22 अक्टूबर 2010

प्रणय -गीत

मेरे जीवन की प्रथम-किरण,
         मेरे अंतर की कविता हो,
हृदय अंध में डूब रहा ,
        प्रज्ज्वलित करो तुम सविता हो !

मम भाग्य-विधाता  तुम्हीं  हो,
       तुम बिन जीवन है पूर्ण नहीं,
मेरे अंतर-उद्गारों को ,
      साथी ! करना तुम चूर्ण नहीं !


प्रेरणा तुम्हीं हो कविता की,
      मेरे मानस की अमर-ज्योति,
सत्यता तुम्हारे सम्मुख है,
     नहीं तनिक भी अतिशयोक्ति !

मेरे जीवन की डोर तुम्हीं,
    अपने से अलग नहीं करना,
प्यार तुम्हीं से केवल है,
      अंतर्मन में मुझको रखना !!



विशेष :पहला गीत,रचना-काल-१०/०६/१९८७
 स्थान-फतेहपुर(उ.प्र.)

7 अक्टूबर 2010

नेताओं का रोज़गार !

पिछले सप्ताह ही देश में भारी तनाव के बीच राम-मंदिर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया,जिसके बाद अप्रत्याशित शांति देखी गई.कहा गया कि अबकी बार सब पक्षों को यह फ़ैसला स्वीकार्य होगा,लेकिन जैसे ही राजनीति का  एक 'पैकेज' मिला ,फिज़ा बदलते  देर   नहीं  लगी.

दर-असल ,राम-मंदिर का मुद्दा राजनीतिकों द्वारा परवान चढ़ाया गया था और उसका इस तरह अंत होना उन्हें कैसे रास आता  ? जिस 'मलाई' की अपेक्षा वे इस प्रकरण से रखते थे,जब वह हाथ  नहीं लगी तो  उन्होंने अपना असली 'रंग' दिखा दिया! भई, वे यहाँ 'संतई' करने और 'राम-भजन' के लिए थोड़े न  आए हैं!मुलायम की टीस "इस फैसले से मुसलमान अपने को ठगा महसूस कर रहा है", वास्तव में ज़ायज  है.नेताजी राजनीतिक हाशिये  की तरफ़ जा चुके हैं और उनको अपने अखिलेश को भी अभी स्थापित करना है,तो वह तो उसके लिए रोज़गार ही ढूंढ रहे हैं .इस प्रक्रिया में ये मुआ देश,मंदिर और अवाम कहाँ से बीच में आ गई !

यह बेरोज़गारी का दर्द अकेले मुलायम का नहीं है.अपने आडवाणी जी भी तो कब से आस लगाए बैठे हैं?जो फ़सल(रथ-यात्रा चलाकर) उन्होंने बोई थी,उसे दूसरा कैसे काट ले जाए सो वहाँ भी हलचल शुरू हो चुकी है. रही बात बसपा   व काँग्रेस  की तो उन्होंने भी अपनी-अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है.

अर्थात,हमारे आपके लिए यह आस्था , विश्वास  या  क़ानून  का मसला  हो सकता है  पर नेताओं के लिए विशुद्ध व्यावसायिक है और उनके 'पेट' से जुड़ा' ,राजनैतिक-रोज़गार का मामला है.इसलिए,जो लोग समझते थे कि इस फ़ैसले से सांप्रदायिक-सौहार्द क़ायम हो जायेगा तो यह उनकी और शायद न्यायालय की भी भूल है.आने वाले दिनों में कई 'मुलायम' पैदा हो जायेंगे !
और,सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम इसे भोगेंगे !

4 अक्टूबर 2010

ग़ज़ल

हर   जगह  क्यूँ  आप  नज़र  आते  हैं ?
ख्वाबों में भी  साफ़ नजर आते हैं!

दिल की गहराइयों से,तुम्हें चाहा हमने,
फिर भी अजनबी से आप गुजर जाते हैं.

नज़र-ए-इनायत तो कभी हम पे' करो,
सुना है,मुजलिमों पे आप रहम खाते हैं.

ये प्यार का पैग़ाम,शायद पहुँच सके,
इस गली से यूँ,चुपचाप निकल जाते हैं.

हाल-ए-दिल मेरा ,कोई सुना दे "चंचल",
मैं हूँ तनहा,अकेले भी आप जिए जाते हैं!

रचना काल: २१/०६/१९९०
दल्ली-राजहरा (छत्तीसगढ़)

2 अक्टूबर 2010

गाँधी , फिर इस देश में आजा !

गाँधी, फिर इस देश में आजा. 
सत्य,अहिंसा और प्रेम का ,
      फिर से भारत में बिगुल बजा जा !
        गाँधी,फिर इस देश में आजा !

जिस भारत में तूने अपने
       रक्त से शांति-पौध को सींचा,
हिन्दू,मुस्लिम के हृदयों में,
      सद्भाव,प्रेम की रेखा खींचा,

सर्व-धर्म समभाव जगाकर ,
      फिर से प्यार के दीप जला जा !
      गाँधी, फिर इस देश में आ जा !

मानव मूल्यहीन  हो रहे,
         आज तुम्हारे देश में,
 घृणा भर रही है हृदयों में,
         कुछ हैं पशुवत वेश में ,

ऐ मोहन, इस देश में आकर ,
     फिर से 'रघुपतिराघव' गा जा !
     गाँधी, फिर इस देश में आ जा !


विशेष : रचना काल
०२/१०/१९९०  दूलापुर,रायबरेली