आज हमारी चिंता का सबसे बड़ा विषय छात्रों में तेज़ी से बढ़ती नशाखोरी की प्रवृत्ति है।एक शिक्षक,अभिभावक या बतौर नागरिक हम सबकी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि यह और विकराल रूप ले, इसे ख़त्म करने में पहल करनी चाहिए। आज हम किसी भी सरकारी स्कूल के बाहर यह नज़ारा खुले-आम देख सकते हैं कि छठी से लेकर बारहवीं कक्षा तक के बच्चे मजे से,बेखटके सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे हैं,पान-मसाला चबा रहे हैं और मदिरालय के आस-पास मंडरा रहे हैं। यही काम पब्लिक स्कूलों के बच्चे भी करते हैं ,पर लुक -छुपकर।
हम यहाँ इस बात पर विचार कर सकते हैं कि ऐसा क्योंकर हो रहा है? इसके लिए हमारी कार्यपालिका यानी सरकार ही मुख्य रूप से दोषी मानी जाएगी। नैतिक शिक्षा का पाठ तो बच्चे कब का भूल चुके हैं क्योंकि उन्हें हमने विरासत में अश्लील टी.वी. सीरियल,लपलपाती महत्वाकांक्षाएं व पश्चिम की भोंड़ी नकल दी है। जहाँ अभिभावक स्कूलों के भरोसे बैठे हैं तो सरकारी नीति है कि बच्चों को डाट-फटकार न लगाई जाये! यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि बच्चों को किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना की वक़ालत हरगिज़ नहीं की जा रही है,पर अगर माहौल अच्छा होगा तो बच्चे बिगड़ने वाली स्थिति तक पहुंचेंगे ही नहीं।
मैंने व्यक्तिगत स्तर पर कई बार कोशिश की कि वे सिगरेट,पान-मसाला और शराब जैसे व्यसनों से बचें पर बच्चे इसे गंभीरता से लेते ही नहीं। कई बार तो शिक्षक को दिखाकर वे ऐसा करने का दुस्साहस करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अध्यापक केवल एक सरकारी मुलाज़िम है और उसके हाथ बँधे हुए हैं. इसमें भी मैं उनका दोष रत्ती-भर भी नहीं मानता क्योंकि वे एक ऐसे मकड़जाल में फंसे हैं जिसके लिए सीधे-सीधे कोई जिम्मेदार नहीं है। सरकार है कि नियम तो बनाती है पर उनका पालन होना सुनिश्चित नहीं करती। यदि सर्वे किया जाये तो कई स्कूलों के आस-पास सिगरेट,पान-मसाले और शराब की दुकानें मिल जाएँगी ।
अभिभावक भी आज अध्यापकों को वह सम्मान नहीं देते जिससे उनके बच्चों के सामने उनकी गरिमा बरकरार रहे,फिर कैसे वे बच्चे उस 'मास्टर' को अपना शुभ-चिन्तक मानेंगे ?विद्यालयों में नैतिक-शिक्षा को पाठ्यक्रम का अंग बनाया जाना बहुत ज़रूरी है.अलग से इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है . अगर सही मायनों में इस समस्या को देखा जाये तो समाधान निकल सकता है पर इसके लिए समाज,सरकार और संस्थाओं को एक-सुर में बोलना और काम करना होगा नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ी शारीरिक व मानसिक रूप से बीमार होगी और इस सबकी ज़िम्मेदारी हम सबकी होगी !
संशोधित रूप में पुनर्प्रकाशित,पहली बार (२१/१२/२००९)
हम यहाँ इस बात पर विचार कर सकते हैं कि ऐसा क्योंकर हो रहा है? इसके लिए हमारी कार्यपालिका यानी सरकार ही मुख्य रूप से दोषी मानी जाएगी। नैतिक शिक्षा का पाठ तो बच्चे कब का भूल चुके हैं क्योंकि उन्हें हमने विरासत में अश्लील टी.वी. सीरियल,लपलपाती महत्वाकांक्षाएं व पश्चिम की भोंड़ी नकल दी है। जहाँ अभिभावक स्कूलों के भरोसे बैठे हैं तो सरकारी नीति है कि बच्चों को डाट-फटकार न लगाई जाये! यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि बच्चों को किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना की वक़ालत हरगिज़ नहीं की जा रही है,पर अगर माहौल अच्छा होगा तो बच्चे बिगड़ने वाली स्थिति तक पहुंचेंगे ही नहीं।
मैंने व्यक्तिगत स्तर पर कई बार कोशिश की कि वे सिगरेट,पान-मसाला और शराब जैसे व्यसनों से बचें पर बच्चे इसे गंभीरता से लेते ही नहीं। कई बार तो शिक्षक को दिखाकर वे ऐसा करने का दुस्साहस करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अध्यापक केवल एक सरकारी मुलाज़िम है और उसके हाथ बँधे हुए हैं. इसमें भी मैं उनका दोष रत्ती-भर भी नहीं मानता क्योंकि वे एक ऐसे मकड़जाल में फंसे हैं जिसके लिए सीधे-सीधे कोई जिम्मेदार नहीं है। सरकार है कि नियम तो बनाती है पर उनका पालन होना सुनिश्चित नहीं करती। यदि सर्वे किया जाये तो कई स्कूलों के आस-पास सिगरेट,पान-मसाले और शराब की दुकानें मिल जाएँगी ।
अभिभावक भी आज अध्यापकों को वह सम्मान नहीं देते जिससे उनके बच्चों के सामने उनकी गरिमा बरकरार रहे,फिर कैसे वे बच्चे उस 'मास्टर' को अपना शुभ-चिन्तक मानेंगे ?विद्यालयों में नैतिक-शिक्षा को पाठ्यक्रम का अंग बनाया जाना बहुत ज़रूरी है.अलग से इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है . अगर सही मायनों में इस समस्या को देखा जाये तो समाधान निकल सकता है पर इसके लिए समाज,सरकार और संस्थाओं को एक-सुर में बोलना और काम करना होगा नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ी शारीरिक व मानसिक रूप से बीमार होगी और इस सबकी ज़िम्मेदारी हम सबकी होगी !
संशोधित रूप में पुनर्प्रकाशित,पहली बार (२१/१२/२००९)
आपकी द्वारा गयी समस्या वाजिब है ........चाह कर भी इसे खत्म ना कर पाना बड़ी उलझन पैदा करता होगा ?
जवाब देंहटाएंदिल्ली में यह कुछ ज्यादा ही है. मेरे घर के पास परिचित किशोर धुंआ उड़ाते दीखते हैं. पंद्रह-बीस साल पहले लड़के कुछ लिहाज भी करते थे. अब तो ये सारी दुनिया को ठेंगे पे रखकर जो अच्छा लगे वह करते हैं. लड़कियां भी कम पीछे नहीं हैं.
जवाब देंहटाएंयह एक बड़ी समस्या बन रही है -
जवाब देंहटाएंनिर्वात को भरने के लिये इसका सहारा लेते हैं छात्र।
जवाब देंहटाएंआपकी बतायी समस्या गम्भीर है। पुराने जमाने में छात्रों अध्यापकों का समझाया मानते भी थे और कभी कोई नशाखोरी करता पकड़ा जाय तो वह बहुत लज्जित होता था। आज के बच्चे सरकारी नियमों की वजह से बिलकुल उद्दण्ड हो गये हैं।
जवाब देंहटाएंकुछ दिन पहले हमारे स्कूल के तीन बच्चे स्कूल से भागकर नहर पर नहाने चले गये। वहाँ पहले उन्होंने धूम्रपान किया फिर नहर में उतरने की तैयारी में थे, तैरना किसी को न आता था। अध्यापकों द्वारा समय पर खोज करके पहुँचने से एक बड़ा हादसा होते-होते टल गया।
@ निशांत मिश्र हाँ,दिल्ली में रहने का महानगरीय नफा-नुकसान दोनों हैं.कई बच्चे (अधिकतर कबाड बीनने वाले)स्टेशनरी की दूकान से 'फ्लूड'लेकर उसे ही सूंघते हैं !रही बात लड़कियों की तो उनमें अब खुलेआम सिगरेट का शौक लगा है !
जवाब देंहटाएं@ePandit आपका दिया उदाहरण अब सर्वव्यापी हो चुका है,पर इसकी काट हमारा समाज ही ढूंढें,सरकार तो कुछ नहीं कर सकती !
आजकल ये समस्या विकराल रूप धारण कर रही है । बच्चे थोड़े उदंड भी होते जा रहे हैं। डरते नहीं हैं । कुछ नियम ऐसे बन गए हैं जो बच्चों को दुस्साहसी बना रहे हैं। निसंदेह इसके लिए जिम्मेदार हम सभी हैं। मुझे लगता है बच्चों को गलत करते हुए देखें तो टोकना अवश्य चाहिए। एक बार में नहीं तो चार बार में तो समझेंगे ही।
जवाब देंहटाएंनशीली वस्तुओं की सहज उपलब्धता ने शायद इस प्रवृत्ति को अधिक बल दिया है.
जवाब देंहटाएंबच्चे सामने वाले से ही सीखते है ! आगे की रास्ता कमजोर नहीं दिख रही है ! रास्ते की तोड़ना होगा १ बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंइसके लिए जिम्मेदार हम सभी हैं। साथ ही वक्त वक्त की बात है दोस्त,समय बदल रहा है
जवाब देंहटाएंसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सही है. युवा पीढ़ी में विभिन्न रूपों में तम्बाकू का सेवन बढ़ रहा है.एक बार इसका अभ्यस्त हो जाने के बाद मुक्ति बेहद मुश्किल है.बहरहाल, आपको यह जानकर ख़ुशी होगी की लगभग बीस सालों से दिन में ३० बार से अधिक तम्बाकू का पान खाने लत से मैंने ११ माह पहले छुटकारा पा लिया.
जवाब देंहटाएंजाने कैसे इसे युवा फैशन का हिस्सा मानने लगे हैं..एक विकट समस्या.
जवाब देंहटाएंमाता पिता एवं गुरुजनों में संस्कारों के अभाव को उनकी संतान एवं विद्यार्थियों में देखा जा सकता है |
जवाब देंहटाएंस्कूल - कॉलेज के समय के मेरे प्रायः सभी सहपाठी - मित्र नियमित धुम्रपान एवं शनिवार रविवार को अनिवार्य रूप से मद्यपान-गोष्ठी का आयोजन करते थे | मैं उनके संपर्क में रह कर भी धुम्रपान अथवा मद्यपान नहीं करता था |
ये "पीर प्रेशर" वाली बात बकवास है - जिसमें सुसंस्कार न हो और आत्मबल न हो - वह अपने स्वैच्छिक अधोपतन के लिए सदैव अन्य पर दोषारोपण कर के स्वयं को बचाने का पयत्न करता है |
मार्केटिंग एवं ट्रैवेलिंग सेल्समैन का कार्य करने के कारण कई सहकर्मी तो चेन-स्मोकर एवं सायंकाल होते ही मद्यपान के लिए व्याकुल होने वालों के सतत संपर्क में ४ दशक तक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | उनके लिए मैं सदैव आउट-कास्ट (जाति-निष्काषित) ही रहा |
अंततः - उत्पाद के निम्न-स्तरीय अथवा दोषयुक्त होने के लिए उत्पादक (माता-पिता-गुरुजन) ही उत्तरदायी हैं |
@आनंद जी.शर्मा संस्कारों की बात तो ठीक है पर माता-पिता की हद से बहुत ज़्यादा बच्चों को अब समाज में खुले में मिल रहा है...पहले सीमित मात्रा में बच्चों का खुलापन था और उसमें उनके बिगड़ने की आशंका भी कम थी पर आज तो घर के अंदर ही टीवी द्वारा सब कुछ परोसा जा रहा है !
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