बचपन में
बहुत मानता था ईश्वर को
पढ़ते हुए भी कभी नहीं छोड़ा उसे
शालिग्राम की बटिया को कराता था स्नान
और कंठस्थ कर लिया था सुंदरकांड
सुनता था साधुओं के मुख से निकले ब्रह्म-स्वर
और आनंदित था ‘स्व-धर्म’ में चलते हुए।
तब कभी जब डर लगता
रात में गाँव वाले पीपल के पास से गुजरते हुए
तो जपने लगता हनुमान चालीसा
भूत भी भागते थे सरपट
बिना किसी लाठी या डंडे से मारे
ईश्वर ही मेरे लिए सरकार थी।
और अंततः एक दिन बड़ा हुआ
पढ़-लिखकर समझदार और आत्म-निर्भर बना
ईश्वर को धर दिया था कहीं दूर
अब न डरता था किसी से
न झुकता था किसी ईश्वर के सामने
स्कूल में जब बच्चों को पढ़ाता कबीर को
तब हँसता था उसकी हाज़िरी पर
बिना यह जाने कि ईश्वर भी हँसता होगा
हमारी मूढ़ता और अलपज्ञता पर
हम रोज़ बढ़ रहे थे नास्तिकता की ओर
अक्सर रहते थे नाराज़ सरकार से
कि न जाने क्यों
शिक्षालय और हस्पतालों के बदले
वह बनवाती है देवालय
और स्थापित करती है मूर्तियाँ
उसकी दूरंदेशी तब समझ आई
जब मौत से भी अधिक डराने लगी महामारी
सरकार दूरदर्शन पर रोज़ आने लगी
बंद पड़ा रेडियो चल पड़ा
‘घरबंदी’ में जब सब कुछ बंद था
चुपके से घर में आ गया था ईश्वर
मानो सारी सत्ता के साथ हमें भी सौंप दिया हो उसे
चूँकि ईश्वर ख़ुद नहीं बोलता
तो स्वयं बोली सरकार
“तुम्हें कुछ नहीं होगा
हम हैं तुम्हारे साथ आख़िरी वक़्त तक
बस तुम हौसला बनाए रखो इस पैकेज के साथ।”
हमने बजाईं तालियाँ इस पर
लट्टू हो गया था सरकार की उदारता पर
पर उस हौसले को सबसे पहले उसने ही छोड़ा
फिर छोड़ दिया मज़दूरों को उनके हाल पर
आत्माओं को रौंदती रहीं सड़कें
हम फिर भी बचे रहे
रुक-रुक कर थाली पीटते रहे
फिर यकायक एक दिन
उसने विज्ञापन में बताया कि सब कुछ ठीक होगा
ईश्वर पर भरोसा रखो
और उसने खोल दिए सभी देवालयों के कपाट
बंद करके ज़िंदगी का आख़िरी रोशनदान
और हमें धकेल दिया फिर से उसी ईश्वर के पास
जिसे हम समझदार होने से ऐन पहले
छोड़ आए थे पाखंड और प्रपंच की तरह
फिर से उसका आह्वान आरंभ किया है
कर रहा हूँ पुनर्पाठ चौपाई और मंत्रों का
फ़िलवक्त कबीर को रख दिया है ‘होल्ड’ पर
भूल चुका हूँ पुराने पाठ और तर्क
जान चुका हूँ असली सरकार कौन है
भले ही बोलता नहीं है ईश्वर
पर ध्यान से सुनता तो है हमारी
हमें फिर से ईश्वर के हँसने की आवाज़ सुनाई दे रही है !
संतोष त्रिवेदी
०८/०६/२०२०
वाह वाह त्रिवेदी जी, बहुत सुन्दर व्यंग्यात्मक रचना।साधुवाद।
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