पन्द्रहवीं लोकसभा के परिणाम आने के साथ ही सभी दलों के द्वारा मंथन-चिंतन शुरू हो चुका है। जनता ने अनपेक्षित रूप से इन चुनावों में जाति - धर्म की राजनीति करने वालों को करारा ज़वाब दिया है ,यह बात और है कि ऐसे दल इससे कुछ सबक लेते हैं या नहीं ?
उत्तर प्रदेश करीब बीस सालों से किसी सही राजनैतिक नेतृत्व की तलाश में है। अब इतने दिनों बाद प्रदेश में छाया कुहरा छँट रहा है। कांग्रेस को सीटें भले ही इक्कीस मिली हों पर वहाँ की बयार बदल रही है, जनता की प्राथमिकतायें बदल रही हैं ,यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। सपा और बसपा जहाँ सन्निपात की स्थिति में हैं वहीं भाजपा अपने पुराने दिनों की ओर लौटने को अभिशप्त है। नतीज़े आने के बाद से बहिनजी उखड़ी हुई हैं और इसका खामियाज़ा प्रशासनिक मशीनरी उठा रही है क्योंकि उसने बसपा के एजेंट की तरह अपनी भूमिका नहीं निभाई।बसपा ने अपनी हार के लिए ईमानदारी से सोचना भी उचित नहीं समझा। उसकी 'सोशल-इंजीनियरिंग' में बहुत बड़ा सुराख़ हो चुका है, जो फिलवक्त उसे दिखाई नहीं दे रहा है।
सपा एक आदमी के मैनेजमेंट का शिकार हो रही है जो पार्टी को मैनेज कम डैमेज ज़्यादा कर रहा है। मुलायम सिंह की कमज़ोरी है कि वह उसे चाहकर भी नहीं छोड़ सकते भले ही समाजवाद की बलि चढ़ जाए क्योंकि आज की राजनीति में पूँजीवाद ही सब कुछ है। प्रदेश की जनता अभी मुलायम का पिछला शासन नहीं भूली है जब पुलिस और लेखपालों की भर्ती में खुले-आम पैसों का खेल खेला गया था। इसी ऊब के बाद मैडम मायावती आई पर परिणाम सबके सामने है।
भाजपा ने तो चुनाव ही ऊहापोह में लड़ा । उसे कभी तो मन्दिर याद आ जाता है कभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा , पर जनता ने इस तरह जाति और धर्म के खेल से अपने को अलग कर सबको आइना दिखा दिया है । अब पूरे पॉँच साल पड़े हैं आत्म-मंथन के लिए ।
कांग्रेस को भी खुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए । जिस उम्मीद और जोश के रथ पर जनता ने उसे बिठाया है, अगर उसने आगे सही 'फालो-अप ' नहीं किया तो उसके राहुल बाबा का 'मिशन- उत्तरप्रदेश' सीधा ज़मीन पर आ जाएगा।
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