अब लगने लगा है कि अपना देश पूरी तरह से चुनावी बुखार की गिरफ़्त में आ चुका है। सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए सभी पार्टियाँ आखिरी वार में जुटी हैं लेकिन भाजपा का चुनावी अभियान बड़ा ही दिलचस्प है। पार्टी के 'पी.एम.' पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी लिए यह आखिरी समर है। इस अभियान की शुरुआत करते हुए नए व आधुनिक तरीके आजमाने का काम शुरू हुआ था पर चुनाव की औपचारिक घोषणा होते-होते पार्टी अपने परम्परागत हथियारों की शरण लेने को मजबूर हो रही है। इसकी खास वजह यही रही कि चुनाव में बहुमत की बात तो दूर उसके अपने सहयोगी दल किनारा करने लगे और पार्टी के अन्दर ही मतभेद शुरू हो गए । ऐसी दशा में आडवाणी जी को अपना 'सिंहासन' बहुत दूर भागता दिखायी दिया और अंत में वरुण गाँधी जैसे छोटे मोहरे को आगे करके हारी हुई बाज़ी को जीतने की कोशिश की गयी । वरुण ने पीलीभीत की सभा में जो कहा उसका जितना प्रचार-प्रसार और जितनी हील-हुज्ज़त हो उतना ही भाजपा से भागती-कुर्सी उसके पास आयेगी,ऐसा उन लोगों को लगता है जो भारतीय मतदाता का मानस ठीक तरह से नहीं जानते । वरुण के कहे हुए शब्दों को यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है ,वे शब्द भाजपा को थाती और कमाई समझकर अपने पास रख लेने चाहिए क्योंकि चुनाव बाद आडवाणी जी को तसल्ली देने के लिए कुछ नहीं होगा तो वे ही काम आएंगे।
यह भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की विडम्बना ही है कि आप गैर-कानूनी ,गैर-मानवीय बात करके भी अपनी छाती चौड़ी कर सकते हो और यह सोचते हो कि कोई तुम्हारा क्या कर लेगा?
भाजपा ने तो अपना अन्तिम अस्त्र चला दिया है क्योंकि उसे भी पता है कि अगले चुनाव उसे बहुत सुखद परिणाम नहीं देने जा रहे हैं पर वह शायद यह भूल रही है कि आखिरी वार तो मतदाताओं के ही हाथ में है और बहुत दिनों तक उसे कोई बरगला नहीं सकता है।
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