23 दिसंबर 2012

चलो दिल्ली !


 
 
चलो दिल्ली ,चलो जनपथ, जहाँ हुक्काम बहरे हैं
हवाओं में,फिजाओं में ,जहाँ संगीन पहरे हैं.
चलाओ गोलियाँ ! छलनी हमारी छातियाँ हो जांय ,
ये आतिश बुझ नहीं सकती, हमारे ज़ख्म गहरे हैं.

तुम्हारे चैन की अब, आखिरी शब आ गई  ,
हमारा आज बिगड़ा है ,मगर सपने सुनहरे हैं.

बढ़े क़दमों ! नहीं रुकना ,बदल जायेगा मौसम ये,
नया सूरज उघाड़ेगा ,अँधेरे में जो चेहरे हैं.

 

21 दिसंबर 2012

हम मनुष्य हैं अभी !


शुक्र है अभी
कच्चा नहीं निगलते हम मानव-शरीर
मसलते हैं मांसल देह
खरोंचते हैं नाखूनों से
चबाते नहीं हड्डियाँ
पीते नहीं रक्त
भागकर छुप जाते हैं,
इस पहचान से
हम
मनुष्य हैं अभी  !
प्रलय का दिन
निश्चित नहीं है
हम उसे लाते हैं मन-मुताबिक
परमात्मा से नहीं डरते
हमसे  काँपती है मानवता
अपने पंजे फैला लिए हैं हमने ,
शुक्र है अभी
खुला आसमान बचा है
धरती भी नहीं फटी
सूरज चुआ नहीं अपने केन्द्र से
और भूमि-अभिलेखों में
हम मनुष्य हैं अभी !


देवेन्द्र पाण्डेय जी की कविता से प्रेरित होकर

19 दिसंबर 2012

अराजकता का जिम्मेदार कौन ?


 
जब से दिल्ली में चलती बस में बलात्कार की वारदात हुई है,संसद से लेकर सड़क पर खूब उबाल दिख रहा है। सड़क पर तो आम आदमी इस तरह के वाकयों के बार-बार होने से परेशान होकर निकल पड़ा और संसद में हमारे प्रतिनिधि तार्किक चिंताएं दिखाने में पीछे नहीं रहे। सड़क पर महिलाओं का गुस्सा क्षोभ,अपमान और व्यवस्था की निष्क्रियता से सातवें आसमान पर था। आम महिला की इस चिंता को समझना बिलकुल कठिन नहीं है। संसद के अंदर बैठे हुए हमारे कई प्रतिनिधि इसकी जघन्य भर्त्सना कर चुके हैं। कोई अपराधियों को फाँसी की सजा से कम पर मानने को तैयार नहीं तो कोई पुलिस-आयुक्त को हटाने पर आमादा है तो कोई इस बेबसी पर आँसू बहा रहा है । आखिर,ये जन-प्रतिनिधि किससे यह सब माँग कर रहे हैं जबकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस व्यवस्था के यही लोग जिम्मेदार और गुनाहगार हैं !

बलात्कार जैसी घटनाएँ सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का मामला हैं। हमारे समाज में जब तक यह धारणा नहीं मज़बूत होगी कि किसी भी दुष्कृत्य के लिए अभियुक्त को जल्द और निश्चित रूप से उसके परिणाम भुगतने होंगे,तब तक ऐसी घटनाओं पर पचास बार फाँसी देने या गोली मार देने की सज़ा का प्रावधान महज़ कागजी ही रहेगा। आज यह धारणा पुख्ता हो चुकी है कि कोई  ,कहीं भी किसी महिला को छेड़ दे,उसे ज़बरिया उठा ले और यहाँ तक कि हवस पूरी करके मार भी दे तो कोर्ट-कचहरी में कुछ नहीं होना है। अव्वल तो कई मामले थाने या न्यायालय तक आते ही नहीं और यदि आए भी तो उनमें से अधिकांश सबूतों के अभाव में न्याय की दहलीज पर ही दम तोड़ देते हैं। इसलिए कई बार इन मामलों की शिकायत भी नहीं की जाती।

संसद में कई महिला-प्रतिनिधियों की चिंताएं सच्ची जान पड़ती हैं पर आखिर में कानून-व्यवस्था को लागू करना-करवाना आम जनता की जिम्मेदारी तो नहीं है। कानून अभी भी इतने कमज़ोर नहीं हैं पर मुख्य बात इन्हें लागू करने की है। जब हमारी राजनीतिक-व्यवस्था भ्रष्टाचार और अपने-अपने सत्तारोहण पर जुटी हुई हो,ऐसे में नौकरशाही या पुलिस-प्रशासन क्यों पीछे रहे ?हमारे प्रतिनिधि इस तरह की घटनाओं की सीधी जिम्मेदारी पुलिस-प्रशासन पर डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं पर क्या सबसे बड़े जिम्मेदार वे स्वयं नहीं हैं?सरकार गरीबों को कैश-सब्सिडी का झुनझुना पकड़ाकर आत्म-मुग्ध हो रही है और उसकी लुटती हुई आबरू की कोई कीमत नहीं है.यह आम जनता के साथ मजाक नहीं तो क्या है ?हास्यास्पद तो यह है कि कानून-व्यवस्था तहस-नहस होने पर सरकार और हमारे प्रतिनिधि ही चिंताएं भी ज़ाहिर कर देते हैं. आखिर जनता ने सत्ता की लगाम जिनको सौंपी है तो किसी भी प्रकार की अराजकता  होने पर वे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं ?

आज पूरे देश में कानून का कोई खौफ नहीं है। जिसको जो मन में आ रहा है,कर रहा है। संसद में हमला करके,हत्याएं-बलात्कार करके,सरे-आम उगाही करके भी अगर कोई सुरक्षित रह सकता है तो ऐसे जंगलराज में कोई क्यों डरे ?हम पूरी तरह से अराजक-राज में रह रहे हैं। अब ज़रूरत केवल कानून के राज को स्थापित करने की है,संसद में भाषणबाज़ी करने की नहीं। ऐसा न हो पाने पर वहाँ फफक-फफककर रोना महज़ घडियाली आँसू बहाने से ज़्यादा कुछ नहीं है।

14 दिसंबर 2012

बहुत दिन हुए !

बहुत दिन हुए
जब आखिरी बार
चिड़िया चहचहाई थी,
पौधों में नई कोंपलें आईं थीं
सोंधी हवा चली थी,
आम बौराए थे और टपका था महुआ |
भोर होते ही बोले थे मुर्गे
और किसान गया था खेत सींचने
पूस की रात में 
ठण्ड में जलाये हुए कौड़ा
गांव में छप्पर के नीचे
आग तापे थे हम !
बहुत दिन हुए
जब आखिरी बार
माँ चौके पर बैठी थीं
घी का मर्तबान लेकर
और उड़ेल दिया था
ढेर सारा घी दाल मे,
ना-ना करते-करते !
याद नहीं आता 
पिछली बार कब खाया था
चने का साग
और जोंधरी की रोटी
या कडुवे तेल से चुपड़ी
धनियहा-नमक के साथ !
बहुत दिन हुए
आम,जामुन या बैर पर
निशाना साधते पत्थर मारे,
चने का झाड़ उखाड़े
और निमोना चबाये,
खेत में घुसकर
तोड़े हुए गन्ने !
याद नहीं रहा
कब जिए थे अपनी मर्ज़ी से
खुली हवा में साँस ली थी
और साइकिल में चलते हुए
दोनों हाथ छोड़कर
कब गुनगुनाये थे !
अब कुछ भी याद नहीं रहा,
बहुत दिन हुए
घर में रहे हुए
ज़िन्दगी से मिले हुए !

11 दिसंबर 2012

हवा का झोंका !

उनका आना
ताज़ा हवा के झोंके की तरह
खिला देता है तन-मन
सूखे मरुथल में गिरती हैं बूंदें
उमगने लगती है अमराई
झड़ते है सूखे पत्ते
और आती दिखती हैं कोपलें
छोटा-सा जीवन
कितने बड़े-बड़े सपने देखने लगता है
उनके आने की खबर से ही !