लोकपाल को लेकर किया जा रहा धमाल कुछ समय के लिए थम गया है. कई लोगों को इसके ऐसे हश्र का अंदाज़ा पहले से ही था,फिर भी सत्ता पक्ष द्वारा बार-बार यह कहा जाता रहा कि उन पर ,संसद पर विश्वास नहीं किया जा रहा.ये लोग ही हैं जो बेसुरे और बेसबरे हो रहे हैं.अब जबकि आधी रात को फ़िलहाल इस जिन्न से छुटकारा मिल गया है ,काफी सारे परदे खुले ,मान्यताएं ध्वस्त हुईं व राजनीति अपने असली रंग में आई ! संसद में लोकपाल की हिमायत के बजाय अपने-अपने हितों की वकालत ज़्यादा की गई ! आम आदमी भौचक्का होता हुआ केवल यह देखता रह गया कि उसके लिए यहाँ कौन बैठा है ? और वे सब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के जश्न में डूबे हुए हैं !
अन्ना जी के आन्दोलन शुरू करने के पहले दिन से ही किसी भी नेता या दल ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया.सब पहले से ही आर टी आई से दुखी थे एक और नई मुसीबत के लिए वे तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल था,इसलिए अन्ना को शुरू में ही उपेक्षित रखा गया.बाबा रामदेव से सौदेबाजी की गई ,उनको जानबूझकर अन्ना के आगे खड़ा करने की चाल चली गई,फिर उनके साथ क्या किया गया, यह सभी जानते हैं.अन्नाजी के अगस्त-आन्दोलन ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी तो सारे दल के नेताओं ने इससे उबरने के लिए गजब की दुरभिसंधियाँ कीं ! टीम अन्ना सहित कई प्रबुद्ध लोग राजनीति की इस चाल से सशंकित थे,फिर भी उन पर भरोसा किया गया.
इस सबके बाद क्या हुआ ,देश ने खूब देखा.इस बीच केजरीवाल,किरण बेदी और यहाँ तक कि अन्ना को भी गरियाया और बदनाम किया गया.संघ और भाजपा से रिश्ते जोड़े गए. कहीं न कहीं सत्ता में बैठे लोग लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को भूलकर टीम अन्ना को सबक सिखाने में जुट गए.जो भी इस आन्दोलन का समर्थक बना उसे उसकी भ्रष्टाचार की चिंताओं से हटकर ,संघ के रिश्तों में लपेटने की कोशिशें होने लगीं.संघ क्या देशद्रोही और आतंकवादी संगठन है? उसके साथ जुड़े हुए लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते ? इस तरह मामले को दूसरा मोड़ देने के पुरजोर प्रयास किये गए.
अन्ना ने अपनी अस्वस्थता और राजनीति के दोगलेपन के चलते जब अनशन खत्म किया तब उनका उपहास किया गया.संसद में बहस के नाम पर फूहड़ता का बोलबाला रहा.नेताओं को ऑन दि रिकॉर्ड मज़बूत लोकपाल चाहिए पर ऑफ दि रिकॉर्ड उसकी राह में हज़ार कांटे बो दिए गए.आम आदमी को बार-बार यह बताया जा रहा था कि लोकतंत्र में संसद सबसे ऊपर है...लोक से भी !
अन्ना जिसके लिए आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं ,वह सरकार का अपना दायित्व है,पर इस पर भी माननीयों को आफत आ रही है..इस प्रजातंत्र की सारी कवायद 'परजा' ने देख ली है.अन्ना को कुछ हासिल हुआ हो या नहीं पर उन्होंने लोकपाल और भ्रष्टाचार को नए साल का ,अगले चुनावों का अजेंडा ज़रूर बना दिया है !
मोरल ऑफ़ दा स्टोरी " तुम हमसे कितना भी होशियार हो,पर हमारा जैसा कांईयापन कहाँ से लाओगे ?"
........चलते-चलते
उनको हक है कि हमें ,ज़िल्लत की जिंदगी दें,
हम न बोलें,न रोयें, यूँ ही मुर्दा पड़े रहें !!
अन्ना जी के आन्दोलन शुरू करने के पहले दिन से ही किसी भी नेता या दल ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया.सब पहले से ही आर टी आई से दुखी थे एक और नई मुसीबत के लिए वे तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल था,इसलिए अन्ना को शुरू में ही उपेक्षित रखा गया.बाबा रामदेव से सौदेबाजी की गई ,उनको जानबूझकर अन्ना के आगे खड़ा करने की चाल चली गई,फिर उनके साथ क्या किया गया, यह सभी जानते हैं.अन्नाजी के अगस्त-आन्दोलन ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी तो सारे दल के नेताओं ने इससे उबरने के लिए गजब की दुरभिसंधियाँ कीं ! टीम अन्ना सहित कई प्रबुद्ध लोग राजनीति की इस चाल से सशंकित थे,फिर भी उन पर भरोसा किया गया.
इस सबके बाद क्या हुआ ,देश ने खूब देखा.इस बीच केजरीवाल,किरण बेदी और यहाँ तक कि अन्ना को भी गरियाया और बदनाम किया गया.संघ और भाजपा से रिश्ते जोड़े गए. कहीं न कहीं सत्ता में बैठे लोग लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को भूलकर टीम अन्ना को सबक सिखाने में जुट गए.जो भी इस आन्दोलन का समर्थक बना उसे उसकी भ्रष्टाचार की चिंताओं से हटकर ,संघ के रिश्तों में लपेटने की कोशिशें होने लगीं.संघ क्या देशद्रोही और आतंकवादी संगठन है? उसके साथ जुड़े हुए लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते ? इस तरह मामले को दूसरा मोड़ देने के पुरजोर प्रयास किये गए.
अन्ना ने अपनी अस्वस्थता और राजनीति के दोगलेपन के चलते जब अनशन खत्म किया तब उनका उपहास किया गया.संसद में बहस के नाम पर फूहड़ता का बोलबाला रहा.नेताओं को ऑन दि रिकॉर्ड मज़बूत लोकपाल चाहिए पर ऑफ दि रिकॉर्ड उसकी राह में हज़ार कांटे बो दिए गए.आम आदमी को बार-बार यह बताया जा रहा था कि लोकतंत्र में संसद सबसे ऊपर है...लोक से भी !
अन्ना जिसके लिए आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं ,वह सरकार का अपना दायित्व है,पर इस पर भी माननीयों को आफत आ रही है..इस प्रजातंत्र की सारी कवायद 'परजा' ने देख ली है.अन्ना को कुछ हासिल हुआ हो या नहीं पर उन्होंने लोकपाल और भ्रष्टाचार को नए साल का ,अगले चुनावों का अजेंडा ज़रूर बना दिया है !
मोरल ऑफ़ दा स्टोरी " तुम हमसे कितना भी होशियार हो,पर हमारा जैसा कांईयापन कहाँ से लाओगे ?"
........चलते-चलते
उनको हक है कि हमें ,ज़िल्लत की जिंदगी दें,
हम न बोलें,न रोयें, यूँ ही मुर्दा पड़े रहें !!