4 अक्टूबर 2012

हम सयाने हो गए !

बचपन में
आँगन से लेकर दुआर तक
दौड़ते थे साथ-साथ बड़ी बहन के,
दहलीज़ और डेहरी को
हमारे छोटे-छोटे पाँव
लांघते थे बेखटके
करते थे अठखेलियाँ
खेलते थे लुका-छिपी
दरवाजे की ओट में !

बहन जब पाथती थी गोबर
रहते थे साथ-साथ
वो बनाती थी कंडे
हम बिगाड़ते थे उनको
होली के आस-पास
हम दोनों मिलकर
बनाते थे होरी-बल्ला
गोबर में उकेरते
मछली,तितली,सूरज और चाँद 
आंगन में बनती रंगोली
बहन लीपती थी चौरा
और हम खोद डालते थे नहा !

सयानी बहन का 
दहलीज़ व डेहरी से
बाहर का सफ़र
अच्छा नहीं रहा ,
निकल गई वह घर से
हो गई पराई हमेशा के लिए, 
डेहरी को मैं समझता रहा 
उसका वास्तविक वारिस 
पर मैं भी तो नहीं रह पाया उसके पास 
रोजगार की तलाश में छोड़ आया
दहलीज़,डेहरी और खमसार  को
बना लिया आशियाना
दस बाई दस के बैरक को

छूट गए सारे रिश्ते
चंद कागज के पुलिंदों की खातिर
नहीं बचा पाए 
वो ऊँचा रोशनदान  
कमरे की खुली खिड़की
आँगन से लगा दालान
याद आती हैं हर रात
अम्मा की कहानियां
और अलस्सुबह
पिता की झिड़की !

अब बहन और हम
दोनों सयाने हो गए
अपनी धरती और अपनों से
दूर-दूर बो गए !

25 टिप्‍पणियां:

  1. सही में बचपन .... कभी पिच्छ नहीं छोड़ता.

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  2. मर्मस्पर्शी..... कितना कुछ छूट जाता है समय के साथ ...

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  3. और इस इंटरनेट, कंप्‍यूटर, सोशल मीडिया, फेसबुक, ट्विटर और हिन्‍दी ब्‍लॉगों का जिक्र करना भूल गए, इतना रम गए गांव की यादों में। इंटरनेट की फरियादों को भुला बैठे।

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  4. हम्म्म्म.....
    कोई राह नहीं वापस जाने की?????

    अनु

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  5. बचपन की यादें ..सच...बहुत सुहानी होती हैं.
    अच्छा समेटा है सभी यादों के सिलसिले को इस कविता में !

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  6. लाजवाब |
    काश...!फिर से वो बच्पन के दिन जीने को मिलता...आज के गम को भुलाकर थोड़ा हँस लेते|
    वक्त के साथ सबकुछ बदल जाता है पर यादें हमेशा बनी रहती है,उसी अहसास के साथ जैसे छोड़ के आए थे |

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  7. बहुत ही अच्छी कविता, हम सयाने हो गये और न जाने कितनी बातें भूल गये।

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  8. अब बहन और मैं
    दोनों सयाने हो गए
    अपनी धरती और अपनों से
    दूर-दूर बो गए !

    हृदयस्पर्शी सुंदर रचना ...

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  9. खानाबदोशों की देहरी भले न हो, उनके भाव, उनकी कवितायें, उनका दर्द दिल को छूता ही है ...

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  10. कल हमारे बच्चे भी अपना एक टुकड़ा तलाश लेंगे ...

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  11. ताके रोशनदान पथ, हो *खिड़की इक्स्टेण्ड |
    दीदी को लेकर गया, जब उसका हसबैंड |
    जब उसका हसबैंड, रंगोली चौरा देहरी |
    नहीं रहा संतोष, हुआ जाता वह शहरी |
    आज इसी को लोग, कहे हैं उन्नति आके |
    कर दरवाजा ओट, बूढ़ आँखें नित ताके |

    *आज कल संतोष त्रिवेदी खिड़की-एक्सटेंसन में रहते हैं -

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  12. यही तो जीवन चक्र है . इसलिए क्या गिला !

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  13. सुहाना वचपन ... सुन्दर विचरण.

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  14. जीवन यापन के लिए कितना कुछ छोड़ना पड़ता है .... कम से कम बचपन कि स्मृतियाँ तो हैं ... अच्छी प्रस्तुति

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  15. जबरदस्त नोस्टालजिक -गृह विरही हैं पक्के आप!

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  16. सहज सरल शब्‍दों में ... बचपन को दुहराता है मन

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  17. बचपन की निश्चिन्तता उम्र बढ़ने के साथ चली जाती है। सयाना होकर आप अच्छी कविता लिख पाते हैं, सृजन करते हैं और किसी और का बचपन खुशनुमा बनाते हैं।

    उसी के बचपन से खुश हो लीजिए, अपना अक्स देखकर।
    बहुत सुन्दर भावपूर्ण कविता। सबके भाव संजोती सी लगी।

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  18. हर एक ही यही कहानी है , बचपन तो फिर उम्रभर याद करने भर को रह जाता है . वक़्त कहाँ से कहाँ पहुंचा देता है .
    अच्छी प्रस्तुति

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  19. achchhi rachna hai trivedi ji in dino bahut achchha likh rahe hain

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  20. स्मृतियों के बहाने बदली हुई बेबस सी जीवनचर्या और रिश्तों को खूब उकेरा आपने,संभव है खांटी कवियों के मानदंडों पर इसे कविता ना भी माना जाए पर यह उन अनेकों शब्दजालों से बेहतर है जो सन्देश देने के मामले में प्रायः भ्रमित हुआ करते हैं , जिन्हें पढकर पाठक अक्सर कह उठता है कि " शानदार शब्द संयोजन किन्तु अवर्णनीय भावार्थ ? ...अफ़सोस मैं इसे समझा नहीं" ! कहने का आशय यह कि आपकी कविता अर्थ-जन्य प्रवास और सम्बन्ध-जन्य प्रवास की विवशताओं के उल्लेख के साथ ही पाठक के ह्रदय में एक खालीपन / रिक्तता का बोध करा जाती है , कुछ ऐसा जो उससे छूट गया है अनचाहे ही ! अस्तु साधुवाद !

    कविता को पढते हुए एक जगह खटक ये हुई कि उर्दू के 'दहलीज़' और हिन्दी की 'देहरी' में कोई अंतर नहीं है सो कविता में संशोधन जो आप उचित जाने !

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    1. अली जी,हमारी 'दहलीज' और 'डेहरी' एक नहीं है.डेहरी घर के प्रवेश-निकास पर लगी सीमा रेखा जैसी होती है और दहलीज डेहरी से बिलकुल पहले वाली दालान (लंबा कमरा-टाइप) !
      फ़िर भी आपके कहे के मुताबिक परिवर्तन करता हूँ !

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