बहुत दिन हुए
जब आखिरी बार
चिड़िया चहचहाई थी,
पौधों में नई कोंपलें आईं थीं
सोंधी हवा चली थी,
आम बौराए थे और टपका था महुआ |
भोर होते ही बोले थे मुर्गे
और किसान गया था खेत सींचने
पूस की रात में
ठण्ड में जलाये हुए कौड़ा
गांव में छप्पर के नीचे
आग तापे थे हम !
बहुत दिन हुए
जब आखिरी बार
माँ चौके पर बैठी थीं
घी का मर्तबान लेकर
और उड़ेल दिया था
ढेर सारा घी दाल मे,
ना-ना करते-करते !
याद नहीं आता
पिछली बार कब खाया था
चने का साग
और जोंधरी की रोटी
या कडुवे तेल से चुपड़ी
धनियहा-नमक के साथ !
बहुत दिन हुए
आम,जामुन या बैर पर
निशाना साधते पत्थर मारे,
चने का झाड़ उखाड़े
और निमोना चबाये,
खेत में घुसकर
तोड़े हुए गन्ने !
याद नहीं रहा
कब जिए थे अपनी मर्ज़ी से
खुली हवा में साँस ली थी
और साइकिल में चलते हुए
दोनों हाथ छोड़कर
कब गुनगुनाये थे !
अब कुछ भी याद नहीं रहा,
बहुत दिन हुए
घर में रहे हुए
ज़िन्दगी से मिले हुए !