26 अप्रैल 2012

उभार की सनक या बिकने की ललक !

आज  हर क्षेत्र में हो रहे नैतिक-मूल्यों के ह्रास का परिणाम  अब  समाज को ख़बरदार  करने वालों पर भी दिखने लगा है।देश की जानी-मानी पत्रिका इंडिया टुडे  के ताज़ा अंक में स्त्रियों के वक्ष-उभार को लेकर नकली चिंता जताई गई है,जबकि इस बहाने पत्रिका ने 'प्लेबॉय' और 'डेबोनेयर' को भी मात देते हुए मुखपृष्ठ पर एक बेहद भड़काऊ और अश्लील चित्र छापा है.पत्रिका के अंदर क्या है अब यह बात गौड़ हो गई है,उसका कंटेंट चाहे बहुत शोधात्मक हो पर यह सब बिना ऐसे चित्र को दिखाए भी किया जा सकता था.इस पत्रिका ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों संस्करणों में यह निंदनीय कृत्य किया है !

'उभार की सनक' नाम से आवरण-कथा छापना और जानबूझकर आपत्तिजनक चित्र लगाना पत्रिका के मुख्य उद्देश्यों को उद्घाटित करता है.संपादक महोदय इसे कहानी की मजबूरी बता कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं पर क्या किसी बलात्कार या अन्य अपराध की खबर को बिना सजीव-चित्र दिए नहीं बताया या समझाया जा सकता है? यह प्रकरण बताता है कि पत्रिका अपनी गिरती हुई साख को इस तरह के हथकंडों से बचाना चाहती है.अगर उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं है तो क्या इस तरह की उल-जलूल हरकत करके उस साख को बचाया जा सकता है ? ज़्यादा समय नहीं बीता  जब इसी पत्रिका के एक महान  संपादक को राजनीतिक गलियारों में सौदेबाजी के लिए जाना गया था.अब उनका अन्यत्र पुनर्वास भी हो गया है ,जिससे पता चलता है कि पत्रकारिता में भी राजनीति का रोग लग गया है.वर्तमान कार्यकारी संपादक यहाँ आने के पहले कई तरह के सामाजिक सरोकारों के प्रति चिंतित दिखाई देते थे,पर उस समूह में वे भी अच्छी तरह से रच-बस और खप गए हैं !

 इस पत्रिका को चलाने वाला एक ख्याति-प्राप्त मीडिया-समूह है.सबसे तेज चैनल भी उसके पास है,जिसमें अंध-विश्वासों से तालुक रखती कथाएं बिना किसी हिचक के चलती रहती हैं.बाबा से विज्ञापन लेकर उसे खबरों में दिखाना और बाद में उसी बाबा के खिलाफ ख़बरें दिखाना यानी दोनों तरफ बाज़ी अपनी.इस काम में तकरीबन सभी लगे हुए हैं.'इंडिया टुडे' की ताज़ा स्टोरी बताती है कि उसे केवल अपने व्यावसायिक हितों की चिंता है और इस आंड़ में चाहे पूरी स्त्री जाति शर्मसार हो,उसे कोई मतलब नहीं है.

इस पत्रिका में भले ही हम किसी गंभीर कहानी को पढ़ रहे हों,तब भी छोटे बच्चे ऐसे चित्रों वाली पत्रिका के बारे में क्या सोचेंगे? क्या हम ऐसी पत्रिका को बिना किसी संकोच और शर्म के पढ़ सकते हैं ? हाँ,यदि ऐसी बातें आये दिन होती रहीं तो निश्चित ही शर्म-संकोच इतिहास की चीज़ हो जायेगी.इलेक्ट्रोनिक-मीडिया में पहले से ही अश्लील विज्ञापन आते रहते हैं पर वे थोड़ी देर में चले जाते हैं,इसके उलट प्रिंट-मीडिया में ऐसे चित्र देर तक और गहरा प्रभाव डालते हैं.इस तरह का कृत्य करके पत्रिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसे किसी भी मुद्दे की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं है,उसे हर हाल में बस बिकना है ! इस काम में वह मॉडल भी बराबर की जिम्मेदार है जो दुर्भाग्य से ग्लैमर और पैसों के लिए अपनी देह का नग्न-प्रदर्शन कर रही है !

23 अप्रैल 2012

बने रहना कठिन है !

दिन-ब-दिन बदलते जा रहे हैं हम ,
आदमी पैदा हुए थे ,पर बने रहना कठिन है !(१)

सीख लीं मक्कारियाँ,खादी पहन हम ने,
रहनुमा तो बन गए ,पर बने रहना कठिन है !(२)

अब समंदर में लहर से चौंक जाता हूँ,
पतवार तो है हाथ में ,पर बने रहना कठिन है !(३)

तेज़  भागी जा रही रफ़्तार से ये ज़िन्दगी,
चली थी संग  सफ़र में, पर बने रहना कठिन है !(४)

दरख़्त जंगल के पुराने हो चले हैं,
नए-से कुछ उगे हैं,पर बने रहना कठिन है !(५)

गीत,दोहे,छंद सब तो बन चुके,
लेखनी तलवार है , पर बने रहना कठिन है !(६)

13 अप्रैल 2012

तुम आओ तो आ जाओ !


डायरी के पुराने पन्नों को
उलट-पुलट के देखता हूँ,
तुम्हारी मुलाकातों का ज़िक्र
अब अतीत में ढूँढता हूँ.
खुद की पकड़ में सूर्यास्त 

सोचता हूँ,
इसी बहाने
तुमसे फिर मुलाक़ात हो जाये,
न वे दिन रहे,न तुम
जब घूमते रहे हम बौराए.

तुम्हारा हँसता-खनकता चेहरा
बाखुदा,अब भी मुझको याद है,
आम के पत्ते जब सिमट गए थे,
गुलाब चू पड़ा था,
तुम्हारी जुल्फ के झोंके से !

बसंत भी ठिठक गया था
निहारकर तुम्हें,
और तुमने उसी अंदाज़ से
अवाक् कर दिया था मुझको !

बिलकुल उसी तरह
अवाक हूँ मैं आज भी ,
इसीलिए
तुम्हें पन्नों में
गर्द पड़े हर्फों में
तलाश रहा हूँ इधर-उधर  !

तुम्हारा इंतजार है
हकीकत में
सपनों में,
पर अब तुम खामोश हो
युगों से,
अनजान हो
मेरे एहसास से,
और यह कि तुम तनहा हो !

तुम आओ तो आ जाओ
मेरे लिए,अपने लिए ,
क्या तुम्हें भी इंतजार है
हमारे खामोश होने का ,
मेरी तन्हाई का ?

10 अप्रैल 2012

विचार जो रिश्तेदारी निभाते हैं !

अभी तक हम अनजान थे इस बात से
कि विचार के कई रंग होते हैं,
वह आँखों में चश्मा पहनता है, 
उसे किसी पर दया आती है
प्यार और संकोच होता है.
विचार अब रिश्तेदारी निभाता है,
उसे लिंग और स्वत्व की पहचान होती है !
विचार गोल-मोल होता है,
छलयुक्त भी होता है विचार,
महाभारत काल से लेकर आज तक 
विचार इधर-उधर देखता है,
गोटियाँ चलाता है,
विचार अब होता नहीं,
उसको संस्कारित और परिष्कृत किया जाता है.
अमूमन मौलिक नहीं,
अनूदित होता है विचार .
वह संकल्प नहीं 
विकल्प बन जाता है,
सामने वाले को देखकर 
मौन होता है,डर जाता है !
विचार अब खेमों में बंटते हैं,
मौका मिलते ही 
आपस में निपटते है !
पर क्या इस विचार को
हम विकलांग नहीं कहेंगे ?
शब्दों की आँड़ लेकर 
उन्हें उधार के अर्थ देंगे ?
अगर तुम्हें शब्दों से खेलना है,
विचार को डंडी मारकर तौलना है,
लोक-लाज के डर से आत्मा को मारना है,
तो हे शब्द-चोर !
तुम इधर मत आना 
क्योंकि यहाँ विचार बनते-बिगड़ते नहीं,
विचार बिकते,पलटते नहीं !
विचार होते हैं
सूरज की रोशनी की तरह,
मंदिर की प्रार्थना की तरह,
धरती की क्षमा की तरह,
जल और आग के गुणों की तरह ! 


8 अप्रैल 2012

महफूज़, तुम अब फ्यूज़ हो गए हो !

कभी प्यारे रहे महफूज़ ,
बहुत दुखी होकर तुमसे मुखातिब हूँ.जब से अविनाश वाचस्पति जी के बारे में तुम्हारी पोस्ट पढ़ी है,तुम्हारे प्रति मेरा नज़रिया बिलकुल बदल गया है.ऐसा नहीं है कि इससे भी तुम्हें या तुम्हारी सेहत पर रत्ती भर भी फर्क पड़ने वाला है,पर यह मेरी एक ब्लॉगर के नाते जिम्मेदारी है कि इस लिखने-लिखाने के मैदान को पहलवानों का अखाडा न बनने दिया जाये.कुछ शालीन और शांति-प्रिय लोगों की तरह या फिर तुमसे दोस्ती के चलते मैं  भी मौन धारण कर सकता था,पर फिर केवल एक कागजी-ब्लॉगर भर बना रह जाता.

पहले मैं यह बता दूँ कि कम ही लोग ऐसे हैं जिन्हें मैंने फेसबुक के ज़रिये उनकी ब्लॉगिंग को जाना और उनमें तुम भी शामिल रहे हो.हमारी बातें भी गाहे-बगाहे होती रही हैं और तुम्हीं से यह  भी जाना कि कई लोग तुमसे बेवजह जलते हैं.बहरहाल कई लोगों के नज़रिए को दरकिनार करते हुए मैंने तुमसे राब्ता कायम रखा और तुम्हें अपनी नज़रों से जानना चाहा.मैं कल अविनाश वाचस्पति जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर के बारे में तुम्हारी शाब्दिक हिंसा से अन्दर तक हिल गया हूँ.जिस तरह की ललकारनुमा  शैली तुमने ईजाद की है ,क्या वह स्वस्थ-लेखन की किसी श्रेणी या खाँचे में फिट हो सकती है ? किसी भी जायज या नाजायज तर्क के चलते कोई भी किसी की आलोचना का अधिकार रखता है,पर भाई उसके लिए शब्द-कोश की कमी नहीं है.यदि इससे इतर कोई भी किसी के जीते जी उसके मरने-मारने की कसमें खाता है ,खुले-आम धमकाता है,अपने मसल्स की मसल्सल  नुमाइश करता है तो कौन-से तर्क से यह सभ्य-समाज की परंपरा का द्योतक कहा जाएगा?

मैं अब इस बात की पृष्ठभूमि में भी थोडा जाऊँगा ,जिसकी बिना पर तुमने यह गुस्ताखी की है.जिस कविता को लेकर इतना बावेला मचा,उसे मैंने भी देखा था और ज़रूरी नहीं कि कुछ लोगों की धारणाओं के अनुसार हर कोई उसकी प्रशंसा ही करे.कवयित्री ने जानबूझकर उसे 'बोल्ड' विषय बताया था सो कुछ बोल्ड कमेन्ट आने की भी आशंका तो थी ही.यदि वह कविता निरा कविताई अंदाज़ और उद्देश्यों को लेकर लिखी गई होती तो उसका शीर्षक ही कुछ और होता.'बोल्ड' कहकर कवयित्री लोगों को आकर्षित करने का साहस तो दिखाती हैं  पर फिर आलोचनात्मक टीपों को भी अश्लीलता की आंड़ में हटा देती हैं.

निश्चित ही, अलबेला जी की टीप बहुत आपत्तिजनक रही,जिसका विरोध मुझ सहित कई लोगों ने वहाँ भी दर्ज किया.इसमें अविनाशजी की साधारण आपत्ति को निशाना बनाकर उनपर ही हमले शुरू हो गए.वे इतने बड़े और छपने वाले ब्लॉगर हैं कि इस तरह के ओछे हथकंडों की उन्हें ज़रुरत नहीं है.तुमसे उनकी खुन्नस यही रही कि उन्हीं कवयित्री की तुमसे सम्बंधित एक पोस्ट रही,जिस पर अविनाशजी ने कुछ सवाल उठाये थे.उसमें कहा गया था कि जर्मनी के किसी विश्वविद्यालय में तुम्हारी कविता पढाई जाएगी.अविनाशजी ने यही खता कर दी कि इस तरह की ख़बरों की प्रमाणिकता की माँग कर दी,तिस पर वो कवयित्री सारा साज-सामान सहित लापता हो गईं .क्या ऐसा सवाल उठाना भी गैर-ज़रूरी था?यदि बात में तथ्य होता तो क्यों सारे भाग खड़े हुए ? अब तुम्हारी इस गोलीबारी और हिंसक शैली को देखकर पता नहीं जर्मनी वाले अपने समाज और देश को किस तरह की प्रेरणा देना चाहेंगे?

महफूज़,अविनाशजी  में हो सकता है कुछ कमियाँ हों,पर ऐसी मारधाड़ और स्टंट वाली भाषा का प्रयोग उन्होंने नहीं किया है.एक व्यंग्यकार होने के नाते कई बार वह वक्र बोलते या लिखते हैं तो उसी शैली में जवाब दिया जा सकता है,पर तुमने अपना पूरा गोला-बारूद निकाल लिया और लड़ाई का मोर्चा खोल दिया.इसे किस तरह की ब्लॉगिंग कहेंगे ? जिस  विषय पर उन कवयित्री ने अपनी कलम चलाई है,मजाल है कोई पुरुष ऐसा लिख लेता.कई अनामिकाएँ वहीँ पर स्यापा पढने लगतीं.ऐसे लोग खुद तो अपने कमेन्ट-बॉक्स पर ताला लगा लेते हैं और दूसरों को गरिया आते हैं.इस मामले में यहाँ तक कि अलबेला जी ने भी सभी टीपों को सम्मान दिया.खुद कवयित्री को अविनाशजी की आपत्ति असहनीय लगती है पर तुम्हारी हर गाली उनके लिए प्रेमगीत !

यह पत्र लिखना ज़रूरी था और उतना ही यह बताना भी  कि ऐसी हिंसक भाषा और गैर-तमीज़ का मुजाहिरा करके तुमने  सिद्ध कर दिया है कि अब हीलियम का पाँच सौ वाट का तुम्हारा बल्ब फ्यूज़ हो चुका है.तुम अब एक गैर ज़रूरी दोस्त,इन्सान और ब्लॉगर हो गए हो !

गालियों और गोलियों की बौछार के लिए तैयार,
तुम्हारा रहा कभी !

5 अप्रैल 2012

प्यार और प्यार !

प्यार सत्य है,
प्यार मुक्ति है,
इच्छाओं से विरक्ति,
प्यार शक्ति है.
प्यार है इबादत
ईश्वर का है उपहार,
प्यार है भरोसा 
तक़दीर है ये प्यार .
प्यार ज़िन्दगी है
प्यार करम है,
प्यार है मुक़म्मल 
प्यार धरम है.
प्यार आरजू है 
प्यार इंतज़ार,
प्यार बेखुदी है
दीवानगी है प्यार ,
प्यार रोशनी है
ये सदाबहार.
प्यार अंतहीन है
प्यार बेहिसाब,
प्यार देवदूत है
प्यार है अवतार,
प्यार माँगता नहीं
मिलता नहीं है प्यार,
प्यार है ईमान
बँटता नहीं है प्यार .
प्यार का हासिल नहीं 
इसकी नहीं मियाद,
अहसास में है बसता
करता लहू से याद.
प्यार आसमान है 
प्यार है परिंदा,
यह फ़सल किसान की
उम्मीद उसकी ज़िन्दा.
प्यार बेसबब
बेगुनाह है प्यार,
प्यार है एहसास,
रूठना-मनुहार .
प्यार है बेदाग़
निर्मल बहता नीर सा,
प्यार है बौछार
दिल में लगे तीर का.
प्यार  है मरहम
बड़े घाव का,
प्यार है ख़ामोशी
प्यार इम्तहान है,
प्यार के असर से
आदमी,इंसान है !
यह अबोध-शिशु है
प्यार है निर्दोष,
प्यार तिज़ारत नहीं
प्यार है संतोष !

2 अप्रैल 2012

तोता और कौवा !

नीले आसमान में 
उड़ते हुए तोते को 
कौवे ने टोंका,
तुम इस तरह आसमान में
अतिक्रमण नहीं कर सकते,
उड़ नहीं सकते !
तुम तभी तक महफूज़ हो
जब तलक उस पिंजरे में,
अपने दायरे में महदूद हो !
खुले आसमान और 
धरती के आँचल में 
अगर तुमने हरकत की ज़रा-सी,
तो वो छोटी कटोरी,
आम की फाँके
और कच्ची शफ़ड़ी भी
भूल जाओगे,
यहीं हमारे सामने 
केवल छटपटाओगे ! 
इसलिए अपना हिस्सा लो
मौके को समझो 
और उड़ो मत !
बाहर का मौसम 
सिर्फ़ मेरे मुफ़ीद है,
तुम्हारे लिए हमारा 
ख़ास इंतजाम  है,
हम चुने हुए हैं 
इसलिए बेख़ौफ़ चुनते हैं,
तू घोंसले में रह 
वही तेरा मक़ाम है !

1 अप्रैल 2012

एक दिन बिक जायेगा.....

कल रात से शरीर पर थकन हावी थी,सुबह भी कुछ अच्छी नहीं रही.लग रह था कि ये रोज़मर्रा की बात हो गई है या यूं ही.सुबह आज कहीं जाना था,पर शरीर ने साथ नहीं दिया सो घर में ही पड़ा रहा. 
अभी अचानक यह गीत सुना तो जैसे थेरेपी सी हो गई.मेरा प्रिय गीत और उसके बोल कुछ समझाते हैं जो हमें एक दिन नहीं रोज़ याद रखना चाहिए !

आप भी सुनेंगे तो वादा है,सब कुछ भूल जायेंगे !