अभी पिछले सप्ताह मित्र की शादी के सिलसिले में दिल्ली से दूर अपने गाँव गया.जाते ही ऐसी सरदी लगी कि कल दिल्ली आकर भी उस बीमारी से पार नहीं पा सका हूँ.इस बीच अपने मित्रों से कटा रहा,लिखा-पढ़ी से दूर रहा,शादी का भी आनंद न ले पाया,पर फेसबुक के माध्यम से कुछ कहता रहा,चुनिन्दा देख लीजिए !
१)पड़ा हूँ बिस्तर में
अपने गाँव में ,
बच्चों से दूर
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मेरे प्रेरणास्रोत निराला
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माँ-बाप की छाँव में ,
ख़ुद बच्चा बनकर !
२)मैंने जो देखा मौत को इतने क़रीब से,
जिंदगी को रश्क हुआ ,उसके नसीब से !
और कल दिल्ली आकर :
१)बहुत थकान से हलकान हुआ जाता हूँ,
मुंद रही हैं आँखें,इंसान हुआ जाता हूँ !
२)आ गया हूँ घर में ,होश-ओ-हवास ग़ुम,
समय से पहले कितना ,बुढ़ा गया हूँ मैं !
इस बीच निराला जी के जीवन चरित को रुक-रुक कर पढ़ रहा हूँ.
थोड़ी देर पहले कुछ ऐसे ख़याल आये ,एक बीमार होते हुए ब्लॉगर को,वह आपसे बाँट रहा हूँ,सिरा ढूँढने की कोशिश न करना,मुझे तो मिला नहीं !!
गीत ख़ुशी के बहुत गा चुका,
फसल सुनहरी बहुत बो चुका,
अब असली राग सुनाऊंगा,
बंज़र खेत दिखाऊँगा !! (१)
जीवन का वह मोड़ आ गया,
कुछ रिश्तों को छोड़ आ गया,
फिर से पतवार संभालूँगा,
नाव किनारे लाऊँगा !!(२)
उजलेपन को जितना देखा,
पीछे थी श्यामल-सी रेखा,
अंधियारे को अपनाऊँगा,
अपने में ही खो जाऊँगा !!(३)
मैंने दुःख को अपना माना,
तभी ठीक से ख़ुद को जाना ,
रिश्तों से सुख में मिल लूँगा,
इसे अकेले ही सह लूँगा !!(४)
अच्छा या हो रहा बुरा,
समय कभी नहीं ठहरा,
कुछ समझौते भी कर लूँगा,
गाकर दर्द दवा कर लूँगा !!(५)