दिल्ली में हो रहे १९ वें विश्व पुस्तक-मेले के आख़िरी दिन मैं अपने-आप को रोक नहीं पाया और वहां अपनी उपस्थिति ऐसे दर्ज़ कराई गोया मेरे गए बिना यह मेला संपन्न ही न होता
! बहर-हाल मैं वहाँ पहुंचा तो अकेले था,पर अपन का नसीब ऐसा है कि
हमें झेलने के लिए कोई न कोई मिल ही जाता है। वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर थे कि अचानक महेंद्र मिश्राजी दिखाई दिये और हम उनके साथ हो लिए। वास्तव में मैं उन्हें अपने से ज़्यादा गंभीर व साहित्यिक तबियत का मानता हूँ।
हम दोनों एक स्टॉल से दूसरे में विचर
ही रहे थे कि अचानक एक स्टॉल पर नज़र पड़ी और हम दोनों उत्सुकता-वश वहीँ घुस लिए !यह हरियाणा पुलिस द्वारा लगाया गया था। स्टॉल में प्रवेश करते ही एक शिखाधारी कोट-पैंट पहने सज्जन ने 'एफ़.आई.आर.'की एक पुस्तिका हमारे आगे कर दी,मैंने तुरत कमेन्ट किया कि पुलिस 'एफ.आई.आर
.' तो लिखती नहीं ,पर इसे पढ़ा रही है ! इस पर उन सज्जन ने ,जो हरियाणा पुलिस के अधिकारी लगते थे, हमें ढंग से ,बिना औपचारिकता निभाए ,बताया कि पुलिस ऐसा नहीं करती है,तभी हम इस तरह की मुहिम
चला रहे हैं कि जनता जागरूक हो और वह क़ानून की थोड़ी समझ विकसित कर ले तो पुलिस अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकेगी। उन्होंने इसके बाद मित्रसेन मीत की लिखी किताब 'राम-राज्य' दिखाई और विस्तार से बताया कि इसे पढ़ने के बाद कोई भी आदमी पुलिस के हथकंडों से परिचित हो जायेगा। हम दोनों उन सज्जन की
बातों से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके । हमने उनके द्वारा संस्तुत पुस्तक और कुछ अन्य पुस्तकें भी ली,जिनमें एक तो पुलिस-अधिकारी द्वारा ही लिखी गयी है ।
यह प्रसंग बताने का मकसद इसलिए रहा क्योंकि आम आदमी पुलिस की छाया से भी बचना चाहता है,पर हरियाणा पुलिस ने साहित्य के द्वारा आम जन की संवेदना को समझने और समझाने का प्रयास किया है,वह सराहनीय है। जिस हरियाणा के आम आदमी की बोल-चाल
कई लोगों को अखरती है,वहाँ की पुलिस द्वारा ऐसी सभ्य बातें करना हमें आश्चर्य में डालने के लिए काफ़ी
था। हम दोनों मित्र वहाँ कुछ देर तक रहे,आपस में कुछ विमर्श के साथ जान-पहचान भी हुई। वो सज्जन श्री ओम
प्रकाश जी थे ,जिनसे मिलकर हमने मेले की सार्थकता सिद्ध की ।
वास्तव में हमें तो पहली बार यह पुलिसिया अंदाज़ पसंद आया !