मौत का एक दिन मुअइयन है,नींद क्यूँ रात भर नहीं आती?
ग़ालिब ने बहुत पहले हमें वह बात समझाने की कोशिश की थी जिसे शायद वह ख़ुद समझ नहीं पाए थे ! कई बार हम चाहकर भी अपने को इस बेचैनी से बचा नहीं पाते और पूरी की पूरी रात किसी डर,आशंका या चिंता की भेंट चढ़ जाती है.हम दिन में बहुत समझदार होते हैं पर रात आते-आते वह समझदारी न जाने कहाँ फुर्र हो जाती है ?
रात में बिस्तर जाने के समय जब हम बहुत थके और गाफ़िल-से होते हैं तो बहुत जल्द नींद के आगोश में चले जाते हैं ! यह स्थिति उत्तम और ज़रा दुर्लभ क़िस्म की होती है ! कई बार हम संगीत सुनते-सुनते या कोई पुस्तक पढ़ते-पढ़ते लुढ़क लेते हैं पर पूरी रात बेखटके सो जाते हैं.हमारा मोबाइल , ऐसा आधुनिक-यंत्र है जो हमारे लिए कई बार यंत्रणा बन जाता है इसलिए अकसर उसे स्विच-ऑफ कर देते हैं !हम पूरी तरह 'रेस्ट-मोड' में जाना पसंद करते हैं !
हमारी जिस प्रकार की जीवन-शैली बन गई है उसमें नींद का न आना सामान्य बात हो गई है.हम आपसी बातचीत में इस बात की हिमायत खूब करते हैं कि हमें बिंदास और बेफ़िक्र होके जीना चाहिए.पैसे के पीछे इतना न भागना चाहिए कि जिस 'जीवन-सुख' के लिए हम पैसा चाह रहे हैं, पैसा आने पर वही सुख हमसे कोसों दूर हो जाये !इस 'भौतिक-चिंतन' से भले ही आपको अपनी नींद में खलल न पड़े पर जाने-अनजाने प्राकृतिक या अप्राकृतिक रूप से हमारे जीवन पर जब कोई ख़तरा मंडराता दिखता है तो हम 'डॉक्टर' से 'रोगी' बन जाते हैं.यहीं से हमारे लिए रात एक दुस्वप्न बनने लग जाती है !
हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि एक दिन हम सबको अपना बोरिया-बिस्तर उठाना होगा पर शायद सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि जानते हुए भी हम हज़ारों साल का इंतजाम करने में लगे रहते हैं.पर यह हमारे लिए उस ईश्वर का वरदान भी है कि हमें इस बात की यथार्थता वास्तव में हो जाये तो हमारे लिए दो पल भी जीना मुश्किल हो जाये.आशावाद का संचार हममें लगातार बना रहता है और हम अपने नित्य-कर्मों में,पारिवारिक-दायित्वों में मशगूल रहते हैं !अगर हमें मौत की यकीनी दिन-दहाड़े हो जाये तो क्या जीवन इतना सामान्य रह पायेगा ?
हमारी ज़िन्दगी का फलसफा एक शेर में यूँ है:
हँस सको जितना,खुलकर हँसा करो,
न जाने क़यामत किस द्वार पर खड़ी हो !!
विशेष सन्दर्भ : दिल्ली में एक ही दिन बम-धमाका और भूकंप की तनिक छाया में !
हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि एक दिन हम सबको अपना बोरिया-बिस्तर उठाना होगा पर शायद सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि जानते हुए भी हम हज़ारों साल का इंतजाम करने में लगे रहते हैं
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जीवन भी क्या विरोधाभास है , जो हमारे सामने होता है वह नजर अंदाज रहता है और जो हमारे सामने नहीं होता उसे सहजने की कोशिश करते हैं , मृत्यु हमारे सामने होती है , लेकिन हम जीवन की तलाश करते रहते हैं ...आपका आभार
आज इसी पल बस जी ले हम,
जवाब देंहटाएंसमय का पहिया कब जाये थम।
अच्छा है जी!
जवाब देंहटाएंलेकिन हम तो नींद न आने की बीमारी से बाकिफ़ ही नहीं हुये कभी! :)
जब मन आया सो लिये। मन न हुआ तो और सो लिये॥
अच्छी बात की है आपने ...मगर ये जो माया है न बड़ी ठगिनी है ...वही सब कर्म कुकर्म करती है ...
जवाब देंहटाएंउससे दूर रहने के लिए सत साहित्य का मनन करना चहिये जैसे कि यह ..
मैं जल्दी सोता हूँ भरपूर सोता हूँ और मोबाईल भी आफ नहीं करता कई बार सोते हुए ही बतिया लेता हूँ -
एक बार तो आपसे ही !
@ अनूप शुक्ल आप तो फ़ुरसत से सोते हैं और लिखते भी !
जवाब देंहटाएं@Arvind Mishra मेरी यह पोस्ट दिल्ली में एक ही दिन ब्लास्ट और भूकंप के साए में लिखी गयी है,सो 'उस' डर-आशंका में नींद कैसे आएगी ?
'हमें बिंदास और बेफ़िक्र होके जीना चाहिए.पैसे के पीछे इतना न भागना चाहिए कि जिस 'जीवन-सुख' के लिए हम पैसा चाह रहे हैं,'
जवाब देंहटाएंएक मंत्रीजी ने कहा था (नाम नही लिखूंगी,सब जानते हैं)'पैसा खुदा तो नही ....पर खुदा से कम भी नही.' यह सच है सांसारिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए पैसा बहुत महत्त्वपूर्ण है.हम सब नौकरीपेशा हैं इसलिए चिंता ना कीजिये ईमानदारी से कमाने पर हमारे पास इतना धन हो ही नही सकता कि.....रातों की नींद उड़ जाए.
हम सब जानते हैं कि....जाना है.किन्तु यहाँ रहना है रह रहे हैं,परिवार और खुद अपने सुखी,साधन-संपन्न जीवन जीने के लिए यही बात हमे कर्मशील बने रहने की प्रेरणा भी तो देती है.जब तक रहे अच्छे इंसान बनकर रहे यह बात हमे बेलगाम नही होने देती.हा हा हा अब आप सब विद्वान हैं मैं सामान्य बुद्धि की साधारण सी औरत.क्या बोलू?
नींद उड़ जाने दीजिए खुश रहना,हँसना-मुस्कराना,याद रखने की तरह ही बुरे को भूल जाना, नींद लेना हमारी मूल प्रवृतियां है.घूम फिर कर हम उन तक स्वतः पहुँच जाते हैं.पहुँच जायेंगे .अच्छा लिखते हो सन्तु दा!
प्रासंगिक ....आजकल कब क्या हो जाय पता नहीं
जवाब देंहटाएं@indu puri आपका स्नेह और आशीर्वाद पाकर शायद मुझे भी चैन की नींद आ जाये ! आमीन !
जवाब देंहटाएंदेश में इन हादसों से मासूमों और बेगुनाहों की जान जिस तरह जा रही है , ऐसे में सिर्फ हुक्मरान ही सो सकते हैं। हम आम जनता तो उदासी के साए में रात भर जागेंगे ही।
जवाब देंहटाएंयह चिंतन बढ़िया है :-)
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
कयामत तो खूब खुलकर हंसती है, खिलखिलाती है
जवाब देंहटाएंदेखा नहीं है क्या कयामत को कभी हंसते हुए
जहां फटा तो बम, वहीं तो खिलखिला रही थी
और जब आया था भूकंप
तो हंसी ही तो लगा रही थी जंप।
भूख जब तलक नहीं मिटती
जवाब देंहटाएंनींद तब तलक नहीं आती।
भूख, भूखे की लगे सच्ची
भूख पेटू की मगर खलती है।
कृतिम सुख कोई सुख है क्या ? नहीं ! मई तो सोना चाहता हूँ , पर रेलवे सोने नहीं देती !
जवाब देंहटाएंएक न एक दिन तो सब को जाना ही है, फिर क्यों चिंता का बोझ लादे फिरें, जब तक सांस है, तब तक हास-परिहास के साथ जिएं।
जवाब देंहटाएंक़यामत को तो आना ही है ,तब तक जिन्दगी से दिल लगाना ही है.
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन का परिणाम है यह आलेख। बस मुझे तो यही कहना है
जवाब देंहटाएंएक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती है।
निश्चय ही आपने आतंक के साये में भयावह हो रही स्थितियों को ‘नींद’ रूपक से कहने की कोशिश की है। सार्थक सोच का प्रकतन।
जवाब देंहटाएं.
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वैसे अगर आपको व्यक्तिगत तौर पर यह समस्या हो तो ब्लोग-जगत में मौजूद डाक्टरों से ( जैसे दराल जी...आदि ) से सलाह लीजिये।