21 अक्टूबर 2013

धर्म,धर्मनिरपेक्षता और धर्मान्धता !



हमारा देश जब आज़ाद हुआ था तो इसके आधार में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की अवधारणा मुख्य रूप से थी ।उस समय देश के नव-निर्माण और सृजन में जो लोग अगुवाई कर रहे थे,उनने कुछ विरोधों के बावजूद ऐसा स्वरुप स्वीकारा था ,जो आगे चलकर हमारे देश की मुख्य पहचान (यूएसपी) सिद्ध हुई ।किसी देश में धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व के लिए वहाँ की बहुसंख्य आबादी के बजाय वहाँ के रहनुमाओं की सांविधानिक और लोकतान्त्रिक निष्ठा जिम्मेदार होती है,इसके उदाहरण पाकिस्तान और इंडोनेशिया से समझे जा सकते  हैं।अपने देश में गाहे-बगाहे,खासकर चुनावों के समय धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस ज़ोर पकड़ लेती है अब यह इतना अपरिहार्य तत्व हो चुका है कि इसके आलोचक भी खुले-आम इसकी ज़रूरत पर बल देते हैं।वे भी अब अपने को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बताने लगे हैं।धर्म,धार्मिकता,धर्मनिरपेक्षता और धर्मान्धता पर अपनी राय कुछ इस तरह से है।

धर्म का सीधा मतलब खास पूजा-पद्धति से लगाया जाता है।उस धर्म का प्रतीक विशेष ईश्वर होता है और हम मानते हैं कि उसको मानने वाला उस खास धर्म का अनुयायी है।दरअसल,धर्म का अर्थ किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन के आचरण को प्रभावित करने में सहायक होता है।इससे उसे वह दिशा मिलती है जो सन्मार्ग पर ले जाती है।धार्मिक व्यक्ति कभी प्राकृतिक या मानवीय नियमों का उल्लंघन नहीं करता।वह धर्म से यह सीखता है कि उसके अतिरिक्त जो भी व्यक्ति हैं,चाहे वे किसी भी जाति,धर्म या क्षेत्र के हों,बिलकुल उसी के जैसे हैं।वह मानवजनित खांचे (जाति-धर्म) के आधार पर भेदभाव नहीं करता।धर्म सभी को जोड़ता है,तोड़ता नहीं।किसी धर्म की दूसरे धर्म से तुलना ही गलत है।यह जीवन-शैली का साधन-मात्र है।जो लोग पूजा-पाठ नहीं करते और मानवीय स्वभाव रखते हैं,वे सबसे बड़े धार्मिक हैं।

जब तक व्यक्ति धर्म को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रखता है,उसमें स्वयं को सुधारने की ललक होती है ,वह विनम्र होता है।जब व्यक्ति धर्म को सामूहिक रूप से देखने का भाव आने लगता है,उसमें धार्मिकता आ जाती है,वह दूसरों के प्रति तुलनात्मक हो उठता है।धार्मिकता का अतिवादी रूप ही धर्मान्धता में परिणित हो जाता है।स्वयं के लिए धार्मिकता नुकसानदेह नहीं है,पर धीरे-धीरे धर्मान्धता इसे अपनी ओर खींचने का प्रयास करती है।धर्मांध व्यक्ति धार्मिक तो होता ही नहीं,वह साधारण व्यक्ति भी नहीं होता।वह मानव और प्रकृति दोनों का शत्रु होता है।वह अपने निजी विचार और मत को धर्म के नाम पर दूसरों पर थोपने का प्रयास करता है।धर्मान्धता दरअसल,स्वयं की सबसे बड़ी शत्रु होती है।

धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब अधार्मिक होना नहीं होता।जो धार्मिक होगा,वस्तुतः वही धर्मनिरपेक्ष होता है।इसमें व्यक्ति स्वयं के आचरण को सुधारने के लिए धार्मिक होता है पर दूसरों की जीवनशैली में बाधक नहीं बनता,न ही उनके जीवन में किसी प्रकार का दखल देने का यत्न करता है। धार्मिक होते ही हम हिन्दू,मुस्लिम या ईसाई बनने लगते हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष होने पर हम कहीं अधिक मानवीय होते हैं,मानव-धर्मी होते हैं।सच्चा धार्मिक कभी दूसरे धर्म या धर्मी को कमतर नहीं समझता।इसलिए व्यक्तिगत जीवन में धर्म बहुत महत्वपूर्ण है।हम सबका धर्म अंततः मानवता-प्रेमी ही होना चाहिए क्योंकि जब मानवता ही नहीं रहेगी,कोई धर्म नहीं बचेगा।

 

 

9 अक्टूबर 2013

नारी-शक्ति के मायने !

जब नारी-शक्ति की बात होती है तो सामान्य लोग इसे लैंगिक आधार पर देखने लगते हैं। इस तरह उनको लगता है कि यह स्त्री के पुरुष से अधिक शक्ति की बात है,जबकि ऐसा नहीं है। नारी सृजन का पर्याय है और सृष्टि में संतुलन के लिए वह अपनी शक्ति का प्रयोग करती है। इसमें सृजन और संहार दोनों समाहित हैं। इस प्रक्रिया में पुरुष भी एक तत्व है पर इसका मतलब नारी उसके विरुद्ध है,उचित नहीं है।
नर-नारी की तुलना करने के बजाय नारी-शक्ति को समझना चाहिए। लैंगिक आधार पर गुण-अवगुण दोनों में विद्यमान होते हैं पर सृजन के आधार-स्तंभ के रूप में  देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि लैंगिक-दृष्टि से देखने पर हम नारी के अर्थ और उसकी महत्ता को संकुचित कर देते हैं। शक्तिस्वरूपा नारियों ने बिना कोई लिंगभेद किए आसुरी-प्रवृत्तियों का नाश किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नारी को शक्ति कहने के पीछे कोई पुरुष-विरोधी मानसिकता नहीं है। यह भी सही नहीं है कि नारी को हम देवी-स्वरूप देकर उसे केवल पूजा-पाठ की वस्तु मान लें। अतीत में समाज के कुछ चतुर लोगों ने अवश्य यह जाल फ़ैलाने का प्रयास किया और वही मानसिकता अभी तक बरक़रार है। नारी पर फूल-माला चढ़ाकर उसे एक प्रतिमा में बदल देना उसके अस्तित्व को बाँध देना है।
 
समाज में लैंगिक भेदभाव के चलते नारी को प्रमुखता न दिए जाने से उसका महत्त्व कम नहीं हो जाता । मुख्य बात यह है कि कोई भी अपनी सत्ता को क्यों छोड़ना चाहेगा ? यह आज हर क्षेत्र में हो रहा है,इसके लिए स्वयम को पहचानना होता है,तभी अधिकार मिलते हैं। जब तक आप अधिकार देने की बात करेंगे,देनेवाले को आप स्वतः महान बना देते हैं। कौन से अधिकार नारी के लिए उचित हैं या अनुचित हैं,इसका निर्णय भी वही ले सकती है। समाज में नारी की स्वतंत्रता को लेकर जो हल्ला मचता है,दरअसल वो निरर्थक और अनुचित है। नारी आज अपनी स्वतंत्रता और उसका दायरा बाँधने के लिए स्वयं सक्षम है। स्वतंत्रता की इस राह में उसे यदि खुली हवा के झोंके मिलेंगे तो अंधड़ के थपेड़े भी। समाज इस विषय में अपना विचार तो दे सकता है पर अध्यादेश नहीं जारी कर सकता।
 
नारी को हम जब तक केवल  लैंगिक  आधार पर ही देखते रहेंगे,हर बात पर पुरुष से तुलनात्मक अध्ययन करते रहेंगे,वह अबला और शोषित बनी रहेगी। साहित्य और समाज में नारीवाद का अलग खेमा बनाकर हम नारी-शक्ति को केवल सीमित और प्रतिस्पर्धी बना रहे हैं। नारी समाज का कोई खेमा या वाद भर नहीं है। यह समाज की सूत्रधार है। इसलिए उसकी अपनी महत्ता है,उसे किसी से मांगने की ज़रूरत नहीं है।