आज हर क्षेत्र में हो रहे नैतिक-मूल्यों के ह्रास का परिणाम अब समाज को ख़बरदार करने वालों पर भी दिखने लगा है।देश की जानी-मानी पत्रिका इंडिया टुडे के ताज़ा अंक में स्त्रियों के वक्ष-उभार को लेकर नकली चिंता जताई गई है,जबकि इस बहाने पत्रिका ने 'प्लेबॉय' और 'डेबोनेयर' को भी मात देते हुए मुखपृष्ठ पर एक बेहद भड़काऊ और अश्लील चित्र छापा है.पत्रिका के अंदर क्या है अब यह बात गौड़ हो गई है,उसका कंटेंट चाहे बहुत शोधात्मक हो पर यह सब बिना ऐसे चित्र को दिखाए भी किया जा सकता था.इस पत्रिका ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों संस्करणों में यह निंदनीय कृत्य किया है !
'उभार की सनक' नाम से आवरण-कथा छापना और जानबूझकर आपत्तिजनक चित्र लगाना पत्रिका के मुख्य उद्देश्यों को उद्घाटित करता है.संपादक महोदय इसे कहानी की मजबूरी बता कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं पर क्या किसी बलात्कार या अन्य अपराध की खबर को बिना सजीव-चित्र दिए नहीं बताया या समझाया जा सकता है? यह प्रकरण बताता है कि पत्रिका अपनी गिरती हुई साख को इस तरह के हथकंडों से बचाना चाहती है.अगर उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं है तो क्या इस तरह की उल-जलूल हरकत करके उस साख को बचाया जा सकता है ? ज़्यादा समय नहीं बीता जब इसी पत्रिका के एक महान संपादक को राजनीतिक गलियारों में सौदेबाजी के लिए जाना गया था.अब उनका अन्यत्र पुनर्वास भी हो गया है ,जिससे पता चलता है कि पत्रकारिता में भी राजनीति का रोग लग गया है.वर्तमान कार्यकारी संपादक यहाँ आने के पहले कई तरह के सामाजिक सरोकारों के प्रति चिंतित दिखाई देते थे,पर उस समूह में वे भी अच्छी तरह से रच-बस और खप गए हैं !
इस पत्रिका को चलाने वाला एक ख्याति-प्राप्त मीडिया-समूह है.सबसे तेज चैनल भी उसके पास है,जिसमें अंध-विश्वासों से तालुक रखती कथाएं बिना किसी हिचक के चलती रहती हैं.बाबा से विज्ञापन लेकर उसे खबरों में दिखाना और बाद में उसी बाबा के खिलाफ ख़बरें दिखाना यानी दोनों तरफ बाज़ी अपनी.इस काम में तकरीबन सभी लगे हुए हैं.'इंडिया टुडे' की ताज़ा स्टोरी बताती है कि उसे केवल अपने व्यावसायिक हितों की चिंता है और इस आंड़ में चाहे पूरी स्त्री जाति शर्मसार हो,उसे कोई मतलब नहीं है.
इस पत्रिका में भले ही हम किसी गंभीर कहानी को पढ़ रहे हों,तब भी छोटे बच्चे ऐसे चित्रों वाली पत्रिका के बारे में क्या सोचेंगे? क्या हम ऐसी पत्रिका को बिना किसी संकोच और शर्म के पढ़ सकते हैं ? हाँ,यदि ऐसी बातें आये दिन होती रहीं तो निश्चित ही शर्म-संकोच इतिहास की चीज़ हो जायेगी.इलेक्ट्रोनिक-मीडिया में पहले से ही अश्लील विज्ञापन आते रहते हैं पर वे थोड़ी देर में चले जाते हैं,इसके उलट प्रिंट-मीडिया में ऐसे चित्र देर तक और गहरा प्रभाव डालते हैं.इस तरह का कृत्य करके पत्रिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसे किसी भी मुद्दे की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं है,उसे हर हाल में बस बिकना है ! इस काम में वह मॉडल भी बराबर की जिम्मेदार है जो दुर्भाग्य से ग्लैमर और पैसों के लिए अपनी देह का नग्न-प्रदर्शन कर रही है !