13 अगस्त 2012

आलोचनाएं अपने गले में डाल लो !

तुम्हारी
रोज़-रोज़ की चिक-चिक से
मैं तंग आ चुका हूँ,
मेरे कान
पक गए हैं
तुम्हारी उल-जलूल बातें सुन-सुनकर .
हमने तुम्हें
आज़ादी क्या दे दी बोलने की
तुमने
आसमान ही सिर पर उठा लिया.
मुझे अपनी चाल से
आगे बढ़ना ही अच्छा लगता है.
मैं बढ़ता हूँ समगति से,
पैरों से कुचलते हुए तिनकों को,
मंजिल की तरफ |

तुम्हारी आलोचनाएं
अब ऊब पैदा करती हैं
मुझे कचोटती नहीं |
सबके साथ
एक-सा व्यवहार करूँ,
मैं समदर्शी भी नहीं |
मुझे दिखता है केवल
मेरा सपना
और सुनाई देती है
अपनों की आवाज़ ,
हर दिन,हर रात
सुनती हैं विरुदावालियाँ |

क्या करूँ,
मेरे दर्पण में
मेरा ही चेहरा दिखता है
मैंने उसे अपनी जेब में ले रखा है
ताकि और कोई उसमें
कभी अपनी सूरत न पहचान ले
खुद से ज़्यादा ,
हमें जान ले !

तुम्हारे सपनों से
मुझे कोई नहीं वास्ता,
उन्हें मुल्तवी रखो
आखिरी साँस तक |
आलोचनाओं को
पिरोकर डाल लो अपने गले में
मैंने हार की मालाएं
पहननी छोड़ दी हैं !

52 टिप्‍पणियां:

  1. अपने आप में सिमटे ख्वाब ..... हर इंसान ऐसा ही हो गया है

    जवाब देंहटाएं
  2. सबके साथ
    एक-सा व्यवहार करूँ,
    मैं समदर्शी भी नहीं... बिल्कुल सही कहा

    जवाब देंहटाएं
  3. आपने चाहे छोड़ दी हों
    पहनना मालाएं
    परंतु मालाएं
    नहीं छोड़ेंगी आपको
    यह सच जान लो

    तिनका रौंदते हुए
    जब बढ़ते हो आगे
    तब चींटियों को भी
    रौंद देते हो
    यह सच जान लो

    हाथी नहीं हो
    पर जूते तुम्‍हारे
    चींटियों के‍ लिए
    किसी हाथी से
    बिल्‍कुल कम नहीं

    और यह सच भी जान लो
    हाथी, हाथ और हथियार से
    बेकसूर चींटियों
    मासूम तिनकों
    को रौंदना
    कानून में अपराध नहीं है

    किंतु मन आपका
    अपराधी हो जाता है
    जब कोई आपके
    जूतों तले दबकर
    गुजर जाता है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आप सबसे समझदार हैं |
      दुश्मन सभी व्यंग्यकार हैं ||
      जो चाहते हो अपनी खैर |
      हमसे न बढाओ बैर ||

      हटाएं
    2. वाकई में
      इनसे कुछ
      समझदारी
      चुरानी है
      फिर कभी नहीं
      लौटानी है
      पर इनकी
      समझ दानी
      हाथ नहीं आती
      जब ये ही फिसल
      जाते है तो
      वो कहाँ
      अटक पाती !!

      हटाएं
  4. इतना क्षोभ....
    शायद जायज़ भी है....

    गहन अभिव्यक्ति..
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. आक्रोश ... व्यवस्था के प्रति .... या परिवर्तन की चाह ...

    जवाब देंहटाएं
  6. hmm..everyone seems like this nowadays..

    जवाब देंहटाएं
  7. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है|

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार करें स्वीकार हमारा |
      चर्चा में हो जय-जयकारा ||

      हटाएं
  8. दबा रखो आक्रोश को, इतना अधिक अधीर |
    मिर्ची खाकर दे रहे, किसके मुंह को पीर |
    किसके मुंह को पीर, दफ़न कर दुश्मन मन को |
    चल यमुना के तीर, साँस दे दे भक्तन को |
    यह कटाक्ष यह तीर, चीर देंगे वह छाती |
    मत मारो हे मीर, सहन अब न कर पाती ||

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अहंकार मिट जाएगा,घड़ा भरेगा जिस दिन |
      अपने भी खो जायेंगे,बियाबान में उस दिन ||

      हटाएं
  9. कमाल का लिखा है!.. अब भला कौन आलोचना करेगा इस कविता की?:)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ...आप ज़्यादा समझदार हैं.इसलिए आपको बख्शता हूँ :)

      हटाएं
  10. आ लो चना..
    आज तो कुछ अलग ही मूड में हैं माट्साब!! मगर यह रंग भी शानदार है!!

    जवाब देंहटाएं
  11. आक्रोश और क्षोभ से भरी सार्थक रचना ..
    स्वयं का दंभ आँख कान दिमाग सब पर ताले लगा देता है ..

    जवाब देंहटाएं
  12. कभी-कभी ख़ुद को खुद के अनुसार जीने का मन करता है। जीना चाहिए भी।

    जवाब देंहटाएं
  13. खूबसूरत तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यह प्रस्तुति अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की गई है,आनंद लें !

      हटाएं
  14. आलोचना :)
    (१)
    ये मसला 'मैं' से 'तुम' के बीच है इसलिए 'हमको' बीच में नहीं पड़ना चाहिए ! तुम्हारी चिक चिक अच्छी नहीं लगती तो मैं का तिनके कुचलना भी अच्छा नहीं है ! तिनकों को रौंदने का आशय कदापि उचित नहीं माना जा सकता !

    (२)
    आलोचनाओं से ऊब / असमतल व्यवहार /असमदर्शी स्वभाव / व्यक्तिगत स्वार्थ / केवल मेरा सपना ...निज आलोचना के हर अवसर का लाभ उठाता मैं !

    (३)
    दर्पण /दृष्टि /समझ से यह व्यवहार समझ से परे है !

    (४)
    चूंकि मैं को तुमसे कोई मतलब नहीं सो हार की संभावनाएं प्रबल हुईं !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. १)यहाँ 'हम' में ही 'तुम' शामिल है जो बोलने की जुर्रत करता है !

      २)आलोचना किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं,व्यवहार भी भाई-भतीजेवाद या अपने-पराये से प्रभावित है !

      ३)यह कि मेरे पास अपना ही दर्पण है जिसमें मनचाही तस्वीर देख सकता हूँ....अवांछित नहीं.

      ४)इस आशंका को भी खारिज होते देख चुका हूँ !

      हटाएं
    2. आलोचना :)
      (१)
      तो क्या 'तुम' का बोलना भी बंद करा दिया जाए :)
      (२)
      ज़रा गौर से पढ़िये अपनी कविता , वो जो भी 'मैं' है अपनी स्वयं की आलोचना कर रहा है कि नहीं :)
      (३)
      मतलब यहां मैं , मेरा दर्पण , मेरी तस्वीर , के सिवा तुम और हम भी नहीं :)
      (४)
      मैं को शुभकामनायें दी जा सकती हैं पर यह आदर्श स्थिति नहीं है :)

      हटाएं
  15. आलोचनाओं को
    पिरोकर डाल लो अपने गले में

    बहुत खूब बहुत खूब !!

    हम तो पहले से ही डाले हुऎ हैं
    चलिये आप भी आ गये
    अब निकलते हैं बेचने मालायें
    आलोचनाओं के साथ साथ !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मुझे ऐसे ही हम-बिरादरी की तलाश है...आपका स्वागत है इस कुनबे में !

      हटाएं
  16. हाँ डोरे डालने पर कोई मलाल नहीं है -स्वागत है!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हम डोरे नहीं डालते,
      लोगों को खुद दौरे पड़ते हैं
      और वे दौड़े-दौड़े आते हैं !

      हटाएं
  17. मेरे आर्तनाद तुम्हे नहीं पड़ते सुनायी
    मेरी दशा भी तुम देख नहीं पाते
    तनिक भी स्पर्श करते नहीं तुमको स्पंदित
    अब कैसे हो निर्वाह मेरा
    हो गए हो जब अंधे गूंगे और बधिर तुम

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. गुरुवर,
      आपके पास तो
      भरा-पूरा रचना-संसार है
      एक हमीं बेज़ार हैं,
      सारी रचनाएँ आभासी हैं
      उस पर भी,
      खो जाने का खतरा बरक़रार है !!

      हटाएं
  18. पोस्ट से बढ़िया तो कमेंट के जवाब हैं।:)

    जवाब देंहटाएं
  19. दुर्वासा नहीं दधिची होते।
    यकिन है संतोष ही पाते॥

    जवाब देंहटाएं