भइया(पिताजी) और अम्मा,जून २०११ |
लाठी लिए हाथ में
कंपकंपाते हुए
पिताजी अपनी तरुणाई में |
गोद में हमको उठाकर
पगडंडियों पर कभी
जो दौड़ लगाते थे |
हटिया के मेले में
उँगली पकड़
पूरा मेला घुमाते
बड़े खिलौनों में खामी बताकर
डमरू और पिपिहिरी से
हमारी ज़िद को मनाते थे |
घर की दहलीज से बाहर
कभी हो-हल्ला किया
या काका की भैंस खोल दी तो
अम्मा को डाँटते
हमें दो-चार चपत लगाते थे |
किताब लेकर बैठता तो
कोई काम या अढ़वा न कहते
मेरी किशोरावस्था |
इमला बोलते
और पहाड़े रटाते थे |
सालों बाद
जब हम इतनी दूर हैं
अकसर हमारा हाल पूछते हैं
हम हैं कि अब भी
अपने पिताजी से
लाठी नहीं छीनते
अपनी उँगली पकड़ाते हैं ||
ऊंगली पकड़ लो
जवाब देंहटाएंतो अनुभवी बनते हो
फिर मजबूत अंगूठा बनते हो
उस अंगूठे को दिखलाकर अंगूठा
चिढ़ाते हो ऊंगली को
और अपनी चालबाजी से
'बाज' नहीं आते हो
और 'उल्लू' बनाने का करते हो प्रयत्न
बना लिया तो 'रत्न'
वरना जारी रहता है 'प्रयत्न'।
....आपको तो समझना भी ख़तरनाक है !
हटाएंइनको जो समझ जाओगे
हटाएंतो फिर इनके हाथ कहाँ आओगे
उतना ही समझ लो काफी है
जितने में फिसलने से बच जाओगे ।
हमेशा ही एक अंगुली की जरूरत होती है | इसे बनाये रखना चाहिए | सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहाँ,सहारे की ।
हटाएंकितनी भी दूर हों हम ... इस उंगली के पकड़े होने का अहसास
जवाब देंहटाएंहमेशा पास रखता है ...
उत्कृष्ट प्रस्तुति ... आभार
...कभी-कभी प्रस्तुति गड़बड़ भी बता दिया करो सदा जी !
हटाएंहम कितने भी बड़े हो जाएँ ..माता-पिता के लिए बच्चे ही रहते हैं..उतने ही नासमझ जितने बचपन में हुआ करते थे.
जवाब देंहटाएंबचपन के संस्मरण हों या उनकी याद करते हुए कुछ भी लिखना-पढ़ना , सुनना-सुनाना हमेशा ही मन को छू जाता है.
'काकी की भैंस खोल देते थे?'लगता है ,बचपन में आप खूब शरारती रहें हैं !
भैंस तो काका की थी...।
हटाएं....वैसे मैं बचपन में बड़ा सीधा था !
गजब!, लाठी लिए हुए भी हमारी अंगुली थाम लेते है। कितने समर्थ?
जवाब देंहटाएंऔर अगर हमारे कंधे पर हाथ रखे तो वे कमजोर झुकते चले जाते है।
यही अफ़सोस कि हम उनके साथ न रह सके ।
हटाएंये मजबूरियाँ ज़िन्दगी की ...
हटाएंएक समय आता है जब अपने सहारे का सहारा बनना ही पड़ता है .
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको और पिताश्री को भी .
आभार ।
हटाएंकद-काठी छ: फुट दिखे, चुस्त पिताजी बेश ।
जवाब देंहटाएंनाक नक्श तो एक से, तनिक अलहदा केश ।
तनिक अलहदा केश, रेस करवाया करते ।
माँ न करे क्लेश, हाथ में ऊँगली धरते ।
मन रविकर भरजाय, आज वे टेके लाठी।
चौथे पन में आय, रही वो कद न काठी ।।
सही पहचाना ....आभार ।
हटाएंrahe nahin o kad na o kathi.....
हटाएंbalyapan ke baten karte jajbati...
dil karta unhen mela le jawoon...
kachri-jhhilli aur murhi oonhen khilawwon....
pranam.
पिता का सहारा बहुत बड़ा होता है ... सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंआभार संगीता जी ।
हटाएंवाह ... भावनाओं का संगम लिए ... ये सच है की बच्चे बड़े होने पर भी ऊँगली थामते हैं ... सहारा नहीं दे पाते ... दिल के गहरे एहसास को शब्द दिये हैं आपने ... बहुत खूब ..
जवाब देंहटाएंआभार भाई ।
हटाएंएक उँगली जीवन पार करा देती है..बहुत सुन्दर कविता..
जवाब देंहटाएंबस...वह स्मृति हमेशा दिशा देती रहेगी ।
हटाएंआज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखलाऊँ,
जवाब देंहटाएंकल हाथ पकडना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं,
टू मिला तो मैंने पाया, जीने का नया सहारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा..
/
बस इससे अधिक की चाहत नहीं होती उस वृद्ध महापुरुष को!! इतना भी किया तो बहुत है!!
माट्साब, कमाल के भाव हैं कविता में!!
बहुत आभार सलिल बाबू ।
हटाएंसुन्दर कविता.....एक उम्र के बाद रोल एक्सचेंज हो जाते हैं.....जिनकी उंगलियां थाम बड़े हुए हम उनके हाथ थामना क्यूँ भूलते हैं हम...
जवाब देंहटाएंपापा बेटा एकदम लुक अलाइक :-)
अब उनकी एक लेटेस्ट फोटो भी दिखाएँ सो सब समझ जाए कि २० साल बाद आप कैसे लगेंगे :)
सादर
अनु
बिलकुल जी...सब लोग यही कहते हैं कि शकल मिलती है.उनकी नई फ़ोटो जल्द डालता हूँ ।
हटाएंउंगलियां थमाने वाले हाथों में अपना हाथ थमाना याद रह जाए यही मूल तत्व है ......
जवाब देंहटाएंजी आभार ।
हटाएंबचपन के सीधे को
जवाब देंहटाएंपिता की अंगुलियों का सहारा
नवपिता की स्मृतियों के दरीचों से
पुरनियां सहारे को इशारा
सहारे और इशारे आगत हर पल में
बस यूंहीं जीवित बने रहते हैं
अली साहब ...फ़िलवक़्त आपके सहारे हूँ ।
हटाएं
जवाब देंहटाएंपिता को समर्पित आपकी यह शब्दांजलि मन को भा गई।
..........
हम हैं कि अब भी
अपने पिताजी से
लाठी नहीं छीनते
अपनी उँगली पकड़ाते हैं ||
...यहाँ लाठी छीनने से मतलब खुद लाठी बन जाने, सहारा बन जाने से है..का भाव मान कर चलता हूँ। अगली पंक्ति..अपनी उँगली पकड़ाते हैं..से यह भाव आता है।
...नमन आपकी यादों में बसे पिता श्री को, नमन आपकी शब्दांजलि को।..बधाई।
आपने दिल की गहराइयों से पहचाना,समझा,इसके लिए आभार |
हटाएंभावप्रणव रचना!
हटाएंहृदयस्पर्शी कविता ..... जिन्होंने जीवन भर संभाला है उन्हें संभाल लें .... इससे अच्छा क्या...?
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-08 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... मेरी पसंद .
wah ! bahut acchi kavita.....sach may umar kar har padav par hume mata pita ki zaroorat padti hi hai........
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर कोमल भाव लिए रचना..
जवाब देंहटाएं:-)
बेहतरीन ....बहुत सुन्दर रचना .........पिता का पालन भाव ही बड़ा होता है
जवाब देंहटाएंबेटा कितना भी कसरत कर ले
जवाब देंहटाएंसेर ही हो पाता है सवा सेर नहीं
बाप लेकिन बेटे को सवा कहता है
देखता है जब कि वो सेर भी
नहीं हुआ अभी !
पिता का स्नेह धरती और आकाश होता है हमारा । यह नही तो सब कछ होकर भी कुछ नही होता । बहुत भावपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंपिता की स्थिति एक छाते की तरह होती है।पिता ही सब कुच होता है। बहुत ही भाव-प्रवण पोस्ट।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंदो पीढ़ियों का अर्थ समझाती रचना .पिता तो होता ही एक स्वार्थ हीन छाता है ,खुद धूप खा औरों को बचाता है .बढ़िया और मर्म को छूने वाली भाव विरेचक रचना ,लिखी आपने एहसास सांझा है ...कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंशनिवार, 25 अगस्त 2012
आखिरकार सियाटिका से भी राहत मिल जाती है .घबराइये नहीं .
गृधसी नाड़ी और टांगों का दर्द (Sciatica & Leg Pain)एक सम्पूर्ण आलेख अब हिंदी में भी परिवर्धित रूप लिए .....http://veerubhai1947.blogspot.com/2012/08/blog-post_25.html
भावुक कर देने वाली रचना।
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