मेरे जीवन के शुरूआती पचीस साल गाँव के खुले आकाश में खेलते-कूदते बीते.वह खुलापन और वहाँ के सीमित साधनों में भी जिंदगी जीने का मज़ा अब शायद ही मिले !गाँव की दिनचर्या में खेती-पाती से जुड़ना लगभग अपरिहार्य-सा है, मेरा मामला भी इससे ज़्यादा जुदा नहीं था.ऐसे में पढ़ाई के अलावा समय काटने और मनोरंजन के लिए बाग़-बगीचों की तरफ जाना होता या फिर रेडियो लेकर बैठ जाते थे !
रेडियो एक तरह से हमारा दोस्त बन गया था,जिससे हम सुबह से लेकर सोने तक किसी न किसी रूप में जुड़े रहते थे.सुबह-सुबह ही हम समाचार सुनते और इसमें हमारे पिताजी की भी ख़ासी रूचि थी.इसके बाद तो हम शॉर्ट वेव में आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से गाने सुनने लगते .इसी तरह यही बैंड साढ़े तीन बजे फिर से फरमाइशी गाने सुनाने लगता.वास्तव में फ़िल्मी गानों का असली क्रेज़ हमें इसी स्टेशन से हुआ !पुरानी फिल्मों,संगीतकारों और गायकों के बारे में एक तरह से एनसाइक्लोपीडिया का काम किया इसने !
साभार:गूगल बाबा |
उस समय हम रेडियो में इतने मशगूल हो गए थे कि एक जगह से गाने ख़त्म होते ही दूसरी जगह से सुनने लग जाते थे.संगीत से भी ज़्यादा समाचार सुनने का शौक था .लगभग हर समाचार बुलेटिन पर हमारी नज़र रहती और उस समय देश-दुनिया के बारे में मैं बहुत-कुछ जानता था.लखनऊ से प्रादेशिक समाचार , दिल्ली से राष्ट्रीय समाचार और बी.बी.सी .से पूरी दुनिया के समाचारों को चाव से सुनता था.यज्ञदेव पंडित जहाँ प्रादेशिक समाचारों में खूब प्रभावित करते थे ,वहीँ देवकी नंदन पाण्डेय,अशोक बाजपेई ,मनोज कुमार मिश्र ,कृष्ण कुमार भार्गव आदि राष्ट्रीय समाचारों में अपनी जादुई आवाज़ से हमें सम्मोहित करते थे !बीबीसी में ओंकार नाथ श्रीवास्तव,अचला शर्मा,कैलाश बधवार,धीरंजन मालवे,परवेज आलम,राजनारायण बिसारिया आदि को तल्लीन होकर सुनते थे !समाचारों के दौरान पास से गुजरने वाले दो-चार लोग ज़रूर ठिठक जाते और बुलेटिन ख़त्म होने पर ही जाते ! बीबीसी सुनने के बाद किसी अख़बार को पढने की भूख नहीं रहती थी,न वहाँ इनकी उपलब्धता ही थी.
रेडियो के इन महान पात्रों के अलावा चंद्रभूषण त्रिवेदी'रमई काका' का नाम कैसे भुलाया जा सकता है.वे 'किसानों के लिए' कार्यक्रम में 'मतोले' की भूमिका में बड़े प्रभावी लगते थे !हर रविवार 'बाल-संघ' आता जिसमें बच्चों के मुँह से कविता,चुटकुले सुनाये जाते जो बहुत प्यारे लगते .इस तरह रेडियो ने सीमित साधन होते हुए भी हमारे जीवन के हर अंग में अपना रंग भरा !हमने बहुत ज्ञानवर्धक चीज़ें उससे सीखीं जो आज शहर में असीमित साधनों के होते हुए भी नहीं सीख पाते हैं !
रेडियो के प्रति हमारी दीवानगी का एक किस्सा अभी भी मुझे याद है.बड़े भाई बम्बई से फिलिप्स का नया रेडियो लाये थे.मैं समाचार सुन रहा था तभी किसी काम से उन्होंने मुझे पुकारा.मैंने कहा,हेड-लाइन सुनकर आ रहा हूँ.बस,फिर क्या था? भाईसाहब ने मुझसे रेडियो लेकर एक बड़ी ईंट से उसे पूरी तरह से पिचका दिया.इसके बाद पास के कुएँ में दे मारा.उन्हें डर था कि थोड़ी-सी भी क़सर रहने पर इसे निकालकर बनवाया जा सकता है.उस दिन मुझे रेडियो पर ,अपने-आप पर बहुत पछतावा हुआ था !
न जाने कितने पुराने चरित्र याद दिला दिये।
जवाब देंहटाएंऔर तो और.. दहेज़ में रेडिवा देना एक शान होता था,
जवाब देंहटाएंभाई मैं तो अभी भी मीडियम और शॉर्ट-वेव का प्राविधान है.. और अधिकतर वही सुनता भी हूँ ।
एफ़.एम. रेडियो... राम भजो भाई ... वाकई में मिर्ची लग जाती है ।
हमें तो पछतावा भाई साहब के व्यवहार को जान कर हुआ.
जवाब देंहटाएंओह !का हो मा स्साब ..माने अपना दिन का रेडियो , सायकिल , गमछा सब याद दिला दिला के दिल्ली में रहना तो आप भारी मोसकिल करिएगा हो ..अरे भूल काहे नय जाते हैं महाराज ..
जवाब देंहटाएंक्या जमाना था वो भी।
जवाब देंहटाएंबी.बी.सी. लंदन के अलावा वायस ऑफ अमेरिका, रेडियो मास्को, डाइचे वैली भी खूब सुना करते थे।
गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दुबारा...।
पुरानी यादें ताज़ी हो गयी !आज भी गाँव में एक फिलिप्स का सेट , घर के एक कोने में मृतप्राय पडा हुआ है ! सुन्दर यादें !
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ तो रेडियो अभी भी चलता है पर उसपर बच्चे नए गाने ही सुनते हैं. ऍफ़ एम् चैनल सुनना मुझे पसंद नहीं है.
जवाब देंहटाएंहम रेडियो तब सुनते थे जब छुट्टियों में गाँव जाना होता और वहाँ टीवी उपलब्ध न होता। वैसे पोर्टेबल रेडियो का बहुत शौक था बचपन में और सालों पैसे बचाकर पूरे पाँच सौ का खरीदा था फिलिप्स का, पर अफसोस उसमें शॉर्टवेव न था।
जवाब देंहटाएंरेडियो का नाम सुनते ही हमारे शरीर में सिहरन उठ जाती है .....कारण बस यही कि पि़ता जी तरह तरह के रेडियो लाने में कभी पीछे नहीं हटे.......और हम बारम्बार उनको हलाक करने में !
जवाब देंहटाएंभूली बिसरी यादें हैं ......महाराज !
वैसे पिछले टूर में भाई साहब से हम मिल चुके हैं ......इत्ते गुस्से वाले थे .....पहले काहे नहीं डराया ?
@Rahul Singh दर-असल इसमें दोष मेरा ज़्यादा था क्योंकि मैं रेडियो के आगे इतना तल्लीन हो जाता था ! वैसे भाई साहब बड़े उदारमना हैं !
जवाब देंहटाएं@ प्रवीण त्रिवेदी अब आप तो मिल ही लिए हैं...भाईसाहब इत्ते गुस्से वाले नय हैं बस्स ऊ हमरी गलती थी !
बहुत कुछ याद दिला डाले आप! कई वाकये, उनके संदर्भ ! अब कुछ मुझे भी लिखना ही पड़ेगा!
जवाब देंहटाएंऔर ...अब तो गाना देखने की चीज हो गया है, सो अवमूल्यन बढ़ गया!