ज़िन्दगी में कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं कि हमारा मन चाहकर भी प्रफुल्लित नहीं होता. जाने-अनजाने ऐसे माहौल में हम अपने को घिरा पाते हैं जिसका मुफ़ीद कारण हमें भी नहीं मालूम होता ! इसकी एक ही वज़ह हो सकती है कि कुछ घटनाएँ या बातें अप्रत्यक्ष ढंग से हमारे दिल पर आघात करती रहती हैं और हम उनको टालते हुए उन्हें नाकुछ सिद्ध करने में लगे रहते हैं.कहते हैं कि जब कोई ख़ुशी होती है तो वह चेहरे से अपने आप झलकती है और इसी तरह यदि कोई अंदरूनी टीस या कोई बात कुरेद रही होती है तो आप लाख बचने का यत्न करें,चेहरा सच बोल देता है.ऐसे में आप अपने दिल को किस तरह बरगलाएं,समझाएं यह आपके व्यक्तित्व और रूचि के कारण अलग-अलग तरीके से हो सकता है.
जब इस तरह का ज्यादा उहापोह होता है तो अलमारी में सुंची हुई पुरानी डायरियों को निकाल कर,झाड़-पोंछकर ,पीले पड़ चुके पन्नों को पलटने लगता हूँ.कुछ ऐसा ढूँढने लग जाता हूँ कि मेरा सारा इलाज़ यहीं मिलेगा ! जो बातें अतीत में मुझे ठीक नहीं लग रही थी ,उन्हीं को आज के ग़म को ग़लत करने का सामान बनाने की कोशिश करता हूँ.अपनी शेरो-शायरी अचानक अच्छी लगने लगती है ,पुराने लफ्ज़ नए मायनों में बदल जाते हैं.जो कभी दर्द देते थे,वे दवा बन जाते हैं. कई चीज़ें आज के अर्थों में बेमानी लगती हैं,पर रूह को कुछ सुकून ज़रूर देती हैं !उन्हें कई-कई बार पढता हूँ,कुछ अच्छा लगता है तो कुछ बकवास-सा ! बहरहाल इस तरह मैं थोड़ी देर अपने से ही मिल लेता हूँ.यह काम पुराने अलबम खोलकर भी किया जा सकता है !
ऐसे में ख़ास दोस्त भी इस माहौल में याद आते हैं.उनसे मिलकर या फ़ोन कर मन हल्का किया जा सकता है ! किसी लेखक का जीवन-चरित पढ़कर भी मन को दिलासा दी जा सकती है पर जब यह उदासी ज़्यादा गहरी हो तो संगीत के पास जाना स्वाभाविक-सा लगता है.संगीत में इस 'मूड' के लिए एक अच्छी-खासी रेंज है.दर्द-भरे नगमें हमें शायद इसीलिए पसंद हैं . सामान्य हालात में भी मैं इस तरह के गीत सुनता हूँ और जब अन्दर छटपटाहट हो तब तो माहौल बिलकुल मुफ़ीद हो उठता है.पहले अकसर मैं रफ़ी,मुकेश ,गीता दत्त आदि को सुनता रहता था,पर अब ग़ज़लों पर ही आकर टिक गया हूँ.इसमें मेहंदी हसन और मुन्नी बेगम खासतौर से मेरे रंज-ओ-ग़म में शरीक होते हैं.मैंने आड़े वक़्त के लिए इन दोनों के कई गानों को अपने पास संजो रखा है.
इन्हें सुनते हुए हमें अपना ग़म हल्का लगता है और यह महसूसता है कि हमारे दर्द को आवाज़ मिल गई है !
इस माहौल के लिए मेरा एक पुराना शेर अर्ज़ है:
हम किस-किसको सुनाएँ दास्ताँ अपनी,
हर किसी के साथ ,ये अफ़साने हुए हैं !
बहरहाल मेरे साथ आप भी थोड़ा ग़मगीन हो जाएँ !
बहादुर शाह ज़फर की यह ग़ज़ल मेहंदी हसन साब की आवाज़ में
जब इस तरह का ज्यादा उहापोह होता है तो अलमारी में सुंची हुई पुरानी डायरियों को निकाल कर,झाड़-पोंछकर ,पीले पड़ चुके पन्नों को पलटने लगता हूँ.कुछ ऐसा ढूँढने लग जाता हूँ कि मेरा सारा इलाज़ यहीं मिलेगा ! जो बातें अतीत में मुझे ठीक नहीं लग रही थी ,उन्हीं को आज के ग़म को ग़लत करने का सामान बनाने की कोशिश करता हूँ.अपनी शेरो-शायरी अचानक अच्छी लगने लगती है ,पुराने लफ्ज़ नए मायनों में बदल जाते हैं.जो कभी दर्द देते थे,वे दवा बन जाते हैं. कई चीज़ें आज के अर्थों में बेमानी लगती हैं,पर रूह को कुछ सुकून ज़रूर देती हैं !उन्हें कई-कई बार पढता हूँ,कुछ अच्छा लगता है तो कुछ बकवास-सा ! बहरहाल इस तरह मैं थोड़ी देर अपने से ही मिल लेता हूँ.यह काम पुराने अलबम खोलकर भी किया जा सकता है !
ऐसे में ख़ास दोस्त भी इस माहौल में याद आते हैं.उनसे मिलकर या फ़ोन कर मन हल्का किया जा सकता है ! किसी लेखक का जीवन-चरित पढ़कर भी मन को दिलासा दी जा सकती है पर जब यह उदासी ज़्यादा गहरी हो तो संगीत के पास जाना स्वाभाविक-सा लगता है.संगीत में इस 'मूड' के लिए एक अच्छी-खासी रेंज है.दर्द-भरे नगमें हमें शायद इसीलिए पसंद हैं . सामान्य हालात में भी मैं इस तरह के गीत सुनता हूँ और जब अन्दर छटपटाहट हो तब तो माहौल बिलकुल मुफ़ीद हो उठता है.पहले अकसर मैं रफ़ी,मुकेश ,गीता दत्त आदि को सुनता रहता था,पर अब ग़ज़लों पर ही आकर टिक गया हूँ.इसमें मेहंदी हसन और मुन्नी बेगम खासतौर से मेरे रंज-ओ-ग़म में शरीक होते हैं.मैंने आड़े वक़्त के लिए इन दोनों के कई गानों को अपने पास संजो रखा है.
इन्हें सुनते हुए हमें अपना ग़म हल्का लगता है और यह महसूसता है कि हमारे दर्द को आवाज़ मिल गई है !
इस माहौल के लिए मेरा एक पुराना शेर अर्ज़ है:
हम किस-किसको सुनाएँ दास्ताँ अपनी,
हर किसी के साथ ,ये अफ़साने हुए हैं !
बहरहाल मेरे साथ आप भी थोड़ा ग़मगीन हो जाएँ !
बहादुर शाह ज़फर की यह ग़ज़ल मेहंदी हसन साब की आवाज़ में