. तब मैंने एक शे'र कहा था:
ठन्डे घरों में करता पसीने का वो हिसाब,
तपती सड़क पे लम्हा इक गुज़ार तो आये!
...कितना सटीक कहा है आपने..?
हटाएंऔर हाँ,हम कितना मिस करेंगे आपको सलिल जी ?
मेरा एकठो शेर आपके वास्ते...
नज़रों से मेरी छुपके,तुम जाओगे कहाँ,
करोगे रुख जिधर भी, हमें पाओगे वहाँ !!
काहे को मिस करोगे उन्हें , उनका नौकरी में तबादला हुआ है वे इंटरनेट की दुनिया से कहीं नहीं जा रहे हैं !
हटाएंअली जी, वे दोनों दिल्ली में रहते हैं, रोज़ मुलाकात की सम्भावनायें हैं, ट्रांस्फ़र के बाद मिस करने की पूरी सम्भावना है। :(
हटाएंझा साहब आभार आपका !
जवाब देंहटाएंआभार शिल्पाजी...आप यूँ ही मुस्कराती रहें !
जवाब देंहटाएंबंद कमरों में बैठे भद्र जन
जवाब देंहटाएंबाहर का तापमान नाप रहे हैं.....
जबर्दस्त...
सादर।
आभार संजयजी !
हटाएंसच तो यही है .. जो आपने कहा उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सदाजी...|
हटाएंहे राम - यह मुस्कुराता smiley नहीं था संतोष जी | यह धूप में झुलसते श्रम करते श्रमिक के साथ उदास smiley था | खुदा न करे कि यूँ ही रहना पड़े, हमें, या आपको, या उस श्रमिक को, किसी और को .....
जवाब देंहटाएंमुझे कुछ शुबहा हो रंहा था पर शायद स्नेह के कारण या बेख्याली में कह गया ,बाकी आपके भाव समझ गया था !
जवाब देंहटाएंसंतोष त्रिवेदी जी पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ बहुत सुन्दर व्यंग्य कापुट लिए प्रस्तुति बहुत पसंद आई
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है !
हटाएं...यह हमारी बदकिस्मती है कि हमारे व्यंग्य को लोग गंभीर समझ लेते हैं और गंभीर को व्यंग्य:-)
निखंड घाम में काम करता आदमी,
जवाब देंहटाएंपसीने को भी तरसता है ,
बंद कमरों में बैठे भद्र जन
बाहर का तापमान नाप रहे हैं |
...एक कटु सत्य जिसका हमारी व्यवस्था के पास कोई ज़वाब नहीं .....
आपका आभार कैलाश जी !
हटाएंसटीक .... यह उहापोह जीवन में हर कहीं दिखती है....
जवाब देंहटाएं...शुक्रिया जी !
हटाएंसुख दुख, अमीरी गरीबी, जीवन के दो रूप ... सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंआभार अनुराग जी !
हटाएंएक सुखी है एक दुखी है, एक हंसता एक रोता रे, क्या कारण होगा,रे क्या कारण होगा?
जवाब देंहटाएंहर सफल शोषक नहीं होता,हर दुखी नहीं पीडित रे, कोई कारण होगा,सोचो तो कोई कारण होगा?
वैसे इस निखण्ड घाम का अर्थ क्या है?
सुज्ञ जी,
हटाएंनिखंड घाम का मतलब कड़ी धूप |
निखंड घाम!! :) वाह!! आभार संतोष जी
हटाएंkya baat hai.....anupam tulna ki hai.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मृदुलाजी !
हटाएंयही हक़ीक़त है,यही अफ़सोस!
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
हटाएंVery nice post.....
जवाब देंहटाएंAabhar!
Mere blog pr padhare.
यह कट-पेस्ट टाइप टिपियाना छोड़कर पढ़ना शुरू करो,सब आयेंगे !
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