हमारे एक घनिष्ठ मित्र ने कल प्रस्ताव किया कि चलो आज फ़िल्म देखते हैं,मेरे मन में कोई ख़ास फिल्म देखने का उत्साह नहीं था,पर निरा मनोरंजन की ख़ातिर हमने हाँ भर दी.मित्र के ही चुनाव से हमने 'नो वन किल्ड जेसिका' फ़िल्म देखी.
दिल्ली में रहते हुए पंद्रह साल से अधिक हो रहे हैं.यहाँ की जीवन-शैली की थोड़ी-बहुत समझ भी आ गयी है.वैसे तो हर रोज़ कोई न कोई घटना यहाँ होती रहती है ,पर कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो अभी भी ताज़ादम हैं.इनमें नैना साहनी,प्रियदर्शिनी मट्टू,नितीश कटारा, जेसिका लाल,बी एम डब्लू जैसी घटनाओं ने दिल्ली का चरित्र ही बदल दिया !दिल्ली की पहचान क्या इत्ती-भर ही है ?
जेसिका लाल की हत्या ने हमारे 'मुर्दा' होते समाज को,राजनीति को ,प्रशासन को और ख़ासकर न्यायपालिका को झकझोर कर रख दिया था.उस घटना के बारे में हर कोई जानता है,फिर भी इस फ़िल्म ने इतने दिनों बाद फिर से उन बातों और मुद्दों को जीवित कर दिया है,जिन्हें हम लगातार भूलते जा रहे हैं.फ़िल्म के दौरान ऐसे कई क्षण आए,जब हम भावुक हो गए,मगर हम उस सबरीना की तरह दहाड़ें मार कर नहीं रो सके,जो अपनी बहन की मौत पर कम इस व्यवस्था पर अधिक रो रही थी !दर-असल इस जेसिका को हम सबने मिलकर मारा था !
इस घटना को तवज़्ज़ो इसलिए मिल गयी क्योंकि यह देश की राजधानी में,संभ्रांत लोगों की नाक के नीचे और मीडिया के 'करम' से सबकी निगाह में आ गया,अन्यथा देश भर में रोज़ न जाने कितनी लडकियाँ जेसिका बनने के लिए अभिशप्त हैं !जेसिका मामले में न्यायालय से 'निर्णय' आ जाने के बाद एक समाचार पत्र के शीर्षक NO ONE KILLED JESSICA ने ऐसी चिंगारी लगाई जिसने क़ातिलों को उनकी सही जगह बता दी !
हम तो गए थे सिनेमा देखने अपने मनोरंजन के लिए, पर जब बाहर निकले तो मन और दिल दोनों भारी थे. क्या हम जैसे लोग एक-आध ब्लॉग या लेख लिखकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं,फ़िलहाल इस व्यवस्था में इतनी गुंजाइश बची है,यही क्या कम है ?
दिल्ली में रहते हुए पंद्रह साल से अधिक हो रहे हैं.यहाँ की जीवन-शैली की थोड़ी-बहुत समझ भी आ गयी है.वैसे तो हर रोज़ कोई न कोई घटना यहाँ होती रहती है ,पर कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो अभी भी ताज़ादम हैं.इनमें नैना साहनी,प्रियदर्शिनी मट्टू,नितीश कटारा, जेसिका लाल,बी एम डब्लू जैसी घटनाओं ने दिल्ली का चरित्र ही बदल दिया !दिल्ली की पहचान क्या इत्ती-भर ही है ?
जेसिका लाल की हत्या ने हमारे 'मुर्दा' होते समाज को,राजनीति को ,प्रशासन को और ख़ासकर न्यायपालिका को झकझोर कर रख दिया था.उस घटना के बारे में हर कोई जानता है,फिर भी इस फ़िल्म ने इतने दिनों बाद फिर से उन बातों और मुद्दों को जीवित कर दिया है,जिन्हें हम लगातार भूलते जा रहे हैं.फ़िल्म के दौरान ऐसे कई क्षण आए,जब हम भावुक हो गए,मगर हम उस सबरीना की तरह दहाड़ें मार कर नहीं रो सके,जो अपनी बहन की मौत पर कम इस व्यवस्था पर अधिक रो रही थी !दर-असल इस जेसिका को हम सबने मिलकर मारा था !
इस घटना को तवज़्ज़ो इसलिए मिल गयी क्योंकि यह देश की राजधानी में,संभ्रांत लोगों की नाक के नीचे और मीडिया के 'करम' से सबकी निगाह में आ गया,अन्यथा देश भर में रोज़ न जाने कितनी लडकियाँ जेसिका बनने के लिए अभिशप्त हैं !जेसिका मामले में न्यायालय से 'निर्णय' आ जाने के बाद एक समाचार पत्र के शीर्षक NO ONE KILLED JESSICA ने ऐसी चिंगारी लगाई जिसने क़ातिलों को उनकी सही जगह बता दी !
हम तो गए थे सिनेमा देखने अपने मनोरंजन के लिए, पर जब बाहर निकले तो मन और दिल दोनों भारी थे. क्या हम जैसे लोग एक-आध ब्लॉग या लेख लिखकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं,फ़िलहाल इस व्यवस्था में इतनी गुंजाइश बची है,यही क्या कम है ?
अंधेर हो तो देर न हो।
जवाब देंहटाएं......गर जेसिका दिल्ली में ना होती ?
जवाब देंहटाएं......और जेसिका ......जेसिका ही ना होती तो क्या होता ?
हमारी कार्यपालिका और न्यायपालिका अपवादों की ढेर पर बैठती जा रही है .......कुछ नहीं बस अफ़सोस है इस पर !
@प्रवीण पाण्डेय सही कहा है,न्याय मिलने में ही देरी होती है.यही क्या कम है कि कुछ मामलों में मिल ही रहा है!
जवाब देंहटाएं@प्रवीण त्रिवेदी जेसिका दिल्ली में न होती और 'जेसिका' न होती तो गुमनामी के अंधेरों में बिसरा दी जाती !
ये फिल्म अभी देखी नहीं है मैंने. जल्द ही देखकर बताऊंगा कैसी लगी मुझे.
जवाब देंहटाएं@ सोमेश सक्सेना हर संवेदनशील व्यक्ति को इस तरह की फ़िल्में देखनी चाहिए और समाज के प्रति अपना 'रोल' तय करना चाहिए !
जवाब देंहटाएं