ब्लॉग-जगत में इन दिनों एक विशेष प्रकार का तत्व सक्रिय है जिसे हम अपनी स्थानीय बोली में खुरपेंच कहते हैं.इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि चलते हुए बैल को अरई मारना !अरई एक प्रकार का हथियार है जिससे किसान बैलों में नाहक उत्तेजना भरने का काम लेते हैं.इस तरह का काम अपनी कलम से द्वारा करना 'खुरपेंच' की श्रेणी में आता है.इस काम को पहले आदरणीय स्वर्गीय डॉक्टर अमर कुमार जी किया करते थे,पर उनके जाने के बाद इस विधा को और गति प्रदान करने व विशिष्टता से करने का काम हमारे
फुरसतिया वाले अनूप शुक्ल जी ने लगातार किया है.इस प्रकार वे अप्रत्यक्ष रूप से अमर कुमार जी के ब्लॉगरीय-वारिस बनने की दौड़ में भी हैं.
अभी हाल के दिनों में उनकी इस खुरपेंच-प्रतिभा ने और ज़ोर पकड़ा है.जबसे मैंने यह जाना है कि वे
टहलते हुए लिख लेते हैं या चर्चिया लेते हैं तब से बहुत हैरान और दुखी हूँ.खुद तो कभी
रेलगाड़ी से सफ़र करते हुए ,उठते,बैठते या टहलते हुए कुछ भी लिख सकते हैं पर दूसरे अगर बकायदा नहा-धोकर,मानस-पारायण कर, बैठकर कुछ लिखते हैं तो अनूप जी लाख खामियां निकालने लगते हैं.
डॉ. अरविन्द मिश्र जी से उनका गज़ब का याराना है पर मौका मिलते ही उनकी
हिज्जों में हुई गलतियाँ भी निकालते हैं.अभी कुछ दिनों पहले आलोक कुमार जी के ऊपर लिखी पोस्ट में मिश्रजी ने 'आदि ब्लॉगर' शब्द पर आपत्ति की थी कि इससे आदि-मानव की गंध महसूस होती है सो इन्होंने उनका मान रखते हुए इसे 'पहला ब्लॉगर' मान लिया था.पर अधिकतर मौकों पर वे मिश्रजी को कोंचते रहते हैं.
मिश्रजी वैज्ञानिक-प्रतिभा संपन्न होते हुए भी यदि हिंदी साहित्य को अपनी ब्लॉगिंग से कुछ दे रहे हैं तो यह उनकी ब्लॉग-जगत पर असीम कृपा ही है.हमारे यहाँ जो निर्वात है,उसको एक तरह से वे भरने की कोशिश कर रहे हैं और इसी सिलसिले में यदि उन्होंने अपने साईं ब्लॉग को पहला विज्ञान-ब्लॉग घोषित कर दिया तो अनूपजी कसमसा गए.इन्होंने पुराना रिकॉर्ड खोजा तो पता चला कि
ज्ञान विज्ञान नामका कोई ब्लॉग उनसे पहले से है.मिश्रजी ने अपना
रिकार्ड टूटते देखा तो उन्होंने यह नवीनतम जानकारी दी कि वह ब्लॉग मृत हो चुका है,सो इस नाते जो उपलब्ध ब्लॉग हैं ,उनमें उनका ही हक बनता है !इस पर
अली साहब ने एक दिलचस्प सुझाव दिया है ,'मृत हो चुके वर्डप्रेस के ब्लॉग के बाद वाला पहला ब्लॉग' |अभी तक इस तरह के दावे पर अनूपजी की कोई प्रतिक्रिया मेरे संज्ञान में नहीं आई है.
कुछ उदाहरण देखिये,जिससे पता चलता है कि अनूपजी को दूसरे का किया कुछ भी अखरता है.कोई अगर लिखकर रिकॉर्ड बनाता है या केवल ब्लॉग बनाकर रिकॉर्ड बनाता है तो भी उन्हें मंज़ूर नहीं है.अगर कोई कविता लिखता है तो उसमें भी उनकी घोर आपत्ति है.
सतीश सक्सेना जी की कवितायेँ पढ़कर उनको उसमें
रोने वाले बिम्ब नज़र आते हैं,जबकि खुद वो
गरमी के बिम्ब पकड़ नहीं पाते और इसके लिए गुहार लगाते हैं !अब अगर कोई सदाबहार-टाइप बिम्ब लेकर कविता लिखता है तो भी उनको आपत्ति है.वे स्वयं मौसमी-बिम्ब का रोना रोते हैं.अगर कविता होगी,तो दर्द तो होगा ही.बिना दर्द के कविता कैसी ? इस तरह की कविताओं को वे रोने वाली कहकर खारिज करते हैं .जब हम
दुःख में डूबकर कविता लिखते हैं तो कहते हैं कि या तो वह
गीत का हुलिया बिगड़ गया है इसलिए यह कविता नहीं है या भाव झूठे हैं.यानी,किसी प्रकार लिखने में चैन नहीं है |
अनूपजी का जब कानपुर से जबलपुर जाना हुआ,तभी उनने '
घर से बाहर जाता आदमी' कविता लिख कर आर्तनाद किया था,गाहे-बगाहे 'कट्टा-कानपुरी' के नाम से सड़क-छाप शेर भी लिखते रहते हैं पर मजाल है कि कोई उनके रहते किसी भी विधा में कुछ भी लिख सके.हाँ,महिला-ब्लॉगरों के प्रति वे विशेष आदर रखते हैं.कुछ समय पहले तक महिलाओं को अपनी पोस्ट में सम्मान देने के लिए अक्सर सुदर्शन चित्र लगाया करते थे.किसी ने आपत्ति की कि भाई अपनी पोस्टों के ज़रिये वे नस्लवाद और रंगभेद फैला रहे हैं ,सो उन्होंने उन सुदर्शनाओं को
काजल कुमार के कार्टूनों से रिप्लेस कर दिया .अब चारों तरफ शांति है.
अगर ब्लॉग-जगत में कोई पुरस्कार देना चाहता है तो इसमें भी
उनको आपत्ति है .चाहे परिकल्पना-सम्मान हो या कोई आलसी-परियोजना| इनको सबसे बड़ी खुंदक है कि उनके रहते न कोई गद्य लिख सकता है,न पद्य ,न कोई रिकॉर्ड बना सकता है न पुरस्कार बाँट सकता है.गद्य में जहाँ हिज्जों की गलतियाँ निकाली जाती हैं,वहीँ पद्य में बिम्ब पकड़े जाते हैं.खुद बैठकर,लेटकर और टहलते हुए गद्य,पद्य या व्यंग्य जैसा कुछ लिखते हैं तो कोई बात नहीं,पर एक सामान्य ब्लॉगर अगर अपनी रेटिंग बढ़ाने को लेकर कुछ लिखता है तो उनके पेट में मरोड़ शुरू हो जाती है.लोगों के ब्लॉग-शीर्षकों को लेकर भी वे खूब मजे लेते हैं,इसी सन्दर्भ में उनके अपने ब्लॉग फुरसतिया को खुरपेंचिया जैसे नाम से
नवाज़ा गया है !सभी पुरस्कार-समितियों से हमारा निवेदन है कि इन्हें सबसे बड़ा खुरपेंचिया पुरस्कार दिया जाय |
उनमें इतने खुरपेंच भरे पड़े हैं कि पूछिए मत ! पिछले साल जब हम पहली बार जे एन यू के कैम्पस में
अमरेन्द्र त्रिपाठी और
निशांत मिश्र के साथ उनसे मिले थे,तभी से हमारी ब्लॉगरीय-ज़िन्दगी ने गज़ब की रफ़्तार ले ली.उस समय हमें उन्होंने कुछ ऐसे ख़ुफ़िया सूत्र बताये थे,जिनके सहारे मैं कहाँ से कहाँ पहंच गया ? तब मैं ब्लॉगिंग-जगत का स्ट्रगलर हुआ करता था,उदीयमान-ब्लॉगर की पहुँच से भी बाहर ! उस हंगामी-बैठक के बाद आज इत्ते बड़े ब्लॉगिंग-जगत का सबसे बड़ा आलोचक-ठेकेदार बनने की राह पर हूँ.यह सब अपने फुरसतियाजी उर्फ खुरपेंचिया जी की दी हुई शुरुआती-डोज़ का ही तो कमाल है !
ये तो गिने-चुने लोगों के उदाहरण हैं.पता नहीं,कितने लोग इनसे मार खाए और खार खाए बैठे हैं.कुछ कमज़ोर दिल वालों ने तो इनकी खुरपेंच से आजिज आकर अपना काम-धंधा ही बदल लिया है.अनूप जी या तो किसी के यहाँ टीपकर उसकी सारी खुमारी उतार देते हैं या फिर टहलते हुए चर्चा करके ! चिट्ठाचर्चा को इन्होंने अपना अचूक हथियार बनाया हुआ है,उसी से अपने प्रिय शिकार पर हमला बोल देते हैं ! हमें सबसे बड़ी शिकायत यह भी है कि वो हमारे पड़ोस के हैं, न जाने कितनी बार इधर-उधर की लहरों से खेला करते हैं,पर हमें प्रमोट करने के लिए कभी कुछ नहीं किया !
मोरल ऑफ दा स्टोरी "ये आदमी हमें चैन से लिखने भी नहीं देता !"