इधर हालिया दिनों में 'स्लटवाक' की चर्चा
मीडिया के ज़रिये खूब हो रही है ।सरसरी तौर पर इसका मतलब लोग यह समझाते
हैं कि यह नारीमुक्ति का एक आन्दोलन है !कहते हैं यह शब्द अपनी सोच को
पश्चिम से लाया है जहाँ पर किसी महिला को उसकी असुरक्षा के लिए कम कपड़ों का
होना बताया गया है.अर्थात ,यदि कोई लड़की या औरत कम वस्त्रों में सड़क पर
निकलेगी तो उसके साथ छेड़छाड़ की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.आधुनिकता और विकास के
ज़माने में ऐसी बात कहना मूर्खता कही जा सकती है.भाई,जिस प्रकार पुरुष अपने
वस्त्रों का चयन कर सकते हैं ,किसी स्त्री से उसका यह अधिकार कैसे छीना जा
सकता है ?
क्या यह बात इतनी सीधी है जितनी लगती है?इसमें लोगों को सहज ही पुरुषवादी सोच नज़र आती है,पर गौर से देखा जाये तो आज समाज के सोच के दायरे बहुत छीज रहे हैं.किसी लड़की को पूरा हक है कि वह अपनी मनपसंद ड्रेस पहने,पर साथ ही बिना सामाजिक परिवेश को समझते हुए केवल अपनी पसंद को आधार बनाना कई बार ग़लत भी हो सकता है.सुन्दर और स्वतंत्र दिखने के लिए ज़रूरी नहीं है कि न्यूनतम कपड़ों में सड़क पर टहला जाए!आख़िर घर के अन्दर की पोशाक और बाहर में पुरुष भी अंतर रखते हैं और होना भी चाहिए !
एक बात इस 'कुलटा चाल '(माफ़ कीजिये,कुछ लोगों ने इसका हिंदी अनुवाद किया है) के समर्थक कह रहे हैं कि इस 'सोच' का विरोध जताने के लिए वो भी रैम्प पर 'न्यूनतम' हो जायेंगे.हो सकता है,कल ऐसे लोगों के लिए पूनम पांडे का कदम भी आधुनिकता का पर्याय लगे.आखिर,बिग-बॉस जैसे फूहड़ कार्यक्रम चल ही रहे हैं.ये भी अपने प्रकार की स्वतंत्रता है !
क्या जिस तरह हम मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाने व खुलेआम रति-प्रसंग को अपनी निजता बता सकते हैं ?भड़काऊ कपड़ों को अपनी आज़ादी का प्रतीक कह सकते हैं ,खुले-आम सिगरेट,शराब पी सकते हैं? जिस तरह अन्य घटनाएँ किसी और की निजता का उल्लंघन करती हैं उसी प्रकार उत्तेजक कपड़े पहनना भी ग़लत है और ख़ास बात यह है कि यह सब 'टार्गेट' करके किया जाता है,पर ख़राब तब लगता है,जब टार्गेट दूसरा बन जाता है !क्या हम फिल्म के दृश्यों को सार्वजनिक जीवन में भी आजमा सकते हैं? ज़ाहिर है,उस तरह के दृश्य महज़ मनोरंजन के लिए और परदे के लिए बने हैं.
सबसे ज़्यादा नारी का शोषण इलेक्ट्रोनिक मीडिया,प्रिंट मीडिया के द्वारा हो रहा है.आप या हम पुरुषों के डियो या चड्डी-बनियान के विज्ञापन कितनी सहजता से देख लेते हैं! इसमें स्त्री अपना भरपूर प्रदर्शन करती है पर इसके लिए किसी 'मार्च' या 'वाक' की ज़रुरत किसी ने नहीं समझी.यह देह-शोषण का खुला व्यापार है और मज़े की बात है कि इसमें शोषित होने वाला भी खुश है.इस तरह का प्रचलन हमारे नैतिक मूल्यों को स्खलित कर रहा है,पर यह सब कहने पर हम कट्टरवादी,पुरुषवादी और नारी-विरोधी ठहरा दिए जायेंगे !पुरुष के बिगड़ने से परिवार या समाज उतना प्रभावित नहीं होता,जितना एक नारी के.आखिर कुछ ,अति-सभ्य' नारियों ने इस नज़रिए से इस पहलू को क्यों नहीं देखा ?
'स्लटवाक' को आधुनिकता और शिक्षा के नाम पर,पुरुषवादी मानसिकता कहकर नैतिकता के मूल्यों को दरकिनार करके आख़िर हम क्या पाएंगे,यह अंदाज़ लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है !