तुम्हारी
रोज़-रोज़ की चिक-चिक से
मैं तंग आ चुका हूँ,
मेरे कान
पक गए हैं
तुम्हारी उल-जलूल बातें सुन-सुनकर .
हमने तुम्हें
आज़ादी क्या दे दी बोलने की
तुमने
आसमान ही सिर पर उठा लिया.
मुझे अपनी चाल से
आगे बढ़ना ही अच्छा लगता है.
मैं बढ़ता हूँ समगति से,
पैरों से कुचलते हुए तिनकों को,
मंजिल की तरफ |
तुम्हारी आलोचनाएं
अब ऊब पैदा करती हैं
मुझे कचोटती नहीं |
सबके साथ
एक-सा व्यवहार करूँ,
मैं समदर्शी भी नहीं |
मुझे दिखता है केवल
मेरा सपना
और सुनाई देती है
अपनों की आवाज़ ,
हर दिन,हर रात
सुनती हैं विरुदावालियाँ |
क्या करूँ,
मेरे दर्पण में
मेरा ही चेहरा दिखता है
मैंने उसे अपनी जेब में ले रखा है
ताकि और कोई उसमें
कभी अपनी सूरत न पहचान ले
खुद से ज़्यादा ,
हमें जान ले !
तुम्हारे सपनों से
मुझे कोई नहीं वास्ता,
उन्हें मुल्तवी रखो
आखिरी साँस तक |
आलोचनाओं को
पिरोकर डाल लो अपने गले में
मैंने हार की मालाएं
पहननी छोड़ दी हैं !
रोज़-रोज़ की चिक-चिक से
मैं तंग आ चुका हूँ,
मेरे कान
पक गए हैं
तुम्हारी उल-जलूल बातें सुन-सुनकर .
हमने तुम्हें
आज़ादी क्या दे दी बोलने की
तुमने
आसमान ही सिर पर उठा लिया.
मुझे अपनी चाल से
आगे बढ़ना ही अच्छा लगता है.
मैं बढ़ता हूँ समगति से,
पैरों से कुचलते हुए तिनकों को,
मंजिल की तरफ |
तुम्हारी आलोचनाएं
अब ऊब पैदा करती हैं
मुझे कचोटती नहीं |
सबके साथ
एक-सा व्यवहार करूँ,
मैं समदर्शी भी नहीं |
मुझे दिखता है केवल
मेरा सपना
और सुनाई देती है
अपनों की आवाज़ ,
हर दिन,हर रात
सुनती हैं विरुदावालियाँ |
क्या करूँ,
मेरे दर्पण में
मेरा ही चेहरा दिखता है
मैंने उसे अपनी जेब में ले रखा है
ताकि और कोई उसमें
कभी अपनी सूरत न पहचान ले
खुद से ज़्यादा ,
हमें जान ले !
तुम्हारे सपनों से
मुझे कोई नहीं वास्ता,
उन्हें मुल्तवी रखो
आखिरी साँस तक |
आलोचनाओं को
पिरोकर डाल लो अपने गले में
मैंने हार की मालाएं
पहननी छोड़ दी हैं !
गहरे भाव है....
जवाब देंहटाएं..उनको तो घाव हैं |
हटाएंअपने आप में सिमटे ख्वाब ..... हर इंसान ऐसा ही हो गया है
जवाब देंहटाएं...खून पानी बन गया है |
हटाएंसबके साथ
जवाब देंहटाएंएक-सा व्यवहार करूँ,
मैं समदर्शी भी नहीं... बिल्कुल सही कहा
...मैं अपने में नहीं रहा ||
हटाएंआपने चाहे छोड़ दी हों
जवाब देंहटाएंपहनना मालाएं
परंतु मालाएं
नहीं छोड़ेंगी आपको
यह सच जान लो
तिनका रौंदते हुए
जब बढ़ते हो आगे
तब चींटियों को भी
रौंद देते हो
यह सच जान लो
हाथी नहीं हो
पर जूते तुम्हारे
चींटियों के लिए
किसी हाथी से
बिल्कुल कम नहीं
और यह सच भी जान लो
हाथी, हाथ और हथियार से
बेकसूर चींटियों
मासूम तिनकों
को रौंदना
कानून में अपराध नहीं है
किंतु मन आपका
अपराधी हो जाता है
जब कोई आपके
जूतों तले दबकर
गुजर जाता है।
आप सबसे समझदार हैं |
हटाएंदुश्मन सभी व्यंग्यकार हैं ||
जो चाहते हो अपनी खैर |
हमसे न बढाओ बैर ||
वाकई में
हटाएंइनसे कुछ
समझदारी
चुरानी है
फिर कभी नहीं
लौटानी है
पर इनकी
समझ दानी
हाथ नहीं आती
जब ये ही फिसल
जाते है तो
वो कहाँ
अटक पाती !!
इतना क्षोभ....
जवाब देंहटाएंशायद जायज़ भी है....
गहन अभिव्यक्ति..
अनु
यह क्षोभ नहीं,ललकार है|
हटाएंमद में चूर,फुँफकार है ||
आक्रोश ... व्यवस्था के प्रति .... या परिवर्तन की चाह ...
जवाब देंहटाएंसत्ता हो या हो समाज|
हटाएंदंभ भर गया इनमें आज ||
बड़े निष्ठुर हो गए हैं आप ! :)
जवाब देंहटाएंयह अहंकार का ताप !
हटाएंhmm..everyone seems like this nowadays..
जवाब देंहटाएंसही कह रहे आप|
हटाएंसबको है संताप ||
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है|
जवाब देंहटाएंआभार करें स्वीकार हमारा |
हटाएंचर्चा में हो जय-जयकारा ||
दबा रखो आक्रोश को, इतना अधिक अधीर |
जवाब देंहटाएंमिर्ची खाकर दे रहे, किसके मुंह को पीर |
किसके मुंह को पीर, दफ़न कर दुश्मन मन को |
चल यमुना के तीर, साँस दे दे भक्तन को |
यह कटाक्ष यह तीर, चीर देंगे वह छाती |
मत मारो हे मीर, सहन अब न कर पाती ||
अहंकार मिट जाएगा,घड़ा भरेगा जिस दिन |
हटाएंअपने भी खो जायेंगे,बियाबान में उस दिन ||
कमाल का लिखा है!.. अब भला कौन आलोचना करेगा इस कविता की?:)
जवाब देंहटाएं...आप ज़्यादा समझदार हैं.इसलिए आपको बख्शता हूँ :)
हटाएंआ लो चना..
जवाब देंहटाएंआज तो कुछ अलग ही मूड में हैं माट्साब!! मगर यह रंग भी शानदार है!!
थोथा चना,बाजे घना !!
हटाएंआलू,चना |
आओ,चबा लो चना |
हम मस्त रहना बन्द नहीं कर देंगे..
जवाब देंहटाएं...तो आप भी हमारे साथ हो...?
हटाएंआक्रोश और क्षोभ से भरी सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंस्वयं का दंभ आँख कान दिमाग सब पर ताले लगा देता है ..
...अगला नंबर आपका है !!
हटाएंकभी-कभी ख़ुद को खुद के अनुसार जीने का मन करता है। जीना चाहिए भी।
जवाब देंहटाएं...हम तो हमेशा से अपने मन की करते आ रहे हैं जी !
हटाएंबहुत खूबसूरत...गहरे भाव
जवाब देंहटाएं..जी,हमें तालियों का है चाव !
हटाएंखूबसूरत तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
जवाब देंहटाएंयह प्रस्तुति अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की गई है,आनंद लें !
हटाएंआलोचना :)
जवाब देंहटाएं(१)
ये मसला 'मैं' से 'तुम' के बीच है इसलिए 'हमको' बीच में नहीं पड़ना चाहिए ! तुम्हारी चिक चिक अच्छी नहीं लगती तो मैं का तिनके कुचलना भी अच्छा नहीं है ! तिनकों को रौंदने का आशय कदापि उचित नहीं माना जा सकता !
(२)
आलोचनाओं से ऊब / असमतल व्यवहार /असमदर्शी स्वभाव / व्यक्तिगत स्वार्थ / केवल मेरा सपना ...निज आलोचना के हर अवसर का लाभ उठाता मैं !
(३)
दर्पण /दृष्टि /समझ से यह व्यवहार समझ से परे है !
(४)
चूंकि मैं को तुमसे कोई मतलब नहीं सो हार की संभावनाएं प्रबल हुईं !
१)यहाँ 'हम' में ही 'तुम' शामिल है जो बोलने की जुर्रत करता है !
हटाएं२)आलोचना किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं,व्यवहार भी भाई-भतीजेवाद या अपने-पराये से प्रभावित है !
३)यह कि मेरे पास अपना ही दर्पण है जिसमें मनचाही तस्वीर देख सकता हूँ....अवांछित नहीं.
४)इस आशंका को भी खारिज होते देख चुका हूँ !
आलोचना :)
हटाएं(१)
तो क्या 'तुम' का बोलना भी बंद करा दिया जाए :)
(२)
ज़रा गौर से पढ़िये अपनी कविता , वो जो भी 'मैं' है अपनी स्वयं की आलोचना कर रहा है कि नहीं :)
(३)
मतलब यहां मैं , मेरा दर्पण , मेरी तस्वीर , के सिवा तुम और हम भी नहीं :)
(४)
मैं को शुभकामनायें दी जा सकती हैं पर यह आदर्श स्थिति नहीं है :)
आलोचनाओं को
जवाब देंहटाएंपिरोकर डाल लो अपने गले में
बहुत खूब बहुत खूब !!
हम तो पहले से ही डाले हुऎ हैं
चलिये आप भी आ गये
अब निकलते हैं बेचने मालायें
आलोचनाओं के साथ साथ !
मुझे ऐसे ही हम-बिरादरी की तलाश है...आपका स्वागत है इस कुनबे में !
हटाएंहाँ डोरे डालने पर कोई मलाल नहीं है -स्वागत है!
जवाब देंहटाएंहम डोरे नहीं डालते,
हटाएंलोगों को खुद दौरे पड़ते हैं
और वे दौड़े-दौड़े आते हैं !
मेरे आर्तनाद तुम्हे नहीं पड़ते सुनायी
जवाब देंहटाएंमेरी दशा भी तुम देख नहीं पाते
तनिक भी स्पर्श करते नहीं तुमको स्पंदित
अब कैसे हो निर्वाह मेरा
हो गए हो जब अंधे गूंगे और बधिर तुम
गुरुवर,
हटाएंआपके पास तो
भरा-पूरा रचना-संसार है
एक हमीं बेज़ार हैं,
सारी रचनाएँ आभासी हैं
उस पर भी,
खो जाने का खतरा बरक़रार है !!
khoobsurat rachna..
जवाब देंहटाएंआभार बहना !
हटाएंपोस्ट से बढ़िया तो कमेंट के जवाब हैं।:)
जवाब देंहटाएंजी,आभार |
हटाएं:)
हटाएंदुर्वासा नहीं दधिची होते।
जवाब देंहटाएंयकिन है संतोष ही पाते॥
दधीचि तो इत्ते से संतुष्ट हो जाते,दुर्वासा नहीं...!
हटाएं:)
हटाएं