बाला साहब ठाकरे के
अवसान के साथ ही देश में नई तरह की बहस शुरू हो गई है।उनकी शवयात्रा में शामिल
लाखों लोगों की भीड़ को उनकी लोकप्रियता के पैमाने पर मानकर उन्हें शिखर-पुरुष,
मसीहा,शेर,हिन्दू हृदय सम्राट और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है।यह भारतीय
संस्कृति है जिसमें किसी की मृत्यु के बाद उसकी बुराई नहीं की जाती पर जब ऐसे शख्स
का दखल सामाजिक या राजनैतिक हो,उसकी बड़ाई मायने रखती हो तो उसकी विचारधारा की
बुराई क्यों वर्जित है ? किसी की भी मौत का जश्न उचित नहीं होता क्योंकि उससे किसी
न किसी की व्यक्तिगत संवेदनाएं जुड़ी होती हैं,पर यदि हम उसकी शान में बढ़ा-चढ़ाकर
कसीदे पढ़ने लग जाएँ,तो यह भी किसी को नागवार गुजर सकता है।
ठाकरे का व्यक्तित्व
बहुतों के लिए कितना भी प्रभावशाली और आकर्षक रहा हो पर थोड़ा ठहरकर यदि हम उनका वैचारिक
और तार्किक धरातल पर मूल्यांकन करें तो कई बातें उनके खिलाफ जाती हैं।यह मूल्यांकन
साधारण आदमी के लिए ज़रूरी नहीं है पर वे एक राजनैतिक हस्ती थे इसलिए कुछ बातें साफ़
होनी चाहिए।उनका सबसे बड़ा गुणधर्म यह माना जाता है कि वे पड़ोसी देश को सरेआम
धमकाते थे।इनकी इस सोच को समर्थन मिला तो उन्होंने अपने ही देश के दूसरे धर्म के
लोगों के प्रति वैसी ही भावना अख्तियार कर ली।यह भी कई लोगों की राजनीति के लिए
उपयुक्त लगा सो वे इससे आगे बढ़कर क्षेत्रवाद तक आ गए।मुंबई में दो तरह के नागरिक
बन गए,उत्तर-भारतीय और मुम्बईकर।आजीवन यह लड़ाई मराठा बनाम बिहारी और महाराष्ट्र
बनाम यू.पी.,बिहार तक ले जाई गई।यहाँ यह समझना होगा कि जो बात हमें धार्मिक लिहाज़ से अच्छी लग सकती है ,वही बात जातीयता और क्षेत्रीयता आ जाने पर नहीं,पर राजनीति के चलते इसमें दबे सुर से सभी दलों की
सहमति रही है ।
हमारा साफ़ मानना यही
है कि जिस मनुष्य को दूसरे मनुष्य को देखने में धर्म,जाति या क्षेत्र का चश्मा
लगाना पड़े,क्या वह वास्तव में साधारण कोटि का मनुष्य भी है ?ठाकरे का अपना संविधान
था,लोकतंत्र में उनका रत्ती भर विश्वास नहीं था।देश के ही नागरिकों को अपने देश
में प्रवासी बना देना,उनमें आपस में घृणा-भाव पैदा करना ,डराना-धमकाना,उपद्रव करना
,अशांति फैलाना अगर देशद्रोह नहीं है तो फ़िर क्या इसे देश-प्रेम कहेंगे ? ऐसा भी
नहीं है कि सिर्फ ठाकरे ही ऐसा करते थे,आज की राजनीति में सब अपनी-अपनी तरह से इसी
तरह का योगदान कर रहे हैं।ऐसे में उनके अवसान को महापुरुष का प्रयाण या एक युग का
अंत कैसे कह सकते हैं ?
उन्हें हिन्दू हृदय
सम्राट कहने वालों को यह भी नहीं पता कि वे ऐसा कहकर हिन्दू धर्म का नुकसान तो कर
ही रहे हैं,उसके बारे में कुछ जानते भी नहीं हैं।ऐसे लोगों को स्वामी विवेकानंद के
हिंदुत्व से सीख लेनी चाहिए न कि सावरकर या मधोक या ठाकरे से !भीड़ को सहारा बनाकर
कई बुद्धिजीवी और साहित्यकार लहालोट हुए जा रहे हैं।उन्हें समझना पड़ेगा कि भीड़-भीड़
में फर्क होता है।भीड़ भिंडरावाला,प्रभाकरन,ओसामा और मुसोलिनी के साथ भी थी और
गाँधी,मार्टिन लूथर किंग और मंडेला के साथ भी ! इसलिए भीड़ के सबक हर समय यकसा नहीं
होते।साहित्यकार जो कथा-कहानी या कविता लिखता है ,उसमें संवेदना और मानवीयता का
पुट आवश्यक तत्व की तरह होता है पर यही साहित्यकार जब किसी व्यक्ति का आकलन करते
हैं तो कहीं न कहीं धर्म,जाति या क्षेत्रीय अस्मिता को ओढ़ लेते हैं ।ठाकरे के
मामले में यही हो रहा है।मीडिया को क्या कहें,वह उनके परिजनों के रोने को भी खबर
बनाता है ! किसी की मौत पर परिजन ही नहीं दूसरे लोग भी व्यथित हो जाते हैं,यह कहाँ
से खबर हुई ?
ठाकरे की मौत से कई
लोग विचलित या द्रवित हैं पर कोई उनके आंसुओं के बारे में भी सोचेगा जिनको अपने ही
देश में आज़ादी से साँस नहीं लेने दी गई हो ?ठाकरे की मौत से ये प्रश्न फ़िर हमारे
सामने हैं ।
तर्कसंगत और विचारणीय लेख ....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संगीता जी ।
हटाएंकुछ कहना नहीं चाहता था इस विषय पर-
जवाब देंहटाएंपर मित्र के लेख ने मनोभावों को प्रकट करने का मौका दिया -आभार वैसवारी ||
जहाँ मराठी अस्मिता, मारी हिंदु हजार |
हिंदु-हृदय सम्राट पर, कौन करे एतबार |
कौन करे एतबार, कई उत्तर के वासी |
होते वहाँ शिकार, होय हमला वध फांसी |
दोहन भय का दिखा, नहीं है कोई शंका |
कृष्णा उद्धव राज, खौफ का बाजे डंका ||
आभार भाई रविकर जी !
हटाएंअंधभक्ति के बजाय इसी तरह के साहस की जरूरत है...
जवाब देंहटाएंआपको बधाई... और उन तमाम लोगों की ओर से शुक्रिया भी, जो "ठाकरे-दृष्टि" के शिकार रहे हैं...
आपके इन शब्दों से बड़ा हौसला मिला है अरविन्द भाई !
हटाएंआभार ।
सर से पाँव तक अवसरवाद और राजनीति के कीचड़ में डूबे आदमी की अंतिम विदाई भी राजनीतिक ही होती है। वह अभागा सामान्य मानव की गरिमामय मृत्यु नहीं पाता, सियासी कौव्वे उसकी लाश के कतरे-कतरे को अपने काम में ले लेते हैं। एक बड़ा ‘आइटम’ पाकर कौव्वे वही कर रहे हैं। यह तो नैसर्गिक है।
जवाब देंहटाएंआपने अपना नुक्ते-नजर बखूबी रखा, आभार!
आभार अमरेन्द्र भाई !
हटाएंआपकी बात में दम है, अगर कोई ओसामा जैसों के मरने पर उसकी तारीफ़ में कसीदे पढता है तो मेरी नज़रों में वह भी ओसामा ही की तरह मानवता का दुश्मन है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शाहनवाज़ भाई !
हटाएंEk saamyik aur zaruri post. Badhayi.
जवाब देंहटाएंजय हो...आभार आपका !
हटाएंतर्कसंगत समायिक विचारणीय लेख,,,
जवाब देंहटाएंrecent post...: अपने साये में जीने दो.
शुक्रिया धीरुजी !
हटाएंआपने तो मूल्यांकन के बारे पूरी कीमत ही कम कर दी।
जवाब देंहटाएं...गलती हो गई साहिब !
हटाएंकभी कभी हमारा अवमूल्यन कई पूर्वधारणाओं से ग्रसित रहता है, गुण दोष जीवितों के लिये ही रहने दें, जो जा चुके हैं, उनकी आत्मा उद्वेलित करने से क्या लाभ?
जवाब देंहटाएं...ऐसी विचारधारा का विरोध ज़रूरी है जिससे हमारे देश और समाज की क्षति हो.ऐसे में साहित्यकार या लेखक की चुप्पी ठीक नहीं है,आम नागरिक की भी नहीं !
हटाएंविचारणीय ...
जवाब देंहटाएंभाई जी आभार !
हटाएंआभार जी !
जवाब देंहटाएंsochne ki taraf unmukhan
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...!
हटाएंशानदार टिप्पणी। जनसत्ता में अभी अभी पढ़ा। मेरा मोबाइल खो जाने के कारण आपको फोन नहीं कर पा रहा हूँ। कृपया मेरे उसी नंबर पे संपर्क करें।
जवाब देंहटाएंआभार शीतल भाई !
हटाएं.
.बात भी कर ली है !
आभार और शुभकामनाएँ !
जवाब देंहटाएंसंतोष जी जो भी हो, वो शख्स बाला साहेब ठाकरे ही था जिसने मुंबई से मुस्लिम गुंडागर्दी को ख़त्म किया... अब कोई ये भी कह सकता है कि इसके लिए उन्होंने हिन्दू गुंडागर्दी को खड़ा कर दिया... तो भाई कहने को तो कुछ भी कहा जा सकता है, लेकिन ये भी सही है कि मैला साफ़ करते वक़्त थोडा बहुत मैला शरीर पर लग ही जाता है. ..
जवाब देंहटाएंरही बात क्षेत्रीयता की तो भाई महाराष्ट्रवाद ही हमे क्यों दीखता है. सब इसमें लिप्त हैं. जो पहले से अपने राज्यों के लिए विशेषधिकार लेकर बैठे हैं पहले उनका विरोध होना चाहिए न...
मुंबई में तो कोई भी बिहारी धमकी झेलकर या पिटाई खाकर एक दुकान मकान की जगह खरीद लेगा और वहां बस भी जायेगा लेकिन जम्मू कश्मीर का क्या, पूर्वोत्तर के राज्य भी विशेधिकार लेकर बैठे हैं उनका क्या...?
लोकेन्द्र भाई ....आप जो भी कह रहे हैं उसे सांविधानिक नज़रिए से बिलकुल उचित नहीं कहा जा सकता.आपके अनुसार गुंडों का भी जाति-धर्म होता है और वह भी केवल मुस्लिम.
हटाएं...आपके लिहाज़ से शिवसैनिक और बजरंगबली शांतिप्रिय समूह हैं.
...अगर बालाजी की तरह कोई बुखारी या गिलानी ऐसा आचरण करता है तो वह देशद्रोही है.
क्या दोहरापन और गजब देशभक्ति है ?
बजरंगदली
हटाएंAAJ BHI आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
जवाब देंहटाएंधार्मिक व्यक्ति के दृष्टिकोण में, नेता के दृष्टिकोण में ,भीड़ के दृष्टिकोण में और लेखक के दृष्टिकोण में फर्क दिखना ही चाहिए। आपने लेखकीय धर्म का खूब निर्वहन किया है। जोरदार आलेख के लिए बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंआभार भाई।
हटाएंअवसान के बाद का मूल्यांकन !
जवाब देंहटाएंलेख की रोचकता का परिचायक है इसमें व्यक्त की गई प्रतिक्रियाएं
देवेन्द्र जी से पूर्ण सहमत हूँ
शुक्रिया!
हटाएंबहुत सार्थक विश्लेषण...
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
हटाएंशायद ऐसी बहत सी बातों का जवाब भविष्य में छिपा है की क्या सही है या गलत ...
जवाब देंहटाएं