28 फ़रवरी 2010

होली या ठिठोली !

हम तो यारों रंग ते खेली,वी ताने बन्दूक।
हमरी ते तो पानी निकरै,औ उनकी ते हूक। ।

हमरे रंग मिलावटी ,उनके असली लाल।
बच्चे भी अब डर रहे, देख अबीर-गुलाल । ।

होली आते ही हुए ,वो तो मालामाल।
नकली मावा भले ही ,सबको करे हलाल। ।

गुझिया,खुरमा खो गए बचपन के पकवान।
फागुन में ही बुझ गए ,बुढऊ के अरमान। ।

ना कान्हा मथुरा मिलैं,नहीं अवध रघुबीर।
फाग सुने से जाए ना ,हमरे मन की पीर। ।

17 फ़रवरी 2010

कैसी शिक्षा व्यवस्था ?


देश के सभी बोर्डों में बारहवीं का एक ही पाठ्यक्रम(गणित व विज्ञान) लागू किये जाने की बात तय हुई है,अच्छी खबर है। पर यहाँ मुख्य सवाल यह है कि क्या इतने भर से सारे बच्चों के साथ न्याय हो जायेगा ? हर प्रदेश में हर बोर्ड में,हर स्कूल में और हर अभिभावक की स्थिति में क्या समानता है ?

दर असल हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की ज़रुरत है। आज नौकरियों में जो माँग पेश की जाती है ,उसका आधार महज़ एक समान परीक्षा-पद्धति है,पर क्या इस पर गंभीरता से विचार होता है कि जब सबकी शिक्षा-पद्धति अलग है तो योग्यता के निर्धारण का पैमाना एक कैसे न्यायोचित है?
चाहे ,गाँव और शहर का फ़र्क हो,अमीरी,ग़रीबी का हो ,शिक्षण-संस्थानों का हो -फ़र्कों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है !
हमारे क़ानून-निर्माता और भाग्य-निर्माता इन फ़र्कों से परे है क्योंकि इनसे वे अप्रभावित हैं ! यह गाँधी जी के सपनों का भारत है क्या जिसमें सत्ता देने वाला असहाय और साधन-हीन होता है जबकि देश-सेवा के नाम पर शपथ लेने वाले अपने साधनों को समृद्ध करते जाते हैं !
गाँधी जी ने प्राथमिक-शिक्षा को बड़ी गंभीरता से लिया था पर आज आम आदमी अपने बच्चे को स्कूल में दाख़िला कराने की ही ज़द्दोज़हद करता है और यह प्रक्रिया उच्च शिक्षा व व्यावसायिक शिक्षा तक जाती है।
क्या ही अच्छा होता कि सारे देश में एक शिक्षा-प्रणाली हो जिसमें सबको समान मौके मिलें व अपनी प्रतिभा निखारने का अवसर मिले !सरकार सर्व शिक्षा अभियान चलाकर करोड़ों रूपये अधिकारियों व बिचौलियों पर न्योछावर कर रही है पर मूल समस्या पर वह ध्यान नहीं दे रही है।
आज सरकारी विद्यालय धर्मशालाओं में तब्दील हो रहे हैं जहाँ बच्चों के लिए खाना-पीना,बस्ता ,रुपया मुफ़्त बँट रहा है,सिवाय शिक्षा के !स्कूलों में शैक्षणिक माहौल क़ायम करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए ,वहां जब तक पढ़ाई का वातावरण नहीं बन पाता तब तक पाठ्यक्रम एक करने की कसरत अधूरी ही रहेगी !

8 फ़रवरी 2010

पुस्तक-मेला और पुलिस !

दिल्ली में हो रहे १९ वें विश्व पुस्तक-मेले के आख़िरी दिन मैं अपने-आप को रोक नहीं पाया और वहां अपनी उपस्थिति ऐसे दर्ज़ कराई गोया मेरे गए बिना यह मेला संपन्न ही न होता ! बहर-हाल मैं वहाँ पहुंचा तो अकेले था,पर अपन का नसीब ऐसा है कि हमें झेलने के लिए कोई न कोई मिल ही जाता है। वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर थे कि अचानक महेंद्र मिश्राजी दिखाई दिये और हम उनके साथ हो लिए। वास्तव में मैं उन्हें अपने से ज़्यादा गंभीर व साहित्यिक तबियत का मानता हूँ।

हम दोनों एक स्टॉल से दूसरे में विचर ही रहे थे कि अचानक एक स्टॉल पर नज़र पड़ी और हम दोनों उत्सुकता-वश वहीँ घुस लिए !यह हरियाणा पुलिस द्वारा लगाया गया था। स्टॉल में प्रवेश करते ही एक शिखाधारी कोट-पैंट पहने सज्जन ने 'एफ़.आई.आर.'की एक पुस्तिका हमारे आगे कर दी,मैंने तुरत कमेन्ट किया कि पुलिस 'एफ.आई.आर.' तो लिखती नहीं ,पर इसे पढ़ा रही है ! इस पर उन सज्जन ने ,जो हरियाणा पुलिस के अधिकारी लगते थे, हमें ढंग से ,बिना औपचारिकता निभाए ,बताया कि पुलिस ऐसा नहीं करती है,तभी हम इस तरह की मुहिम चला रहे हैं कि जनता जागरूक हो और वह क़ानून की थोड़ी समझ विकसित कर ले तो पुलिस अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकेगी। उन्होंने इसके बाद मित्रसेन मीत की लिखी किताब 'राम-राज्य' दिखाई और विस्तार से बताया कि इसे पढ़ने के बाद कोई भी आदमी पुलिस के हथकंडों से परिचित हो जायेगा। हम दोनों उन सज्जन की बातों से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके । हमने उनके द्वारा संस्तुत पुस्तक और कुछ अन्य पुस्तकें भी ली,जिनमें एक तो पुलिस-अधिकारी द्वारा ही लिखी गयी है ।

यह प्रसंग बताने का मकसद इसलिए रहा क्योंकि आम आदमी पुलिस की छाया से भी बचना चाहता है,पर हरियाणा पुलिस ने साहित्य के द्वारा आम जन की संवेदना को समझने और समझाने का प्रयास किया है,वह सराहनीय है। जिस हरियाणा के आम आदमी की बोल-चाल कई लोगों को अखरती है,वहाँ की पुलिस द्वारा ऐसी सभ्य बातें करना हमें आश्चर्य में डालने के लिए काफ़ी था। हम दोनों मित्र वहाँ कुछ देर तक रहे,आपस में कुछ विमर्श के साथ जान-पहचान भी हुई। वो सज्जन श्री ओम प्रकाश जी थे ,जिनसे मिलकर हमने मेले की सार्थकता सिद्ध की ।

वास्तव में हमें तो पहली बार यह पुलिसिया अंदाज़ पसंद आया !