पिछले कई सालों से दिल्ली में हूँ.अब कभी-कभार ही गाँव जाना होता है.शहरी जीवन जीते हुए मन इसी में रच-बस सा गया है.गर्मियों के दिन हैं,अंदर वाले कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा हूँ .'काले-काले फालसे,खट्ठे-मीठे फालसे ' की आवाज़ मुझे अपने अतीत में ले जाती है.
मैं जब छोटा था,गाँव में अकसर फेरीवाले आया करते.इनमें कपडे ,सब्जी,फल,आइसक्रीम ,गुब्बारे,खिलौने आदि बेचने वाले आते और अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए तरह-तरह की आवाजें निकालते थे.उनमें एक बुज़ुर्ग की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती रहती है.वह महिलाओं से सम्बंधित छोटे-मोटे सामान का विक्रेता था.अपनी साइकिल को वह सामान से सजा के लाता था.उसकी पुकार सुनते ही खरीदारों से पहले हम बच्चे उसकी साइकिल के पीछे हो लेते !
वह एक ही साँस में कह जाता,"हींग,रंग,सेंदुर,काँटा,बाला,कंघा,शीशा......... "आगे हमें याद भी नहीं !
उसके जाने के बाद हम खेल-खेल में यूँ ही आवाज़ लगाया करते.मखौलबाजी करना मेरा बचपन से ही मुख्य शगल रहा है.पास की दो-तीन औरतें मेरी इस नक़ल पे खूब हँसती और उनको 'मिमिक्री' सुनाकर मुझे बहुत मजा आता !
आइसक्रीमवाला तो केवल 'पों-पों' से ही काम चला लेता था.हम लोग भरी दुपहरी में 'बरफ' खाने के लिए चुपचाप घर के पिछवाड़े से सरक लेते.तीन और पाँच पैसे की वह बरफ होती थी !वह 'पों-पों' बजाकर अपना काम पूरा कर लेता.
ऐसे ही याद आते हैं पत्थर काटने वाले,जिन्हें हम 'पथर-कटा' कहते थे.वे पडोसी जिले फतेहपुर से आते और 'जांत',चकिया ,सिलोंटी ,जांत ' की आवाजें लगाते थे !वे सिलवट और जांत (पीसने का देसी यंत्र) आदि को धार देते थे !
अभी थोड़े दिन पहले गाँव जाना हुआ था,पर अब वहाँ भी वैसे फेरीवाले नहीं दीखते.इसकी खास वजह यह हो सकती है कि गाँव के आस-पास बड़ी-बड़ी दुकानें खुल गई हैं.इसीलिए हाट-बाज़ार भी अब नाम को ही लगते हैं !
इन फेरीवालों से भेंट एक और जगह हो जाती है.सफर के दौरान ट्रेन में 'चाय-चाय' की ध्वनि थोड़ा आकर्षण पैदा करती है,पर चाय हाथ में आते ही वह भी नहीं रहता !फिर भी वहाँ कुछ 'विक्रेता-गायक' मिल जाते हैं !
शहर में अकसर 'पेपर,कबाड़ी,पेपर' की कर्कश आवाजें ही सुनने को मिलती हैं.ये फालसेवाले ज़रूर गर्मियों में सुर में बेचते हैं.कभी-कभार 'तरबूज और खरबूजा वाले भी तरन्नुम में आ जाते हैं,पर गाँव वाले फेरी वालों जैसी मौलिकता कहाँ ?
मैं जब छोटा था,गाँव में अकसर फेरीवाले आया करते.इनमें कपडे ,सब्जी,फल,आइसक्रीम ,गुब्बारे,खिलौने आदि बेचने वाले आते और अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए तरह-तरह की आवाजें निकालते थे.उनमें एक बुज़ुर्ग की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती रहती है.वह महिलाओं से सम्बंधित छोटे-मोटे सामान का विक्रेता था.अपनी साइकिल को वह सामान से सजा के लाता था.उसकी पुकार सुनते ही खरीदारों से पहले हम बच्चे उसकी साइकिल के पीछे हो लेते !
वह एक ही साँस में कह जाता,"हींग,रंग,सेंदुर,काँटा,बाला,कंघा,शीशा......... "आगे हमें याद भी नहीं !
साभार:गूगल बाबा |
आइसक्रीमवाला तो केवल 'पों-पों' से ही काम चला लेता था.हम लोग भरी दुपहरी में 'बरफ' खाने के लिए चुपचाप घर के पिछवाड़े से सरक लेते.तीन और पाँच पैसे की वह बरफ होती थी !वह 'पों-पों' बजाकर अपना काम पूरा कर लेता.
ऐसे ही याद आते हैं पत्थर काटने वाले,जिन्हें हम 'पथर-कटा' कहते थे.वे पडोसी जिले फतेहपुर से आते और 'जांत',चकिया ,सिलोंटी ,जांत ' की आवाजें लगाते थे !वे सिलवट और जांत (पीसने का देसी यंत्र) आदि को धार देते थे !
अभी थोड़े दिन पहले गाँव जाना हुआ था,पर अब वहाँ भी वैसे फेरीवाले नहीं दीखते.इसकी खास वजह यह हो सकती है कि गाँव के आस-पास बड़ी-बड़ी दुकानें खुल गई हैं.इसीलिए हाट-बाज़ार भी अब नाम को ही लगते हैं !
इन फेरीवालों से भेंट एक और जगह हो जाती है.सफर के दौरान ट्रेन में 'चाय-चाय' की ध्वनि थोड़ा आकर्षण पैदा करती है,पर चाय हाथ में आते ही वह भी नहीं रहता !फिर भी वहाँ कुछ 'विक्रेता-गायक' मिल जाते हैं !
शहर में अकसर 'पेपर,कबाड़ी,पेपर' की कर्कश आवाजें ही सुनने को मिलती हैं.ये फालसेवाले ज़रूर गर्मियों में सुर में बेचते हैं.कभी-कभार 'तरबूज और खरबूजा वाले भी तरन्नुम में आ जाते हैं,पर गाँव वाले फेरी वालों जैसी मौलिकता कहाँ ?